Friday, April 30, 2010

वशीकरण मंत्र


कामाख्‍या देश कामाख्‍या देवी,
जहॉं बसे इस्‍माइल जोगी,
इस्‍माइल जोगी ने लगाई फुलवारी,
फूल तोडे लोना चमारी,
जो इस फूल को सूँघे बास,
तिस का मन रहे हमारे पास,
महल छोडे, घर छोडे, आँगन छोडे,
लोक कुटुम्‍ब की लाज छोडे,
दुआई लोना चमारी की,
धनवन्‍तरि की दुहाई फिरै।'

विधि= 'किसी भी शनिवार से शुरू करके 31 दिनों तक नित्‍य 1144 बार मंत्र का जाप करें तथा लोबान, दीप और शराब रखें, फिर किसी फूल को 50 बार अभिमंत्रित करके स्‍त्री को दे दें। वह उस फूल को सूँघते ही वश में हो जाएगी।''



Thursday, April 29, 2010

भूत लगे व्यक्ति की पहिचान

अक्सर लोगों के अन्दर भूत प्रेत घुस जाते है और वे व्यक्ति के जीवन को तबाह कर देते है,भूत-डामर तंत्र में उनकी पहिचान जिस प्रकार से बताई गयी है वह निम्न लिखित है।


  • भूत लगे व्यक्ति की पहिचान
जब किसी व्यक्ति को भूत लग जाता है तो वह बहुत ही ज्ञान वाली बातें करता है,उस व्यक्ति के अन्दर इतनी शक्ति आजाती है कि दस दस आदमी अगर उसे संभालने की कोशिश करते है तो भी नही संभाल पाते हैं।

  • देवता लगे व्यक्ति की पहिचान

जब लोगों के अन्दर देवता लग जाते है तो वह व्यक्ति सदा पवित्र रहने की कोशिश करता है,उसे किसी से छू तक जाने में दिक्कत हो जाती है वह बार बार नहाता है,पूजा करता है आरती भजन में मन लगाता रहता है,भोजन भी कम हो जाता है नींद भी नही आती है,खुशी होता है तो लोगों को वरदान देने लगता है गुस्सा होता है तो चुपचाप हो जाता है,धूपबत्ती आदि जलाकर रखना और दीपक आदि जलाकर रखना उसकी आदत होती है,संस्कृत का उच्चारण बहुत अच्छी तरह से करता है चाहे उसने कभी संस्कृत पढी भी नही होती है।

  • देवशत्रु लगना
देव शत्रु लगने पर व्यक्ति को पसीना बहुत आता है,वह देवताओं की पूजा पाठ में विरोध करता है,किसी भी धर्म की आलोचना करना और अपने द्वारा किये गये काम का बखान करना उसकी आदत होती है,इस प्रकार के व्यक्ति को भूख बहुत लगती है।उसकी भूख कम नही होती है,चाहे उसे कितना ही खिला दिया जाये,देव गुरु शास्त्र धर्म परमात्मा में वह दोष ही निकाला करता है। कसाई वाले काम करने के बाद ऐसा व्यक्ति बहुत खुश होता है।


  • गंधर्व लगना
जब व्यक्ति के अन्दर गन्धर्व लगते है तो उसके अन्दर गाने बजाने की चाहत होती है,वह हंसी मजाक वाली बातें अचानक करने लगता है,सजने संवरने में उसकी रुचिया बढ जाती है,अक्सर इस प्रकार के लोग बहुत ही मोहक हंसी हंसते है और भोजन तथा रहन सहन में खुशबू को मान्यता देने लगते है,हल्की आवाज मे बोलने लगते है बोलने से अधिक इशारे करने की आदत हो जाती है.
यक्ष लगने पर व्यक्ति शरीर से कमजोर होने लगता है,लाल रंग की तरफ़ अधिक ध्यान जाने लगता है,चाल में तेजी आजाती है,बात करने में हकलाने लगता है,आदि बातें देखी जाती है,इसी प्रकार से जब पितर दोष लगता है तो घर का बडा बूडा या जिम्मेदार व्यक्ति एक दम शांत हो जाता है,उसका दिमाग भारी हो जाता है,उसे किसी जडी बूटी वाले या अन्य प्रकार के नशे की लग लग जाती है,इस प्रकार के व्यक्ति की एक पहिचान और की जाती है कि वह जब भी कोई कपडा पहिनेगा तो पहले बायां हिस्सा ही अपने शरीर में डालेगा,अक्सर इस प्रकार के व्यक्ति के भोजन का प्रभाव बदल जाता है वह गुड या तिल अथवा नानवेज की तरफ़ अधिक ध्यान देने लगता है। अक्सर ऐसे लोगों को खीर खाने की भी आदत हो जाती है,और खीर को बहुत ही पसंद करने लगते हैं। नाग दोष लगने पर लोग पेट के बल सोना शुरु कर देते है,अक्सर वह किसी भी चीज को खाते समय सूंघ कर खाना शुरु भी करता है,दूध पीने की आदत अधिक होती है,एकान्त जगह में पडे रहना और सोने में अधिक मन लगता है,आंख के पलक को झपकाने में देरी करता है,सांस के अन्दर गर्मी अधिक बढ जाती है,बार बार जीभ से होंठों को चाटने लगता है,होंठ अधिक फ़टने लगते है। राक्षस लगने पर भी व्यक्ति को नानवेज खाने की अधिक इच्छा होती है,उसे नानवेज खाने के पहले मदिरा की भी जरूरत पडती है,अक्सर इस प्रकार के लोग जानवर का खून भी पी सकते है,जितना अधिक किसी भी काम को रोकने की कोशिश की जाती है उतना ही अधिक वह गुस्सा होकर काम को करने की कोशिश करता है,अगर इस प्रकार के व्यक्ति को जंजीर से भी बांध दिया जाये तो वह जंजीरों को तोडने की कोशिश भी करता है अपने शरीर को लोहू लुहान करने में उसे जरा भी देर नही लगती है। वह निर्लज्ज हो जाता है,उसे ध्यान नही रहता है कि वह अपने को माता बहिन या किस प्रकार की स्त्री के साथ किस प्रकार का व्यवहार करना चाहिये.अक्सर इस प्रकार के लोग अचानक बार करते है और अपने कपडे तक फ़ाडने में उनको कोई दिक्कत नही होती है,आंखे जरा सी देर में लाल हो जाती है अथवा हमेशा आंखे लाल ही रहती है,हूँ हूँ की आवाज निकालती रहती है। पिशाच लगने के समय भी व्यक्ति नंगा हो जाता है अपने मल को लोगों पर फ़ेंकना चालू कर देता है,उसे मल को खाते तक देखा गया है,वह अधिकतर एकान्त मे रहना पसंद करता है,शरीर से बहुत ही बुरी दुर्गंध आने लगती है,स्वभाव में काफ़ी चंचलता आजाती है,एकान्त में घूमने में उसे अच्छा लगता है,अक्सर इस प्रकार के लोग घर से भाग जाते है और बियावान स्थानों में पडे रहते है,वे लोग अपने साथ पता नही कितने कपडे लाद कर चलते है,सोने का रहने का स्थान कोई पता नही होता है। इस प्रकार के व्यक्ति को भी भूख बहुत लगती है,खाने से कभी मना नही करता है। सती लगने वाला व्यक्ति अक्सर स्त्री जातक ही होता है,उसे श्रंगार करने में बहुत आनन्द आता है,मेंहदी लगाना,पैरों को सजाना,आदि काम उसे बहुत भाते है,सती लगने के समय अगर पेट में गर्भ होता है तो गिर जाता है,और सन्तान उत्पत्ति में हमेशा बाधा आती रहती है,आग और आग वाले कारणों से उसे डर नही लगता है,अक्सर इस प्रकार की महिलायें जल कर मर जाती है। कामण लगने पर उस स्त्री का कंधा माथा और सिर भारी हो जाता है,मन भी स्थिर नही रहता है,शरीर दुर्बल हो जाता है,गाल धंस जाते है,स्तन और नितम्ब भी बिलकुल समाप्त से हो जाते है,नाक हाथ तथा आंखों में हमेशा जलन हुआ करती है। डाकिनी या शाकिनी लगने पर उस स्त्री के पूरे शरीर में दर्द रहता है,आंखो में भारी दर्द रहता है,कभी कभी बेहोसी के दौरे भी पडने लगते है,खडे होने पर शरीर कंपने लगता है,रोना और चिल्लाना अधिकतर सुना जा सकता है,भोजन से बिलकुल जी हट जाता है। इसी प्रकार से क्षेत्रपाल दोष लगने पर व्यक्ति को राख का तिलक लगाने की आदत हो जाती है,उसे बेकार से स्वपन आने लगते है,पेट में दर्द होता रहता है,जोडों के दर्द की दवाइयां चलती रहती है लेकिन वह ठीक नही होता है। ब्रह्मराक्षस का प्रभाव भी व्यक्ति को अथाह पीडा देता है,जो लोग पवित्र कार्य को करते है उनके बारे में गलत बोला करता है,अपने को बहुत ऊंचा समझता है,उसे टोने टोटके करने बहुत अच्छे लगते है,अक्सर इस प्रकार के लोग अपनी संतान के भी भले नही होते है,रोजाना मरने की कहते है लेकिन कई उपाय करने के बावजूद भी नही मरते है,डाक्टरों की कोई दवाई उनके लिये बेकार ही साबित होती है। जो लोग अकाल मौत से मरते है उन्हे प्रेत योनि में जाना पडता है ऐसा गरुड-पुराण का मत है,इस प्रकार की आत्मायें जब किसी की देह में भरती है तो वह रोता है चीखता है चिल्लाता है,भागता है,कांपता है,सांस बहुत ही तीव्र गति से चलती है,किसी का भी किसी प्रकार से भी कहा नही मानता है,कटु वचनों के बोलने के कारण उसके परिवार या जान पहिचान वाले उससे डरने लगते है। चुडैल अधिकतर स्त्री जातकों को ही लगती है,नानवेज खाने की आदत लग जाती है,अधिक से अधिक सम्भोग करने की आदत पड जाती है,गर्भ को टिकने नही देती है,उसे दवाइयों या बेकार के कार्यों से गिरा देती है। कच्चे कलवे भी व्यक्तियों को परेशान करते है,अक्सर भूत प्रेत पिशाच योनि में जाने वाली आत्मायें अपना परिवार बसाने के लिये किसी जिन्दा व्यक्ति की स्त्री और और पुरुष देह को चुनती है,फ़िर उन देहों में जाकर सम्भोगात्मक तरीके से नये जीव की उत्पत्ति करती है,उस व्यक्ति से जो सन्तान पैदा होती है उसे किसी न किसी प्रकार के रोग या कारण को पैदा करने के बाद खत्म कर देती है और अपने पास आत्मा के रूप में ले जाकर पालती है,जो बच्चे अकाल मौत मरते है और उनकी मौत अचानक या बिना किसी कारण के होती है अक्सर वे ही कच्चे कलवे कहलाते है। भूत-डामर तंत्र में जो बातें लिखी गयीं है वे आज के वैज्ञानिक युग में अमाननीय है। लेकिन जब किसी व्यक्ति से इन बातों के बारे में सुना जाता है तो सुनकर यह भी मानना पडता है कि वास्तव में कुछ तो सत्यता हो सकती है,सभी बातों को झुठलाया तो नही जा सकता है

Wednesday, April 28, 2010

रुद्राक्ष


रुद्राक्ष क्या है

रुद्राक्ष के बारे में पौराणिक कथन मिलता है,एक बार स्कन्दजी ने शिवजी से पूंछा-हे! देव महान गुण सम्पन्न रुद्राक्ष का निर्माण कैसे हुआ,रुद्राक्ष के कितने मुख होते है,और उनकी धारण विधि क्या है,साथ ही उनके मंत्रों के वारे में भी ज्ञान की आकंक्षा है।
भगवान शंकर ने कहा - हे! स्कन्द प्राचीन काल में त्रिपुर नामक एक अजेय राक्षस दैत्य था,ब्रह्मा विष्णु तथा इन्द्रादि देवता उससे पराजित होकर मेरे पास आये और त्रिपुर को मारने की प्रार्थना की, तब जिसे देखने का कोई सामर्थ्य न कर सके ऐसा कालाग्नि नाम का अघोर शस्त्र मैने धारण किया। उस शस्त्र को देखने मात्र से देवताओं की आंखें एक हजार साल तक उन्मीलन करती रहीं। तेज प्रकाश की व्याकुलता से उनकी आंखों से जो आंसू गिरे,उनसे मनुष्यलोक में आरोग्यदायी रुद्राक्ष वृक्ष का निर्माण हुआ। इसकी माला पहिनने से जप और जाप्य से भी करोडों गुना फ़ायदा होता है। साथ ही हाथ कान मस्तक तथा गले में सच्चा रुद्राक्ष धारण करने से अत्यन्त दुर्लभ मृत्युंजय पद मिलता है। हे ! महाभाग,रुद्राक्ष धारण करने वाला समस्त पापों से मुक्त हो जाता है। स्कन्द ने प्रश्न किया- हे ! भगवान,रुद्राक्ष में जो एक मुख से लेकर चौदह मुख तक के प्रकार है,उनके गुणों का वर्णन क्रमश: कीजिये। भगवान शंकर ने कहा- हे ! स्कन्द इन सभी रुद्राक्षों का विवरण सुनो।

एक मुखी रुद्राक्ष

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एक मुख वाले रुद्राक्ष को सोमवार के दिन प्रात: काल यथाविधि न्यासादि करके ** ऊँ एं हं औं ऐं ऊँ ** मन्त्र का १०८ बार जाप करके धारण करना चाहिये। कभी एक मुखी रुद्राक्ष में बीच में छेद करके नही धारण करना चाहिये,अन्यथा उसकी आन्तरिक शक्तियों का विनाश हो जाता है,और वह रुद्राक्ष अच्छे फ़ल की जगह खराब फ़ल देना शुरु कर देता है। इसे स्वर्ण धातु से मडित करवाकर ही धारण करना चाहिये,तथा शराब मांस के सेवन तथा स्त्री पुरुष के साथ रति के समय पूजा स्थान में रख देना चाहिये। और शुद्ध होकर ही धारण करना चाहिये,लेकिन जब भी उतार कर धारण करे,तो उपरोक्त मंत्र का जाप जरूर करना चाहिये। होली दिवाली और दसहरा तथा ग्रहण के दिन इसे गंगाजल से या किसी साफ़ दरिया के पानी से धोकर साफ़ कर लेना चाहिये,अगर नही मिले तो पहले से एकत्रित वर्षा जल से धोना चाहिये,फ़िर मंत्र को उच्चारण के बाद धारण करना चाहिये। वैश्यागामी पुरुष या परपुरुषगामी स्त्री इस रुद्राक्ष को धारण करने के बाद कोढी हो जाता है।
एक मुखी रुद्राक्ष शिव स्वरूप हो जाता है,इसके धारण करने से ब्रह्महत्या जैसे पाप भी दूर हो सकते है,लेकिन धारण करने के बाद किसी भी प्रकार का पाप नहीं करना चाहिये,अन्यथा यह तुरत ही विपरीत फ़ल प्रदान करता है। इसके धारण करने के बाद माता पार्वती का आशीर्वाद साथ रहता है,प्राणी हमेशा लक्ष्मी से पूर्ण रहता है। लगातार उपरोक्त मंत्र को प्रतिदिन जाप करते रहने से किसी प्रकार की बाधा शरीर या निवास में प्रवेश नही कर सकती है।

अन्य प्रयोग

गाय के दूध में इस रुद्राक्ष को धोकर बीमार व्यक्ति को पिलाते रहने से और बीमार व्यक्ति के द्वार उपरोक्त मंत्र का जाप करते रहने से भयानक से भयानक बीमारियां भी दूर हो जाती है। इस रुद्राक्ष का सुबह को जगते ही दर्शन और स्पर्श करने से पूरा दिन सुखमय बीतता है,भयानक स्थान में जाते वक्त इसे धारण करने से डर नही लगता है।

दक्षिणा तथा राशियों के अनुसार फ़ल

इस रुद्राक्ष की दक्षिणा मात्र ३१००/- रुपया है,कोरियर का भेजने का खर्चा अलग से है,यह मेष और तुला राशि वालों को धन,वृष और वृश्चिक राशि वालों को मान सम्मान,मिथुन और धनु राशि वालों को समाज में जगह,कर्क और मकर राशि वालों को अचल सम्पत्ति,सिंह और कुम्भ राशि वालों को विदेश यात्रा तथा आराम वाले साधन प्रदान करवाता है।

द्विमुखी रुद्राक्ष

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दो मुख वाले रुद्राक्ष को भी सोमवार या पूर्णिमा के दिन सूर्योदय के समय गाय के दूध में धोकर और पहले से चांदी के पत्र में मढवाकर चांदी की चैन में धारण करना चाहिये,लेकिन शिवरात्रि को इसका बील पत्र और दूध से अभिषेक जरूर करना चाहिये,धारण करने के समय इस मंत्र का १०८ बार जाप करना चाहिये,और प्रतिदिन सुबह को इसके दर्शन करने चाहिये। मंत्र है ** ऊँ ह्रीं क्षौं व्रीं ऊँ ** । इस रुद्राक्ष का दूसरा नाम "देव-देव" है,यह धन धान्य से पूर्ण करने के बाद दिमाग को शांत करता है,जिनकी कुण्ड्ली में राहु केतु से कालसर्प दोष बनता है,अथवा चन्द्र-राहु की आपसी युति होती है,अथवा शनि राहु बारहवें भाव का असर देखर जेल जाने जैसी स्थितियां पैदा करते है उन्हे धारण करना चाहिये। जिनका चन्द्रमा बारहवां हो उन्हे किसी भी तरह से इस रुद्राक्ष को नही पहिनना चाहिये,अन्यथा चलता हुआ दिमाग व्यक्ति को घर से बाहर कर सकता है।

दक्षिणा तथा राशियों के अनुसार फ़ल

इस रुद्राक्ष की दक्षिणा मात्र ११००/- रुपया है,कोरियर से भेजने का खर्चा अलग है। यह रुद्राक्ष मेष राशि के लिये सुख और भवन,वृष राशि के लिये राजकीय सम्मान और औलाद का सुख,मेथुन राशि के लिये कार्य और कर्जा दुश्मनी बीमारी में राहत,कर्क राशि वालों के लिये व्यवसाय पति या पत्नी के सुख में वृद्धि,सिंह राशि वालों के लिये अजीव कारणों से धन तथा साहस की बढोत्तरी कन्या राशि वालों के लिये भाग्य और धर्म की बढोत्तरी से फ़ायदा,तुला राशि वालों के लिये कैरियर और सरकारी कारणों में फ़ायदा,वृश्चिक राशि वालों के लिये अचल सम्पत्ति में बढोत्तरी और मित्रों से फ़ायदा धनु राशि वालों के लिये विदेश जाने तथा उच्च शिक्षा के लिये योग्यता मकर रासि वालों के लिये व्यक्तियों के प्रति विश्वास राजनैतिक फ़ायदा तथा शरीर में साहस और बल की वृद्धि कुम्भ राशि वालों के लिये धन का फ़ायदा,मीन राशि वालों के लिये पराक्रम में फ़ायदा सिनेमा नाटक मीडिया में प्रवेश दिलवाने में सहायता करता है।

त्रिमुखी रुद्राक्ष

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तीन मुख वाले रुद्राक्ष को भी सोमवार के दिन यथाविधि ** ऊँ रं ह्रैं ह्रीं ह्रुं ऊँ ** मन्त्र का जाप १०८ बार जाप करने के बाद पहिनना चाहिये। इस रुद्राक्ष के पहिनने के बाद अपनी स्त्री या अपने पति को कभी दुर्वचन नहीं कहने चाहिये। इसे पहिनने के बाद भूख बहुत लगती है,मीठा खाने का बहुत मन करता है,मैथुन की बहुत इच्छा होती है,इन सब पर कन्ट्रोल करके चलना चाहिये। अग्नि रूपी यह रुद्राक्ष इन्जीनियर वाले कामों के अन्दर व्याप्त पुरुषों और महिलाओं को धारण करने से आशातीत सफ़लता मिलती है। अगर किसी प्रकार से भी इसका गलत उपयोग जैसे कमान्धता और ऐशो आराम में मन लगाकर निरीह लोगों को सताया गया तो यह रुद्राक्ष लकवा जैसी बीमारियां भी देता है। अपने पराक्रम को बढाने के लिये इस त्रिमुखी रुद्राक्ष का पहिनना जरूरी होता है।

दक्षिणा तथा विभिन्न राशियों में त्रिमुखी रुद्राक्ष की महत्ता

इस रुद्राक्ष की दक्षिणा २७००/- रुपया है,तथा कोरियर से भेजने के लिये खर्चा अलग से है। मेष राशि वालों के लिये यह खूबशूरती में बढोत्तरी करता है,वृष राशियों के लिये घर मकान और ऐशो आराम के साधन जुटाने में सहायता करता है,मिथुन राशि के लिये राजनीतिक में सफ़लता देता है,परीक्षा परिणाम के लिये फ़ायदा देता है,कर्क राशि वालों के लिये कर्जा दुश्मनी और बीमारी में राहत देता है,सिंह राशि वालों के लिये व्यवसाय और साझेदारी के कामों में सफ़लता देता है,विदेश से व्यवसाय करने और आयात निर्यात वाले काम करने में फ़ायदा देता है,कन्या राशि के लिये पारिवारिक रिस्तों के अन्दर सामजस्यता देता है,तुला राशि वालों के लिये धर्म और भाग्य वाले कामों के अन्दर मन लगाता है,तथा भाग्य को बढाकर दुर्भाग्य को दूर करता है। वृश्चिक राशि वालों के लिये कैरियर और राजनीतिक क्षेत्र में तथा पिता से सम्बन्ध बनाने में सहायता करता है। धनु राशि वालों के लिये अचल सम्पत्ति का प्रदाता और कमन्यूकेशन के कामों के अन्दर फ़ायदा देता है,मकर राशि वाले इस रुद्राक्ष से यात्रा और विदेश से फ़ायदा वाले काम तथा टूर आदि के कामों में फ़ायदा ले सकते है। कुम्भ राशि वाले अपनी सेहत और बीमारियों में फ़ायदा ले सकते है,मीन राशि वालों के लिये धन और भौतिक सम्पत्ति में फ़ायदा देने वाला यह रुद्राक्ष कामयाब है ।

चौमुखी रुद्राक्ष

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चौमुखी रुद्राक्ष को सोमवार के दिन विधि पूर्वक प्रात:काल मन्त्र "ऊँ वां क्रां त्तां ह्रां ह्रं" एक प्रहर जाप करके गले में धारण करे,यदि इच्छा हो तो पाकिट में रखे,प्रतिदिन एक माला का जाप जरूर करना चाहिये,चार मुख वाला रुद्राक्ष साक्षात ब्रह्मा का रूप होता है,इसे धारण करने वाला वेद शास्त्र ज्ञाता सबका प्रिय तथा धन सम्पन्न होता है,किसी प्रकार की कमी उसके परिवार में नही रहती है,इससे हत्या जैसे पातक परेशान नहीं करते है,ऐसा वेदों में बखान मिलता है,आंखों में तेज वाणी में मिठास शरीर से स्वस्थ तथा दूसरों को आकर्षित करने का गुण उसमे आ जाता है।

दक्षिणा तथा राशियों पर होने वाला प्रभाव

चौमुखी रुद्राक्ष की दक्षिणा मात्र २७००/- रुपया है,कोरियर से भेजने का खर्चा अलग से है। यह मेष राशि को सात्विक गुण से पूर्ण करता है,वृष राशि को राजसिक गुण देता है,मिथुन राशि को तामसिक गुण देता है,तथा कर्क राशि को सात्विक गुण देता है,इसी प्रकार क्रम से प्रत्येक राशि को यह अपना प्रभाव देता है। चूंकि यह पुरुष तत्व प्रधान रुद्राक्ष है,इसलिये महिला जातकों को धारण करने के बाद यह स्त्री गुणों से दूर करने लगता है,इस रुद्राक्ष का जो मंत्र है,उसके अन्दर अक्षर "वां" खाने पीने और मदिरा आदि तथा मैथुन की बढोत्तरी करता है,"क्रां" अक्षर खून के अन्दर तेज देता है,और शरीर को तुरत गर्म करने के लिये जाना जाता है,"त्तां" अक्षर फ़ैशन और शरीर की सजावट से सम्बन्ध रखता है,"ह्रां" अक्षर माया और धन को प्रदान करने वाला है,"ह्रं" अक्षर एकाधिपति बनाने के लिये अग्रसर करता है। लेकिन इन बीज मन्त्रों को चलते फ़िरते नहीं जपना चाहिये।

पंचमुखी रुद्राक्ष

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इस रुद्राक्ष को सोमवार के दिन प्रात:काल काले धागे के अन्दर गूंथकर यथाविधि धारण करे,और मन्त्र "ऊँ ह्रां क्रां वां ह्रां" या "ऊँ ह्रीं नम" का एक प्रहर जाप करना चाहिये,रोजाना एक माला का जाप करना जरूरी है। यह रुद्राक्ष कालाग्नि नाम से जाना जाता है,सभी रुद्राक्षों में शुभ तथा पुण्यदायी माना जाता है,इसे धारण करने से वैभव संपन्नता सुख शांति प्राप्त होती है। इसको धारण करने के बाद मांस मदिरा और अभक्ष्य पदार्थों का सेवन करने के बाद उत्पन्न विकारों का शमन होता है।

दक्षिणा तथा राशियों पर प्रभाव

इस रुद्राक्ष की दक्षिणा मात्र ५०/- रुपया है,और कोरियर से भेजने का खर्चा अलग से है। इस रुद्राक्ष को कोई भी धारण कर सकता है,बुरी आदतों वालों को जरूर इसे धारण करना चाहिये।

छ: मुखी रुद्राक्ष

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मन्त्र है "ऊँ ह्रीं श्रीं क्लीं सौं ऐं" मन्त्र का जाप सोमवार को पहिनकर करना चाहिये।
सात मुखीऊँ ह्रं क्रीं ह्रीं सौंएक प्रहर जाप
आठ मुखीऊँ ह्रां ग्रीं लं आं श्रींएक प्रहर जाप
नौ मुखीऊँ ह्रीं वं यं रं लंएक प्रहर जाप
दस मुखीऊँ श्रीं ह्ल्रीं क्लीं व्रीं ऊँसत्रह हजार जाप
११ मुखीऊँ रूं मूं औंएक प्रहर जाप
१२ मुखीऊँ ह्रीं क्षौं घृणि: श्रीं नम:एक प्रहर जाप
१३ मुखीऊँ ईं यां आप औंएक प्रहर जाप
१४ मुखीऊँ हं स्फ़्रैं ख्व्फ़्रैं हस्त्रौं हसव्फ़्रैंएक प्रहर जाप

सात मुखी

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आठ मुखी

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नौ मुखी

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Tuesday, April 27, 2010

सफ़ेद आक


सफ़ेद आक एक जंगली पौधा है,और यह बंजर और सूखे प्रदेशों में अधिक होता है,नीले और सफ़ेद रंग के आक अक्सर भारत के शुष्क प्रदेशों में अधिक मिलते है,लेकिन भारत के राजस्थान प्रान्त में सफ़ेद आक की पैदाइस अधिक होती है। यह एक तांत्रिक पौधा भी है,इसलिये इसकी मान्यता अधिक पायी जाती है। इसके पत्ते या फ़ूल को तोडने पर खूब सारा जहरीला दूध निकलता है,वह दूध अगर आंख में चला जाये तो आंख की रोशनी खत्म हो सकती है। सफ़ेद आक के फ़ूल बिलकुल सफ़ेद रंग के होते है उन पर किसी अन्य रंग को नही देखा जाता है जिस फ़ूल पर अन्य रंग होते है वह सफ़ेद आक नही होता है। यह पौधा भगवान शिवजी पर चढाये जाने वाले फ़ूलों को देता है,इसलिये भी इस पौधे को महत्ता दी जाती है.अक्सर लोग अपने दरवाजे पर जिनके घर के दरवाजे नैऋत्य मुखी होते है,इस पौधे को लगाते है तो उनके घर के अन्दर के वास्तु दोष समाप्त हो जाते है,घर के अन्दर होने वाले भुतहा उपद्रव शान्त हो जाते है,घर के सदस्यों के अन्दर चलने वाली बुराइयां समाप्त हो जाती है ,और जिन घरों मांस मदिरा का अधिक उपयोग होता है उनमें कम हो जाता है या पूरी तरह से समाप्त हो जाता है। इस पौधे को राजार्क भी कहते है,इस पौधे की जड में गणेशजी की प्रतिमा अपने आप बन जाती है,पौधा लगाने के सातवीं साल तक वह प्रतिमा बनजाती है,और तभी तक यह पौधा घर के बाहर तक रहता भी है,अगर सातवीं साल में इसकी केयर नही की जाती है तो वह पौधा सूख कर खत्म हो जाता है और जड में बनी गणेशजी की प्रतिमा भी मिट्टी हो जाती है। इस पौधे के रहने वाले स्थान पर धन की कमी नही रहती है ऐसा लोगों का विश्वास माना जाता है। जो लोग तांत्रिक कार्य करते है वे इस पौधे की तलाश में हमेशा रहते है,पूर्णिमा तिथि को सोमवार के दिन इस पौधे से फ़ूल लेकर भगवान शिव जी पर अर्पण करने पर इच्छित वस्तु की प्राप्ति हो जाती है ऐसी लोगों की मान्यता है,तरुण रसायन नामक बटी को इसी आक के पेड की जड से बनाया जाता है,जिसे प्रयोग करने से शरीर के सभी प्रकार के जहरीले दुर्गुण दूर हो जाते है। इसकी जड को सोमवार को पुष्य नक्षत्र में धारण करने से अला बला दूर रहती है,इसे घिस कर तिलक लगाकर भगवान भोले नाथ की पूजा करने पर उनकी कृपा प्राप्त होती है,इच्छा पूर्ति के लिये इस की जड को विभिन्न दिशाओं से खोद कर उनकी विभिन्न प्रकार से पूजा की जाती है। दुर्भाग्य के लिये नाभि पर कमल का पत्ता और बायीं भुजा पर सफ़ेद आक का पत्ता बांधने पर सौभाग्य की पूर्ति होने लगती है,किसी भी प्रकार की व्याधि और अरिष्ट की आशंका के समय इस पेड की जड से बने गणपति की आराधना करना चाहिये

राधा तू बडभागिनी

राघाजी भगवान श्री कृष्ण की परम प्रिया हैं तथा उनकी अभिन्न मूर्ति भी। भाद्रपद मास की शुक्ल पक्ष की अष्टमी को बरसाना के श्री वृषभानु जी के यहां राघा जी का जन्म हुआ था। श्रीमद्देवी भागवत में कहा गया है कि श्री राघा जी की पूजा नहीं की जाए तो मनुष्य श्री कृष्ण की पूजा का अघिकार भी नहीं रखता। राघा जी भगवान श्रीकृष्ण के प्राणों की अघिष्ठात्री देवी हैं, अत: भगवान इनके अघीन रहते हैं। राघाजी का एक नाम कृष्णवल्लभा भी है क्योंकि वे श्रीकृष्ण को आनन्द प्रदान करने वाली हैं।
माता यशोदा ने एक बार राघाजी से उनके नाम की व्युत्पत्ति के विषय में पूछा। राघाजी ने उन्हें बताया कि च्राज् शब्द तो महाविष्णु हैं और च्घाज् विश्व के प्राणियों और लोकों में मातृवाचक घाय हैं। अत: पूर्वकाल में श्री हरि ने उनका नाम राघा रखा। भगवान श्रीकृष्ण दो रूपों में प्रकट हैं—द्विभुज और चतुर्भुज। चतुर्भुज रूप में वे बैकुंठ में देवी लक्ष्मी, सरस्वती, गंगा और तुलसी के साथ वास करते हैं परन्तु द्विभुज रूप में वे गौलोक घाम में राघाजी के साथ वास करते हैं। राधा-कृष्ण का प्रेम इतना गहरा था कि एक को कष्ट होता तो उसकी पीडा दूसरे को अनुभव होती। सूर्योपराग के समय श्रीकृष्ण, रूक्मिणी आदि रानियां वृन्दावनवासी आदि सभी कुरूक्षेत्र में उपस्थित हुए। रूक्मिणी जी ने राधा जी का स्वागत सत्कार किया। जब रूक्मिणी जी श्रीकृष्ण के पैर दबा रही थीं तो उन्होंने देखा कि श्रीकृष्ण के पैरों में छाले हैं। बहुत अनुनय-विनय के बाद श्रीकृष्ण ने बताया कि उनके चरण-कमल राधाजी के ह्वदय में विराजते हैं। रूक्मिणी जी ने राधा जी को पीने के लिए अधिक गर्म दूध दे दिया था जिसके कारण श्रीकृष्ण के पैरों में फफोले पड गए।
राधा जी श्रीकृष्ण का अभिन्न भाग हैं। इस तथ्य को इस कथा से समझा जा सकता है कि वंदावन में श्रीकृष्ण को जब दिव्य आनंद की अनुभूति हुई तब वह दिव्यानंद ही साकार होकर बालिका के रूप में प्रकट हुआ और श्रीकृष्ण की यह प्राणशक्ति ही राधा जी हैं।
श्री राधा जन्माष्टमी के दिन व्रत रखकर मन्दिर में यथाविधि राधा जी की पूजा करनी चाहिए तथा श्री राधा मंत्र का जाप करना चाहिए। राधा जी लक्ष्मी का ही स्वरूप हैं अत: इनकी पूजा से धन-धान्य व वैभव प्राप्त होता है।
राधा जी का नाम कृष्ण से भी पहले लिया जाता है। राधा नाम के जाप से श्रीकृष्ण प्रसन्न होते हैं और भक्तों पर दया करते हैं। राधाजी का श्रीकृष्ण के लिए प्रेम नि:स्वार्थ था तथा उसके लिए वे किसी भी तरह का त्याग करने को तैयार थीं। एक बार श्रीकृष्ण ने बीमार होने का स्वांग रचा। सभी वैद्य एवं हकीम उनके उपचार में लगे रहे परन्तु श्रीकृष्ण की बीमारी ठीक नहीं हुई। वैद्यों के द्वारा पूछे जाने पर श्रीकृष्ण ने उत्तर दिया कि मेरे परम प्रिय की चरण धूलि ही मेरी बीमारी को ठीक कर सकती है। रूक्मणि आदि रानियों ने अपने प्रिय को चरण धूलि देकर पाप का भागी बनने से इनकार कर दिया अंतत: राधा जी को यह बात कही गई तो उन्होंने यह कहकर अपनी चरण धूलि दी कि भले ही मुझे 100 नरकों का पाप भोगना पडे तो भी मैं अपने प्रिय के स्वास्थ्य लाभ के लिए चरण धूलि अवश्य दूंगी।
कृष्ण जी का राधा से इतना प्रेम था कि कमल के फूल में राधा जी की छवि की कल्पना मात्र से वो मूर्चिछत हो गये तभी तो विद्ववत जनों ने कहा
राधा तू बडभागिनी, कौन पुण्य तुम कीन।
तीन लोक तारन तरन सो तोरे आधीन।।

राधा-कृष्ण विवाह

हम में से बहुत से लोग यही जानते हैं कि राधाजी श्रीकृष्ण की प्रेयसी थीं परन्तु इनका विवाह नहीं हुआ था। श्रीकृष्ण के गुरू गर्गाचार्य जी द्वारा रचित "गर्ग संहिता" में यह वर्णन है कि राधा-कृष्ण का विवाह हुआ था। एक बार नन्द बाबा कृष्ण जी को गोद में लिए हुए गाएं चरा रहे थे। गाएं चराते-चराते वे वन में काफी आगे निकल आए। अचानक बादल गरजने लगे और आंधी चलने लगी। नन्द बाबा ने देखा कि सुन्दर वस्त्र आभूषणों से सजी राधा जी प्रकट हुई। नन्द बाबा ने राधा जी को प्रणाम किया और कहा कि वे जानते हैं कि उनकी गोद मे साक्षात श्रीहरि हैं और उन्हें गर्ग जी ने यह रहस्य बता दिया था। भगवान कृष्ण को राधाजी को सौंप कर नन्द बाबा चले गए। तब भगवान कृष्ण युवा रूप में आ गए। वहां एक विवाह मण्डप बना और विवाह की सारी सामग्री सुसज्जित रूप में वहां थी। भगवान कृष्ण राधाजी के साथ उस मण्डप में सुंदर सिंहासन पर विराजमान हुए। तभी वहां ब्रम्हा जी प्रकट हुए और भगवान कृष्ण का गुणगान करने के बाद कहा कि वे ही उन दोनों का पाणिग्रहण संस्कार संपन्न कराएंगे। ब्रम्हा जी ने वेद मंत्रों के उच्चारण के साथ विवाह कराया और दक्षिणा में भगवान से उनके चरणों की भंक्ति मांगी। विवाह संपन्न कराने के बाद ब्रम्हा जी लौट गए। नवविवाहित युगल ने हंसते खेलते कुछ समय यमुना के तट पर बिताया। अचानक भगवान कृष्ण फिर से शिशु रूप में आ गए। राधाजी का मन तो नहीं भरा था पर वे जानती थीं कि श्री हरि भगवान की लीलाएं अद्भुत हैं। वे शिशु रूपधारी श्री कृष्ण को लेकर माता यशोदा के पास गई और कहा कि रास्ते में नन्द बाबा ने उन्हें बालक कृष्ण को उन्हें देने को कहा था। राधा जी उम्र में श्रीकृष्ण से बडी थीं। यदि राधा-कृष्ण की मिलन स्थली की भौगोलिक पृष्ठभूमि देखें तो नन्द गांव से बरसाना 7 किमी है तथा वह वन जहाँ ये गायें चराने जाते थे नंद गांव और बरसाना के ठीक मघ्य में है। भारतीय वाङग्मय के अघ्ययन से प्रकट होता है कि राधा प्रेम का प्रतीक थीं और कृष्ण और राधा के बीच दैहिक संबंधों की कोई भी अवधारणा शास्त्रों में नहीं है। इसलिए इस प्रेम कोAristocratic Love  की श्रेणी में रखते हैं। इसलिए कृष्ण के साथ सदा राधाजी को ही प्रतिष्ठा मिली

गणपति पूजन में तुलसी निषिद्ध क्यों

मनोहारिणी तुलसी समस्त पौधों में श्रेष्ठ मानी जाती हैं। इन्हें समस्त पूजन कर्मो में प्रमुखता दी जाती है साथ ही मंदिरों में चरणामृत में भी तुलसी का प्रयोग होता है तथा ऎसी कामना होती है कि यह अकाल मृत्यु को हरने वाली तथा सर्व व्याधियों का नाश करने वाली हैं परन्तु यही पूज्य तुलसी देवों को भगवान श्री गणेश की पूजा में निषिद्ध मानी गई हैं। इनसे सम्बद्ध ब्रrाकल्प में एक कथा मिलती है जो कि इसके कारण को व्यक्त करती है।
कथा — एक समय नवयौवना, सम्पन्ना तुलसी देवी नारायण परायण होकर तपस्या के निमित्त से तीर्थो में भ्रमण करती हुई गंगा तट पर पहुँचीं। वहाँ पर उन्होंने गणेश को देखा, जो कि तरूण युवा लग रहे थे। अत्यन्त सुन्दर, शुद्ध और पीताम्बर धारण किए हुए थे, आभूषणों से विभूषित थे, सुन्दरता जिनके मन का अपहरण नहीं कर सकती, जो कामनारहित, जितेन्द्रियों में सर्वश्रेष्ठ, योगियों के योगी तथा जो श्रीकृष्ण की आराधना में घ्यानरत थे। उन्हें देखते ही तुलसी का मन उनकी ओर आकर्षित हो गया। तब तुलसी उनका उपहास उडाने लगीं। घ्यानभंग होने पर गणेश जी ने उनसे उनका परिचय पूछा और उनके वहां आगमन का कारण जानना चाहा। गणेश जी ने कहा—माता! तपस्वियों का घ्यान भंग करना सदा पापजनक और अमंगलकारी होता है। "" शुभे! भगवान श्रीकृष्ण आपका कल्याण करें, मेरे घ्यान भंग से उत्पन्न दोष आपके लिए अमंगलकारक न हो। ""
इस पर तुलसी ने कहा—प्रभो! मैं धर्मात्मज की कन्या हूं और तपस्या में संलग्न हूं। मेरी यह तपस्या पति प्राप्ति के लिए है। अत: आप मुझसे विवाह कर लीजिए। तुलसी की यह बात सुनकर बुद्धि श्रेष्ठ गणेश जी ने उत्तर दिया— " हे माता! विवाह करना बडा भयंकर होता है, मैं ब्रम्हचारी हूं। विवाह तपस्या के लिए नाशक, मोक्षद्वार के रास्ता बंद करने वाला, भव बंधन की रस्सी, संशयों का उद्गम स्थान है। अत: आप मेरी ओर से अपना घ्यान हटा लें और किसी अन्य को पति के रूप में तलाश करें। तब कुपित होकर तुलसी ने भगवान गणेश को शाप देते हुए कहा—"कि आपका विवाह अवश्य होगा।" यह सुनकर शिव पुत्र गणेश ने भी तुलसी को शाप दिया—" देवी, तुम भी निश्चित रूप से असुरों द्वारा ग्रस्त होकर वृक्ष बन जाओगी। "
इस शाप को सुनकर तुलसी ने व्यथित होकर भगवान श्री गणेश की वंदना की। तब प्रसन्न होकर गणेश जी ने तुलसी से कहा—हे मनोरमे! तुम पौधों की सारभूता बनोगी और समयांतर से भगवान नारायण की प्रिया बनोगी। सभी देवता आपसे स्नेह रखेंगे परन्तु श्रीकृष्ण के लिए आप विशेष प्रिय रहेंगी। आपकी पूजा मनुष्यों के लिए मुक्तिदायिनी होगी तथा मेरे पूजन में आप सदैव त्याज्य रहेंगी। ऎसा कहकर गणेश जी पुन: तप करने चले गए। इधर तुलसी देवी दु:खित ह्वदय से पुष्कर में जा पहुंची और निराहार रहकर तपस्या में संलग्न हो गई। तत्पश्चात गणेश के शाप से वह चिरकाल तक शंखचूड की प्रिय पत्नी बनी रहीं। जब शंखचूड शंकर जी के त्रिशूल से मृत्यु को प्राप्त हुआ तो नारायण प्रिया तुलसी का वृक्ष रूप में प्रादुर्भाव हुआ

काले घोडे की नाल





  शनि को लोहा प्रिय है, किन्तु शनिवार को लोहा घर में नहीं लाया जाता। जिस धातु को शनि सर्वाधिक पसंद करते हैं, उसी धातु का घर में शनिवार को आना पीडादायक और कलहकारक सिद्घ होता है। ऎसा तभी होता है जबकि निजी उपयोग के लिए शनिवार को लोहा (किसी भी रूप में) खरीदा जाये या घर में लाया जाये, लेकिन पूजा करने हेतु अथवा विधिपूर्वक धारण करने हेतु लोहा प्राप्त किया जाये तो शनि प्रसन्न होते हैं। शनिवार को लोहे के दान से भी शनि की प्रसन्नता होती है।
शनिदेव के अशुभ प्रभावों की शांति हेतु लोहा धारण किया जाता है किन्तु यह लौह मुद्रिका सामान्य लोहे की नहीं बनाई जाती।
काले घोडे की नाल (घोडे के पैरों खुरों में लोहे की अर्धचन्द्राकार वस्तु पहनाई जाती है, जो घोडे के खुरों को मजबूत बनाये रखती है, घिसने नहीं देती, वही नाल होती है), जो नाल स्वत: ही घोडे के पैरों से निकल गयी हो, उस नाल को शनिवार को सिद्घ योग ( शनिवार और पुष्य, रोहिणी, श्रवण नक्षत्र हो अथवा चतुर्थी, नवमी या चतुर्दशी तिथि हो) में प्राप्त की जाती है और फिर इसका उपयोग विविध प्रकार से किया जाता है।
व्यापार वृद्घि : व्यापार वृद्घि के लिए घोडे की नाल को शनिवार को प्राप्त कर, उसका शुद्घिकरण करके, धूप-दीप दिखाकर व थोडा सिंदूर लगाकर, व्यापारिक प्रतिष्ठान में ऎसी जगह लगाया जाता है, जहाँ से प्रत्येक ग्राहक को वह स्पष्ट दिखाई देेवे। नाल को इस प्रकार लगाया जाता है कि उसका खुला भाग ऊपर की ओर रहे। प्रतिदिन इस नाल पर धूप का आघ्राप किया जाता है। आगे जब कभी शनिवार को सिद्घि योग पडे तो उस दिन इस नाल पर तिल्ली के तेल में सिंदूर मिलाकर लेप किया जाता है। स्वास्थ्य वृद्घि व अनिष्ट शाति : घोडे की नाल प्राप्त करके, उस नाल को कटवाकर, उसकी गोल छल्लेनुमा अंगूठी बना ली जाती है। इस अंगूठी को गंगाजल और गोमूत्र से धोकर, थोडा सिंदूर लगाकर, शनिदेव के मंत्र का, कम से कम 108 बार जाप करके, धूप-दीप दिखाकर शनिवार को ही सीधे हाथ की मघ्यमा (बीच की बडी) अंगुली में पहन लिया जाता है। इस अंगूठी के धारण करने से शनिदेव जनित अनिष्ट कम हो जाते हैं और स्वास्थ्य में वृद्घि होती है, आय में वृद्घि होती है, मानसिक उद्वेग शांत हो जाता है।

शनि और रावण

आसुरी संस्कृति में महान् व्यक्तित्व उत्पन्न हुए, जिनका बल-पौरूष और विद्वत्ता अतुलनीय रही थी। शुम्भ-निशुम्भ, मधु-कैटभ, हिरण्यकश्यप, बलि या रावण, सभी अतुल पराक्रमी और महा विद्वान थे। यह अलग बात है कि उन्होंने अपनी शक्तियों का प्रयोग असामाजिक कृत्य और भोगों की प्राप्ति हेतु किया।
इनमें रावण का नाम असुर कुल के विद्वानों में अग्रणी रहा है। रावण चूंकि बाम्हण वंश में उत्पन्न हुए। उनके पिता ऋषि विश्रवा और दादा पुलस्त्य ऋषि महा तपस्वी और धर्मज्ञ थे किन्तु माता असुर कुल की होने से इनमें आसुरी संस्कार आ गए थे। ऋषि विश्रवा के दो पत्नियाँ थीं। एक का नाम
इडविडा था जो बाम्हण कुल से थीं और जिनके कुबेर और विभीषण, ये दो संतानें उत्पन्न हुई। दूसरी पत्नी का नाम कैकसी था,  जो असुर कुल से थीं और इनके रावण, कुंभकर्ण और सूर्पणखा नामक संतानें उत्पन्न हुई।
कुबेर इन सब में सबसे बडे थे और रावण विभीषणादि जब बाल्यावस्था में थे, तभी कुबेर धनाघ्यक्ष की पदवी प्राप्त कर चुके थे। कुबेर की पद-प्रतिष्ठा से रावण की माँ ईष्र्या करती थीं और रावण को कोसा करती थीं। रावण के मन को एक दिन ठेस लगी और अपने भाइयों ( कुंभकर्ण-विभीषण ) को साथ में लेकर तपस्या करने चला गया। रावण का भातृ प्रेम अप्रतिम था। इनकी तपस्या सफल हुई और तीनों भाइयों ने ब्रम्हाजी से स्वेच्छापूर्ण वरदान प्राप्त किया।
रावण इतना अधिक बलशाली था कि सभी देवता और ग्रह-नक्षत्र उससे घबराया करते थे। ऎसा पढने को मिलता है कि रावण ने लंका में दसों दिक्पालों को पहरे पर नियुक्त किया हुआ था। रावण चूंकि बाम्हण कुल में जन्मा था सो पौरोहित्य कर्म में पूर्ण पारंगत था। शास्त्रों में वर्णन मिलता है कि शिवजी ने लंका का निर्माण करवाया और रावण ने उसकी वास्तु शांति करवाई, नगर-प्रवेश करवाया और दक्षिणा में लंका को ही मांग लिया था तथा लंका विजय के प्रसंग में सेतुबन्ध रामेश्वर की स्थापना, जब श्रीराम कर रहे थे, तब भी मूर्ति की प्राण-प्रतिष्ठा आदि का पौरोहित्य कार्य रावण ने ही सम्पन्न करवाया।
रावण की पत्नी मंदोदरी जब माँ बनने वाली थी (मेघनाथ के जन्म के समय) तब रावण ने समस्त ग्रह मण्डल को एक निश्चित स्थिति में रहने के लिए सावधान कर दिया। जिससे उत्पन्न होने वाला पुत्र अत्यंत तेजस्वी, शौर्य और पराक्रम से युक्त हो। यहाँ रावण का प्रकाण्ड ज्योतिष ज्ञान परिलक्षित होता है।
उसने ऎसा समय (मुहूर्त) साध लिया था, जिस समय पर किसी का जन्म होगा तो वह अजेय और अत्यंत दीर्घायु से सम्पन्न होगा लेकिन जब मेघनाथ का जन्म हुआ, ठीक उसी समय शनि ने अपनी स्थिति में परिवर्तन कर लिया, जिस स्थिति में शनि के होने पर रावण अपने पुत्र की दीर्घायु समझ रहा था, स्थिति परिवर्तन से वह पुत्र अब अल्पायु हो गया। रावण अत्यंत क्रोधित हो गया। उसने क्रोध में आकर शनि के पैरों पर गदा का प्रहार कर दिया। जिससे शनि के पैर में चोट लग गयी और वे पैर से कुछ लाचार हो गये, अर्थात् लँगडे हो गये।
शनि देव ही आयु के कारक हैं, आयु वृद्घि करने वाले हैं, आयुष योग में शनि का स्थान महत्वपूर्ण है किन्तु शुभ स्थिति में होने पर शनि आयु वृद्घि करते हैं तो अशुभ स्थिति में होने पर आयु का हरण कर लेते हैं। मेघनाथ के साथ भी ऎसा ही हुआ। मेघनाथ की पत्नी शेषनाग की पुत्री थी और महासती थी। मेघनाथ भी परम तेजस्वी और उपासना बल से परिपूर्ण था। इन्द्र को भी युद्घ में जीत लेने से उसका नाम च्च्इन्द्रजीतज्ज् पड गया था लेकिन दुर्भाग्यवश लक्ष्मण जी के हाथों उसकी मृत्यु हो गई। इस प्रसंग में शनिदेव आयु के कारक और नाशक होते हैं, यह सिद्घ होता है।

शनि की साढेसाती के अशुभ फलों के उपाय

1. राजा दशरथ विरचित शनि स्तोत्र के सवा लक्ष जप।
2. शनि मंदिर या चित्र पूजन कर प्रतिदिन इस मंत्र का पाठ करें:-
नमस्ते कोण संस्थाय, पिंगलाय नमोस्तुते।
नमस्ते वभु्ररूपाय, कृष्णाय च नमोस्तुते ।।
नमस्ते रौद्रदेहाय, नमस्ते चांतकाय च।
नमस्ते यमसंज्ञाय, नमस्ते सौरये विभौ।।
नमस्ते मंदसंज्ञाय, शनैश्चर नमोस्तुते।
प्रसादं कुरू में देवेश, दीनस्य प्रणतस्य च।।

3. घर में पारद और स्फटिक शिवलिंग (अन्य नहीं) एक चौकी पर, शुचि बर्तन में स्थापित कर, विधानपूर्वक पूजा अर्चना कर, रूद्राक्ष की माला से महामृत्युंजय मंत्र का जप करना चाहिए।
4. सुंदरकाण्ड का पाठ एवं हनुमान उपासना, संकटमोचन का पाठ करें।
5. हनुमान चालीसा, शनि चालीसा और शनैश्चर देव के मंत्रों का पाठ करें। ऊँ शं शनिश्चराय नम:।।
6. शनि जयंती पर, शनि मंदिर जाकर, शनिदेव का अभिषेक कर दर्शन करें।
7. ऊँ प्रां प्रीं प्रौं स: शनिश्चराय नम: के 23,000 जप करें फिर 27 दिन तक शनि स्तोत्र के चार पाठ रोज करें।
अन्य उपाय
1. शनिवार को सायंकाल पीपल के पेड के नीचे मीठे तेल का दीपक जलाएं।
2. घर के मुख्य द्वार पर, काले घोडे की नाल, शनिवार के दिन लगावें।
3. काले तिल, ऊनी वस्त्र, कंबल, चमडे के जूते, तिल का तेल, उडद, लोहा, काली गाय, भैंस, कस्तूरी, स्वर्ण, तांबा आदि का दान करें।
4. शनिदेव के मंदिर जाकर, उन्हें काले वस्त्रों से सुसज्जित कराकर यथाविध काले गुलाब जामुन का प्रसाद चढाएं।
5. घोडे की नाल अथवा नाव की कील का छल्ला बनवाकर मघ्यमा अंगुली में पहनें।
6. अपने घर के मंदिर में एक डिबिया में सवा तीन रत्ती का नीलम सोमवार को रख दें और हाथ में 12 रूपये लेकर प्रार्थना करें शनिदेव ये आपके नाम के हैं फिर शनिवार को इन रूपयों में से 10 रूपये के सप्तधान्य (सतनाज) खरीदकर शेष 2 रूपये सहित झाडियों या चींटी के बिल पर बिखेर दें और शनिदेव से कष्ट निवारण की प्रार्थना करें।
7. कडवे तेल में परछाई देखकर, उसे अपने ऊपर सात बार उसारकर दान करें, पहना हुआ वस्त्र भी दान दे दें, पैसा या आभूषण आदि नहीं।
8. शनि विग्रह के चरणों का दर्शन करें, मुख के दर्शन से बचें।
9. शनिव्रत : श्रावण मास के शुक्ल पक्ष से, शनिव्रत आरंभ करें, 33 व्रत करने चाहिएँ, तत्पश्चात् उद्यापन करके, दान करें।

शनिवार को पीपल पर तेल चढाना

शनिवार को पीपल पर जल व तेल चढाना, दीप जलाना, पूजा करना या परिक्रमा लगाना अति शुभ होता है। धर्मशास्त्रों में वर्णन है कि पीपल पूजा केवल शनिवार को ही करनी चाहिए।
पुराणों में आई कथाओं के अनुसार ऎसा माना जाता है कि समुद्र मंथन के समय लक्ष्मीजी से पूर्व उनकी बडी बहन, अलक्ष्मी (ज्येष्ठा या दरिद्रा) उत्पन्न हुई, तत्पश्चात् लक्ष्मीजी। लक्ष्मीजी ने श्रीविष्णु का वरण कर लिया। इससे ज्येष्ठा नाराज हो गई। तब श्रीविष्णु ने उन अलक्ष्मी को अपने प्रिय वृक्ष और वास स्थान पीपल के वृक्ष में रहने का ओदश दिया और कहा कि यहाँ तुम आराधना करो। मैं समय-समय पर तुमसे मिलने आता रहूँगा एवं लक्ष्मीजी ने भी कहा कि मैं प्रत्येक शनिवार तुमसे मिलने पीपल वृक्ष पर आया करूँगी।
शनिवार को श्रीविष्णु और लक्ष्मीजी पीपल वृक्ष के तने में निवास करते हैं। इसलिए शनिवार को पीपल वृक्ष की पूजा, दीपदान, जल व तेल चढाने और परिक्रमा लगाने से पुण्य की प्राप्त होती है और लक्ष्मी नारायण भगवान व शनिदेव की प्रसन्नता होती है जिससे कष्ट कम होते हैं और धन-धान्य की वृद्धि होती है।

शनि-शिग्नापुर
महाराष्ट्र में शिरडी के पास शिग्नापुर में शनिदेव का प्रसिद्ध मंदिर है। कहते हैं- बहुत पहले एक काली शिला बहती हुई इस गाँव की नदी में आ गई। खेलते हुए बच्चों ने जब इसे लकडी के टुकडे से खींचना चाहा तो शिला में से खून बहने लगा। बच्चों ने गाँव वालों को बुलाया। सभी ने शिला को उठाने का प्रयास किया परंतु सफल नहीं हो सके। रात को एक व्यक्ति को स्वप्न में किसी दिव्य आवाज ने कहा कि जब कोई मामा-भांजा इस शिला को उठाएंगे तो ही सफल होंगे। गाँव वालों ने ऎसा ही किया और एक चबूतरे पर शिला की स्थापना की। शनिदेव की कृपा से आज तक कोई भी इस गाँव में कोई भी ताला नहीं लगाता। आज तक यह शिला खुले मे उस चबूतरे पर ही है और इसके ऊपर मंदिर बनाने के सारे प्रयास विफल रहे हैं।

पद्मालक्ष्मी

लक्ष्मी का एक नाम पद्मा भी है। श्री सूक्त में माता लक्ष्मी के लिए पद्मस्थिता पद्मवर्णा पद्मिनी, पद्मालिनी पुण्करणीं, पद्मानना मद्मोरू, पद्माक्षी, पद्मसम्भवा, सरसिजनिलया, सरोजहस्तां, पद्मविपद्मपत्रा, पद्मप्रिया, पदमदलायताक्षी आदि पदों का प्रयोग हुआ है (परि. सूक्त 4 26) इससे पता चलता है कि लक्ष्मी देवी का पद्म (कमल) से बहुत घनिष्ठ सम्बन्ध है। ये सुगन्धित कमल की माला पहनती है उसी को हाथ में रखती हैं और इसी पर निवास करना भी पसंद करती है। इनका वर्ण भी पद्म का सा है। क्योंकि ये स्वयं पद्म से उत्पन्न हुई है। पद्म की पंखुडी की भांति इनकी बडी-बडी लुभावनी आंखे है। हाथ, चरण, उरू आदि सब अवयव पद्म की भांति है। अत: इनका पद्मा नाम अन्वर्थक हैं।
इनका प्राकट्य समुन्द्र मंथन के अवसर पर हुआ था (महा0 आदि 18.34) विष्णु भगवान में इनकी परा अनुरक्ति थी। अत: इन्होनें पति के रूप में उन्हें ही वरण किया। वरण के अवसर पर जो माला इन्होनें उन्हें पहनायी थी वह पद्मों की ही थी। लक्ष्मी के अनेक रूप है। उनमें पद्मा विष्णु की अनुरागिनी रूपा है। गोपियों ने विष्णु के प्रति पद्मा के प्रेम की इस एकतानता की भूरि-भूरि प्रशंसा की है। पद्मा के अतिरक्त अन्य रूपों में ये ऎश्वर्य प्रदान करती हें, सम्पति का अम्बार लगा देती है और सर्वत्र शोभा का आधार करती है।
माता लक्ष्मी ने अपने बहुत से अवतारों में अपना नाम पद्मा या एतदर्धक शब्द ही रखा है। आकाशराज की अयोनिजा कन्या के रूप में जब ये अवतीर्ण हुई तब इनका नाम पद्मावती, पद्मिनी और पद्मालया रखा गया (स्कन्द पु0 वै0 स्व0 भूमिवाराह खण्ड) भगवान जब कल्किका अवतार ग्रहण करते है, तब लक्ष्मी का नाम पkा ही होता है। कल्किपुराण में भी इनकी पद्मप्रियता को द्योतित करने के लिये पद्मघटित बहुत से पद दिये गये हैं।
माता पद्मा के कृपाकटाक्ष -पात मात्र से समस्त अनर्थौ की निवृति होकर सब सुख -सम्पत्ति प्राप्त हो जाती है। पुराणों में वर्णन आता है कि एक बार दुर्वासा के शाप से देवता श्रीहीन हो गये। ये व्याकुली होकर इधर-उधर भागने लगे। अमरावती पर दैत्यों का अधिकार हो गया। घबराकर ब्रम्हा आदि देवता विष्णु की शरण में गये। विष्णु की सन्मति से समुद्र का मंथन हुआ, जिससे माता पद्मा का आर्विभाव हुआ । देवता माता पद्मा के चरणों पर लोट गये। माता पद्मा ने देवताओं के भय को दूर करने के लिए उनके भवनों पर दृष्टि डाल दी । बस इतने से अमरावती दैत्यों से खाली होकर सज-धज गयी। देवताओं को अपने प्रासाद पहले से भी अधिक मनोरम दिख पडें। उन्हें पता ही नहीं चला कि दो क्षण पूर्व ही वे कितने विपन्न और उद्विग थे। उस समय देवराज इन्द्र ने जो स्तुति की थी उसमें भी उन्होनें पद्मबहुल पदों का विन्यास किया-
पद्मपत्रेक्षणायैं च पद्मास्यायै नमो नम:।
पद्मासनायै पद्मिन्यै वैष्णव्यै च नमो नम:||

माता पद्मा के आवाहन में जो श्लोक पढ़ा जाता है, उससे भी पद्मा नाम की अन्वर्थता प्रकट होती है। उसमें बताया गया है कि पद्मा का सुख कमल की भांति है। वे कमल की मालाओं पर बैठती है और कमलों में ही रहती है-
पद्मिनी पद्मवदना पद्ममालोपरिस्थिताम्।
जगत्प्रियां पद्मवासां पद्मामावाहयाम्यहम् ||

आवाहन का एक अन्य मंत्र इस प्रकार भी मिलता हे-
सुवणाभां पद्महस्तां विष्णोर्वक्ष: स्थलस्थिताम्।
त्रैलोक्यपूजितां देवी पद्मामावाहयाम्यहम् ||

इससे ध्वनित होता है कि पद्मा रूप से ये निरन्तर श्री विष्णु के वक्ष-स्थल पर ही निवास किया करती है। ऎश्वर्य लक्ष्मी या धन लक्ष्मी की भांति कहीं अन्यत्रा नहीं जाती है।

सात पुरियाँ

शास्त्रों में मुक्ति के पाँच प्रकार बताए हैं- प्रथम ब्रम्ह ज्ञान, द्वितीय भक्ति द्वारा भगवत्कृपा की प्राप्ति, तृतीय पुत्र-पौत्रादि, गौत्रजों, कुटुम्बियों तथा अन्य व्यक्तियों द्वारा गया आदि तीर्थो में सम्पादित श्राद्ध कर्म, चतुर्थ धर्म युद्ध तथा गौर रक्षा आदि में मृत्यु तथा पंचम कुरूक्षेत्र आदि प्रधान तीर्थो और सात प्रधान मोक्षदायिनी पुरियों में निवासपूर्वक शरीर त्याग। सभी तीर्थ फल देने वाले एवं पुण्य प्रदान करने वाले होते हैं। अपनी अद्भुत विशेषताओं के कारण ये पुरियां अत्यंत ही प्रसिद्ध हैं|| "अयोध्या मथुरा माया काशी कांची ह्यवन्तिका। पुरी द्वारावती श्रेया: सप्तैता मोक्षदायका:||"
अर्थात् अयोध्या, मथुरा, मायावती (हरिद्वार), काशी (वाराणसी), कांची उज्जैन एवं द्वारका ये सात पुरियाँ मोक्ष प्रदान करने वाली है।
1. अयोध्या : यह सात मोक्षदायिनी पुरियों में प्रधान एवं प्रथम हैं यह पुरी भगवान श्रीहरि के सुदर्शन चक्र पर बसी है। श्रीराम की जन्मभूमि होने के कारण इसका महत्व बहुत है। इसका आकार मछली के समान है एवं स्कन्धपुराण के वैष्णव खण्ड के अयोध्या महात्म्य के अनुसार अयोध्या का मान सहस्त्रधारा तीर्थ अयोध्या महात्म्य के अनुसार अयोध्या का मान सहस्त्रधारा तीर्थ एक योजन पूर्व तक, ब्रम्हकुण्ड से एक योजन पश्चिम तक दक्षिण में तामसा नदी तक एवं उत्तर में सरयु नदी तक है।
अयोध्या में ब्रम्हा जी द्वारा निर्मित ब्रम्हकुण्ड है एवं सीताजी द्वारा सीताकुण्ड भी है जिसे भगवान राम ने वर देकर समस्त मनोकामनाओं को पूर्ण करने वाला बना दिया है। इस कुण्ड में स्नान से सभी पापों की मुक्ति होती है। यहां सहस्त्रधारा से पूर्व स्वर्गद्वार है। इस स्थान पर यज्ञ, हवन, दान, पुण्यादि अक्षय हो जाता है।
2. मथुरा-वृंदावन : यह यमुना नदी के दोनों तरफ बसा है। यमुना नदी के दक्षिण भाग में इसका विस्तार ज्यादा है। यमुना जी का भी महत्व है क्योंकि यमुना जी यमराज की बहन है। श्रीकृष्ण की प्रेमिका है एवं भगवान कृष्ण की जन्मभूमि के कारण इसका महात्म्य ज्यादा है। 3. हरिद्वार : यह तीसरी पवित्र पुरी है। यहाँ सतीमाता की मूर्ति है एवं शक्तिपीठ होने के कारण इसका महत्व है। कनखल से ऋषिकेश तक के क्षेत्र मायापुरी (हरिद्वार) कहलाता है। गंगा माता पर्वतों से उतरकर सर्वप्रथम यहीं समतल भूमि पर प्रवेश करती है एवं मनुष्यों के पापों की निवृत्ति करती है। 4. काशी या वाराणसी : यह नगरी भगवान शिव के त्रिशूल पर बसी है। इस नगरी के लिये यह कहा जाता है कि यह नगरी प्रलयकाल में भी नष्ट नहीं होगी। वरूण और असी के मध्य होने से इसे वाराणसी कहा गया है। यहाँ पर राजघाट, दुर्गाघाट, सिन्धिया घाट, ललिता घाट, केदार घाट आदि सैक़डों घाट है एवं विश्वेश्वर लिङग् स्वरूप विश्वनाथ मन्दिर, अन्नपूर्णा मन्दिर, ज्ञानवाणी, ढुण्ढिराज, गणेश, दण्डपाणि लागुरश्वर, दुर्गा मंदिर, हनुमान मंदिर, पिशाच मोचन तथा सहस्त्रों अन्य मन्दिर एवं पवित्र तीर्थ स्थान है जो काशी की शोभा एवं महात्म्य को बढ़ाते है। काशी की महिमा पर काशी रहस्य एवं काशी खण्ड दो विशाल है। 5. कांची : पेलार नदी के तट पर स्थित शिव कांची एवं विष्णु कांची नामों से विभक्त हरिहरात्मक पुरी है। शिव कांची विष्णुमांची से ब़डी है। यह मद्रास से 75 किलोमीटर दक्षिण-पश्चिम की ओर स्थित है। यहाँ एकायेश्वर मन्दिर तथा वामन मन्दिर, कामख्या मन्दिर, सुब्रम्हण्यम मन्दिर आदि तीर्थ है एवं सर्वतीर्थ सरोवर भी है।
विष्णु कांची में बरदराज स्वामी तथा देवराज स्वामी के मन्दिर है एवं अन्य कई मन्दिर इसकी महिमा बढ़ाते हैं।
6. उज्जैन : उज्जैन को पृथ्वी की नाभि कहा जाता है। यहाँ महाकाल ज्योतिर्लिङग् और हरसिद्दी देवी का शक्तिपीठ प्रसिद्ध है। यह हैहयवंशी राजा कार्तवीर्य की राजधानी भी रहा है। विक्रमादित्य के समय में यह सम्पूर्ण भारत की राजधानी रही है। उज्जैन पुरी मध्यप्रदेश की राजधानी भोपाल से 115 किलोमीटर पश्चिम में है। यहाँ शिप्रा नदी शहर के बीचोंबीच से बहती है। यहाँ ब़डे गणेश, सिद्धवट काल भैरव मन्दिर, यन्त्र महल माधव क्षेत्र अंकपाद आदि विशेष प्रसिद्ध है। अंकपाद में ही भगवान श्रीकृष्ण ने अपने गुरू संदीपनी ऋषि से 32 विद्या एवं 64 कलाओं का अध्ययन प्राप्त किया था। यहाँ व्यास तीर्थ नीलगङगा संगम, बिल्वकेश्वर महादेव, रूद्र सरोवर आदि तीर्थ भी प्रसिद्ध है। 7. द्वारका : द्वारका चार धामों में परिगणित है। यह सातवीं पुरी है जो वर्तमान में गुजरात प्रदेश के काठियाव़ाड जिले के पश्चिम समुद्र तट पर स्थित है। भगवान श्रीकृष्ण ने अपने जीवन का अधिकांश समय यहीं व्यतीत किया था। श्रीकृष्ण के पहले यहाँ कुकुद्मी का राज्य था जिनकी कन्या रेवती से बलदेव जी का विवाह हुआ था। यहाँ निष्पाप सरोवर, रणछो़ड जी मन्दिर, श्रीकृष्ण महल, वल्लभाचार्य की बैठक, वासुदेव मन्दिर, शंखोद्वार तीर्थ, नागनाथ पिण्डारथ तीर्थ, कामनाथ माधवपुर, नारायण सरोवर आदि कई महत्वपूर्ण तीर्थ है।

बृहस्पति के विषय

चौ़डा ललाट अच्छे भाग्य की निशानी माना जाता है तथा उन्नत चौ़डा ललाट बृहस्पति देव का ही विषय क्षेत्र है। जीवन के महत्वपूर्ण विषयों पर बृहस्पतिदेव का अधिकार है, जैसे- शिक्षा, विवाह, संतान, धर्म, धन, परोपकार, जीवन के इन पक्षों से संतुष्ट व्यक्ति नि:संदेह भाग्यशाली होगा। एक महत्वपूर्ण ग्रंथ के श्लोक में वर्णित है कि ब्रह्मा ने कष्ट एवं दु:ख के भवसागर को पार करने के लिए बृहस्पति और शुक्र नामक दो चप्पू बनाए। इनकी सहायता से व्यक्ति दोष रूपी समंदर को पार करके दूसरे किनारे पहुंच सकता है, जहाँ शुभ कर्म हैं अत: सात्विक गुणों के प्रदाता बृहस्पतिदेव ही हैं। जिन व्यक्तियों पर बृहस्पतिदेव की कृपा एवं प्रभाव होता है, वे परोपकारी, कर्तव्यपरायण, संतुष्ट एवं कानून का पालन करने वाले होते हैं।
बृहस्पति को धनु एवं मीन राशियों का स्वामित्व प्राप्त है यह दोनों राशियाँ बृहस्पति के दो रूपों का आरेखन करती है। धनुष-बाण से लक्ष्य साधता धनुर्धर, आत्मविश्वास, आशावाद और लक्ष्य भेदन की क्षमता का प्रतीक है, तो जल में विचरण करती मीन शांत परंतु सतत कार्यशीलता, आसानी से प्रभावित न होने एवं पूर्ण समर्पण का प्रतीक है। पाराशर जी ने बृहस्पति देव का चित्रांकन एक धीर, गंभीर, चिंतक एवं ज्ञान के अतुल भंडार के रूप में किया। बृहस्पति को देवताओं के गुरू, आचार्य एवं पुरोहित का स्थान प्राप्त है, जो उन्हें सही सलाह देते हैं, भटकने से बचाते हैं, अपने संस्कारों के विरूद्ध नहीं जाने देते और समय-समय पर वेद, शास्त्र एवं ज्ञान से परिचय कराते हैं। यही बृहस्पतिदेव का मुख्य कारकत्व है। जन्मपत्रिका में शुभ बृहस्पति गुरू का दर्जा दिलाते हैं। ऎसा गुरू जो सही राह दिखलाता है, संस्कारों से जु़डे रहने की शिक्षा देता है, जिसके शब्दों में इतनी गहराई और सार होता है कि सभी विश्वास करने पर विवश हो जाते हैं। ज्ञान, ध्यान, आध्यात्म, तीर्थ यात्रा का सुख यह सभी बृहस्पति देव की कृपा से ही संभव है।
भगवान शंकर ने प्रसन्न होकर बृहस्पति को देवगुरू एवं ग्रह के रूप में प्रतिष्ठा दी। भगवान शिव ही नीति, धर्म, वेद आदि के स्त्रोत हैं। पुराणों में वर्णन है कि सृष्टि की रचना के समय ब्रह्माजी ने जिस नीतिशास्त्र को रचा था, उसे भगवान शिव ने ग्रहण कर संक्षिप्त किया। तत्पश्चात् उसे देवराज इन्द्र ने, भगवान शंकर से ग्रहण कर इस शास्त्र का संक्षिप्तिकरण किया और पुन: बृहस्पति ने इस शास्त्र को अधिक संक्षिप्त किया, जो बार्हस्पत्य नीतिशास्त्र के नाम से विख्यात हुआ। ज्योतिष में बृहस्पति को सप्तम के अलावा पंचम और नवम दृष्टि भी प्राप्त है। ऎसा इसलिए है कि बृहस्पति मंत्री हैं इसलिए अच्छी शिक्षा व धर्म के रक्षार्थ इन भावों पर उनकी पूर्ण दृष्टि आवश्यक है अत: धर्म एवं नीति बृहस्पति देव के ही विषय हैं। महाभारत में युधिष्ठिर को धर्म तत्व का रहस्य बताते हुए जो देवगुरू बृहस्पति ने कहा है, वह इस पृथ्वी पर शांति स्थापित करने का एकमात्र साधन है।
यद्यपि ज्योतिष में वाणी का कारक बुध ग्रह को माना गया है परंतु व्याख्यान शक्ति बृहस्पति से ही आती है। ज्योतिष ग्रंथों में उल्लेख है कि बुध के बली होने से वाणी अच्छी होगी परंतु सारगर्भित वाणी के लिए बृहस्पति का बली होना भी आवश्यक है। यदि बुध बली हों परंतु बृहस्पति बली न हों तो व्यक्ति अधिक परंतु अनर्गल बोलता है। उत्तर कालामृत के रचयिता कवि कालिदास ने लिखा है कि सभा को आमोदित करना बृहस्पति का कारकत्व है। अत: पाण्डित्य एवं शास्त्र पूर्ण वाणी जन्म कुण्डली में बली बृहस्पति ही प्रदान कर सकते हैं। महाभारत में भीष्म पितामह ने देवगुरू बृहस्पति को वाणी, बुद्धि एवं ज्ञान के अधिष्ठाता तथा महान परोपकारी बताया है।

Sunday, April 25, 2010

गणेश चतुर्थी के दिन


आईये आपको गणेश चतुर्थी के दिन की जाने वाली एक सरल व छोटी सी पूजा बतायें जिससे आप पर ऋण हो तो दुर होकर अन्न धन्न के भंडार भर जावेगें।

एक गणेश जी की फोटो या मूर्ति लेवें वो भी नहीं मिले तो इस ब्लोग पर दिया चित्र चलेगा। उनके आगे 21 दुर्वा चढावें। तथा 5 मोदक या मोतीचुर के लडडू रखें तथा गाय के घी का दीपक करें गाय का घी नहीं मिले तो देसी घी कोई भी ले लेवें।हाथ जोड़कर श्रद्धा से यह श्लोक पढ़ें।

ॐ नमो विध्नराजाय सर्व सौख्य प्रदायिने दुष्टारिष्ट विनाशाय पराय परमात्मने लम्बोदरं महावीर्य नागयज्ञोपशोभितम अर्ध चन्द्रम धरम देवं विघ्न व्यूह विनाशनम ॐ ह्रां ह्रीं हु् हें हों हं हेरम्बाय नमों नमः सर्व सिद्धि प्रदोसी तवं सिद्धि बुद्धि प्रदो भव चिन्तितार्थ प्रदस्तवं ही स्ततं मोदक प्रियः सिन्दुरारेण वस्त्रेच पुजितो वरदायक इदं गणपति स्त्रोतं य पठेद भक्तिमान नरः तस्य देहं च गेंह च स्वंय लक्ष्मीने मुच्यनति ॐ।।

फिर 21 बार यह मन्त्र पढें

।।ॐ नजगजीक्षस्वामी ॐ नजगजीक्षस्वामी ।। (दो उच्चारण का एक मन्त्र हुआ)

पायरिया


पायरिया दातों में रहने वाले एक प्रकार के प्रोटोजोआ से होता है। कहते हैं कि एक बार पायरिया हो जावे तो जिदंगी भर ठीक नहीं होता । कैसी नादानी पूर्ण बात है कुछ कंपनिया तो महंगे दंत मंजन खाली पायरिया के नाम पर ही बेचती है जिनका करोड़ो रूपये का टर्न ओवर है परन्तु पायरिया ठीक नहीं होता।

मैं जो नुक्सा बताने जा रहा हुं वो हमारा परम्परागत नुक्सा है तथा सभी जानते हैं परन्तु उपयोग का तरीका सही नहीं आने से यह नुक्सा पायरिया ठीक कर सकता है कोई मानता नहीं है अतः मैं इसे वापस रीपीट कर देता हुं

चुटकी भर सादा नमक चुटकी भर हल्दी में चार पांच बुंद सरसों का तेल मिला कर उंगली से दांतों पर लगाकर 20 मिनट तक रखें लार आवे तो थुकते रहें लिजिये सर पायरिया एक ही दिन में ठीक हो जावेगा तथा ज्यादा ही पुराना है तो 3 दिन लगेगें व रोज करेंगें तो जिदंगी भर वापस नहीं होगा।

असल में इस सिंदात में 20 मिनट रूकने का ही चम्तकार है इसकी वजह है कि हमारे घरेलु नमक में किटाणुनाशक शक्ति है असल में नमक किटाणुओं के शरीर से पानी खेंच लेता है जिससे वो मर जाते हैं याद किजिए नमक डालने से अचार खराब नहीं होता तथा नमक के गरारे करने से गले का इन्फेक्शन ठीक हो जाता है इसी प्रकार नमक हल्दी व तेल 20 मिनट लगाकर रखने से पायरिया के प्रोटोजोआ ( अमीबा ) की सैल का पानी खत्म हो जाने से यह प्रोटोजोआ खत्म हो सकता है।

इसमें हल्दी पायरिया से मुहं में हुवे घावो को हील करती है तथा सरसों का तेल दांतों की परत पर नमक के अणुओं की रगड़ लगने से बचाता है तथा ज्यादा जोर से रगड़ना भी नहीं है केवल हल्के हाथ से लगाकर 20 मिनट बैठना है मुंह में थुक आवे तो थुक सकते हैं परन्तु थुकने पर थोड़ा मिश्रण वापस जरूर लगावें

आँख की फूली काटने का मन्त्र

आँख की फूली काटने का मन्त्र“उत्तर काल, काल। सुन जोगी का बाप। इस्माइल जोगी की दो बेटी-एक माथे चूहा, एक काते फूला। दूहाई लोना चमारी की। एक शब्द साँचा, पिण्ड काँचा, फुरो मन्त्र-ईश्वरो वाचा”
विधिः- पर्वकाल में एक हजार बार जप कर सिद्धकर लें। फिर मन्त्र को २१ बार पढ़ते हुए लोहे की कील को धरती में गाड़ें, तो ‘फूली’ कटने लगती है।

दाद का मन्त्र

दाद का मन्त्र“ओम् गुरुभ्यो नमः। देव-देव। पूरा दिशा भेरुनाथ-दल। क्षमा भरो, विशाहरो वैर, बिन आज्ञा। राजा बासुकी की आन, हाथ वेग चलाव।”
विधिः- किसी पर्वकाल में एक हजार बार जप कर सिद्ध कर लें। फिर २१ बार पानी को अभिमन्त्रित कर रोगी को पिलावें, तो दाद रोग जाता है

पीलिया का मंत्र

पीलिया का मंत्र“ओम नमो बैताल। पीलिया को मिटावे, काटे झारे। रहै न नेंक। रहै कहूं तो डारुं छेद-छेद काटे। आन गुरु गोरख-नाथ। हन हन, हन हन, पच पच, फट् स्वाहा।”
विधिः- उक्त मन्त्र को ‘सूर्य-ग्रहण’ के समय १०८ बार जप कर सिद्ध करें। फिर शुक्र या शनिवार को काँसे की कटोरी में एक छटाँक तिल का तेल भरकर, उस कटोरी को रोगी के सिर पर रखें और कुएँ की ‘दूब’ से तेल को मन्त्र पढ़ते हुए तब तक चलाते रहें, जब तक तेल पीला न पड़ जाए। ऐसा २ या ३ बार करने से पीलिया रोग सदा के लिए चला जाता है

शत्रु-मोहन

“चन्द्र-शत्रु राहू पर, विष्णु का चले चक्र। भागे भयभीत शत्रु, देखे जब चन्द्र वक्र। दोहाई कामाक्षा देवी की, फूँक-फूँक मोहन-मन्त्र। मोह-मोह-शत्रु मोह, सत्य तन्त्र-मन्त्र-यन्त्र।। तुझे शंकर की आन, सत-गुरु का कहना मान। ॐ नमः कामाक्षाय अं कं चं टं तं पं यं शं ह्रीं क्रीं श्रीं फट् स्वाहा।।”

विधिः- चन्द्र-ग्रहण या सूर्य-ग्रहण के समय किसी बारहों मास बहने वाली नदी के किनारे, कमर तक जल में पूर्व की ओर मुख करके खड़ा हो जाए। जब तक ग्रहण लगा रहे, श्री कामाक्षा देवी का ध्यान करते हुए उक्त मन्त्र का पाठ करता रहे। ग्रहण मोक्ष होने पर सात डुबकियाँ लगाकर स्नान करे। आठवीं डुबकी लगाकर नदी के जल के भीतर की मिट्टी बाहर निकाले। उस मिट्टी को अपने पास सुरक्षित रखे। जब किसी शत्रु को सम्मोहित करना हो, तब स्नानादि करके उक्त मन्त्र को १०८ बार पढ़कर उसी मिट्टी का चन्दन ललाट पर लगाए और शत्रु के पास जाए। शत्रु इस प्रकार सम्मोहित हो जायेगा कि शत्रुता छोड़कर उसी दिन से उसका सच्चा मित्र बन जाएगा।

सभा मोहन

सभा मोहन
“गंगा किनार की पीली-पीली माटी। चन्दन के रुप में बिके हाटी-हाटी।। तुझे गंगा की कसम, तुझे कामाक्षा की दोहाई। मान ले सत-गुरु की बात, दिखा दे करामात। खींच जादू का कमान, चला दे मोहन बान। मोहे जन-जन के प्राण, तुझे गंगा की आन। ॐ नमः कामाक्षाय अं कं चं टं तं पं यं शं ह्रीं क्रीं श्रीं फट् स्वाहा।।”विधिः- जिस दिन सभा को मोहित करना हो, उस दिन उषा-काल में नित्य कर्मों से निवृत्त होकर ‘गंगोट’ (गंगा की मिट्टी) का चन्दन गंगाजल में घिस ले और उसे १०८ बार उक्त मन्त्र से अभिमन्त्रित करे। फिर श्री कामाक्षा देवी का ध्यान कर उस चन्दन को ललाट (मस्तक) में लगा कर सभा में जाए, तो सभा के सभी लोग जप-कर्त्ता की बातों पर मुग्ध हो जाएँगे।

दर्शन हेतु श्री काली मन्त्र

“डण्ड भुज-डण्ड, प्रचण्ड नो खण्ड। प्रगट देवि, तुहि झुण्डन के झुण्ड। खगर दिखा खप्पर लियां, खड़ी कालका। तागड़दे मस्तङ्ग, तिलक मागरदे मस्तङ्ग। चोला जरी का, फागड़ दीफू, गले फुल-माल, जय जय जयन्त। जय आदि-शक्ति। जय कालका खपर-धनी। जय मचकुट छन्दनी देव। जय-जय महिरा, जय मरदिनी। जय-जय चुण्ड-मुण्ड भण्डासुर-खण्डनी, जय रक्त-बीज बिडाल-बिहण्डनी। जय निशुम्भ को दलनी, जय शिव राजेश्वरी। अमृत-यज्ञ धागी-धृट, दृवड़ दृवड़नी। बड़ रवि डर-डरनी ॐ ॐ ॐ।।”

 विधि- नवरात्रों में प्रतिपदा से नवमी तक घृत का दीपक प्रज्वलित रखते हुए अगर-बत्ती जलाकर प्रातः-सायं उक्त मन्त्र का ४०-४० जप करे। कम या ज्यादा न करे। जगदम्बा के दर्शन होते हैं।

शीघ्र धन प्राप्ति के लिए

शीघ्र धन प्राप्ति के लिए

“ॐ नमः कर घोर-रुपिणि स्वाहा”

विधिः उक्त मन्त्र का जप प्रातः ११ माला देवी के किसी सिद्ध स्थान या नित्य पूजन स्थान पर करे। रात्रि में १०८ मिट्टी के दाने लेकर किसी कुएँ पर तथा सिद्ध-स्थान या नित्य-पूजन-स्थान की तरफ मुख करके दायाँ पैर कुएँ में लटकाकर व बाँएँ पैर को दाएँ पैर पर रखकर बैठे। प्रति-जप के साथ एक-एक करके १०८ मिट्टी के दाने कुएँ में डाले। ग्तारह दिन तक इसी प्रकार करे। यह प्रयोग शीघ्र आर्थिक सहायता प्राप्त करने के लिए है

‘कुंजिका स्तोत्र’ और ‘बीसा यन्त्र’ का अनुभूत अनुष्ठान


‘कुंजिका स्तोत्र’ और ‘बीसा यन्त्र’ का अनुभूत अनुष्ठान
प्राण-प्रतिष्ठा करने के पर्व
चन्द्र ग्रहण, सूर्य ग्रहण, दीपावली के तीन दिन (धन तेरस, चर्तुदशी, अमावस्या), रवि-पुष्य योग, रवि-मूल योग तथा महानवमी के दिन ‘रजत-यन्त्र’ की प्राण प्रतिष्ठा, पूजादि विधान करें। इनमे से जो समय आपको मिले, साधना प्रारम्भ करें। 41 दिन तक विधि-पूर्वक पूजादि करने से सिद्धि होती है। 42 वें दिन नहा-धोकर अष्टगन्ध (चन्दन, अगर, केशर, कुंकुम, गोरोचन, शिलारस, जटामांसी तथा कपूर) से स्वच्छ 41 यन्त्र बनाएँ। पहला यन्त्र अपने गले में धारण करें। बाकी आवश्यकतानुसार बाँट दें।
प्राण-प्रतिष्ठा विधि
सर्व-प्रथम किसी स्वर्णकार से 15 ग्राम का तीन इंच का चौकोर चाँदी का पत्र (यन्त्र) बनवाएँ। अनुष्ठान प्रारम्भ करने के दिन ब्राह्म-मुहूर्त्त में उठकर, स्नान करके सफेद धोती-कुरता पहनें। कुशा का आसन बिछाकर उसके ऊपर मृग-छाला बिछाएँ। यदि मृग छाला न मिले, तो कम्बल बिछाएँ, उसके ऊपर पूर्व को मुख कर बैठ जाएँ।
अपने सामने लकड़ी का पाटा रखें। पाटे पर लाल कपड़ा बिछाकर उस पर एक थाली (स्टील की नहीं) रखें। थाली में पहले से बनवाए हुए चौकोर रजत-पत्र को रखें। रजत-पत्र पर अष्ट-गन्ध की स्याही से अनार या बिल्व-वृक्ष की टहनी की लेखनी के द्वारा ‘यन्त्र लिखें।
पहले यन्त्र की रेखाएँ बनाएँ। रेखाएँ बनाकर बीच में ॐ लिखें। फिर मध्य में क्रमानुसार 7, 2, 3 व 8 लिखें। इसके बाद पहले खाने में 1, दूसरे में 9, तीसरे में 10, चैथे में 14, छठे में 6, सावें में 5, आठवें में 11 नवें में 4 लिखें। फिर यन्त्र के ऊपरी भाग पर ‘ॐ ऐं ॐ’ लिखें। तब यन्त्र की निचली तरफ ‘ॐ क्लीं ॐ’ लिखें। यन्त्र के उत्तर तरफ ‘ॐ श्रीं ॐ’ तथा दक्षिण की तरफ ‘ॐ क्लीं ॐ’ लिखें।
प्राण-प्रतिष्ठा
अब ‘यन्त्र’ की प्राण-प्रतिष्ठा करें। यथा- बाँयाँ हाथ हृदय पर रखें और दाएँ हाथ में पुष्प लेकर उससे ‘यन्त्र’ को छुएँ और निम्न प्राण-प्रतिष्ठा मन्त्र को पढ़े -
“ॐ आं ह्रीं क्रों यं रं लं वं शं षं सं हं हंसः सोऽहं मम प्राणाः इह प्राणाः, ॐ आं ह्रीं क्रों यं रं लं वं शं षं सं हं हंसः सोऽहं मम सर्व इन्द्रियाणि इह सर्व इन्द्रयाणि, ॐ आं ह्रीं क्रों यं रं लं वं शं षं सं हं हंसः सोऽहं मम वाङ्-मनश्चक्षु-श्रोत्र जिह्वा घ्राण प्राण इहागत्य सुखं चिरं तिष्ठन्तु स्वाहा।”
‘यन्त्र’ पूजन
इसके बाद ‘रजत-यन्त्र’ के नीचे थाली पर एक पुष्प आसन के रूप में रखकर ‘यन्त्र’ को साक्षात् भगवती चण्डी स्वरूप मानकर पाद्यादि उपचारों से उनकी पूजा करें। प्रत्येक उपचार के साथ ‘समर्पयामि चन्डी यन्त्रे नमः’ वाक्य का उच्चारण करें। यथा-
1. पाद्यं (जल) समर्पयामि चण्डी-यन्त्रे नमो नमः। 2. अध्र्यं (जल) समर्पयामि चण्डी-यन्त्रे नमो नमः। 3. आचमनं (जल) समर्पयामि चण्डी-यन्त्रे नमो नमः। 4. गंगाजलं समर्पयामि चण्डी-यन्त्रे नमो नमः। 5. दुग्धं समर्पयामि चण्डी-यन्त्रे नमो नमः। 6. घृतं समर्पयामि चण्डी-यन्त्रे नमो नमः। 7. तरू-पुष्पं (शहद) समर्पयामि चण्डी-यन्त्रे नमो नमः। 8. इक्षु-क्षारं (चीनी) समर्पयामि चण्डी-यन्त्रे नमो नमः। 9. पंचामृतं (दूध, दही, घी, शहद, गंगाजल) समर्पयामि चण्डी-यन्त्रे नमो नमः। 10. गन्धम् (चन्दन) समर्पयामि चण्डी-यन्त्रे नमो नमः। 11. अक्षतान् समर्पयामि चण्डी-यन्त्रे नमो नमः। 12 पुष्प-माला समर्पयामि चण्डी-यन्त्रे नमो नमः। 13. मिष्ठान्न-द्रव्यं समर्पयामि चण्डी-यन्त्रे नमो नमः। 14. धूपं समर्पयामि चण्डी-यन्त्रे नमो नमः। 15. दीपं समर्पयामि चण्डी-यन्त्रे नमो नमः। 16. पूगी फलं समर्पयामि चण्डी-यन्त्रे नमो नमः। 17 फलं समर्पयामि चण्डी-यन्त्रे नमो नमः। 18. दक्षिणा समर्पयामि चण्डी-यन्त्रे नमो नमः। 19. आरतीं समर्पयामि चण्डी-यन्त्रे नमो नमः।
तदन्तर यन्त्र पर पुष्प चढ़ाकर निम्न मन्त्र बोलें-
पुष्पे देवा प्रसीदन्ति, पुष्पे देवाश्च संस्थिताः।।
अब ‘सिद्ध कुंजिका स्तोत्र’ का पाठ कर यन्त्र को जागृत करें। यथा-
।।शिव उवाच।।
श्रृणु देवि ! प्रवक्ष्यामि, कुंजिका स्तोत्रमुत्तमम्।
येन मन्त्र प्रभावेण, चण्डी जापः शुभो भवेत।।
न कवचं नार्गला-स्तोत्रं, कीलकं न रहस्यकम्।
न सूक्तं नापि ध्यानं च, न न्यासो न च वार्चनम्।।
कुंजिका पाठ मात्रेण, दुर्गा पाठ फलं लभेत्।
अति गुह्यतरं देवि ! देवानामपि दुलर्भम्।।
मारणं मोहनं वष्यं स्तम्भनोव्च्चाटनादिकम्।
पाठ मात्रेण संसिद्धयेत् कुंजिका स्तोत्रमुत्तमम्।।
मन्त्र – ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चे। ॐ ग्लौं हुं क्लीं जूं सः ज्वालय ज्वालय ज्वल ज्वल प्रज्वल प्रज्वल ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चे ज्वल हं सं लं क्षं फट् स्वाहा।।
नमस्ते रूद्र रूपायै, नमस्ते मधु-मर्दिनि।
नमः कैटभ हारिण्यै, नमस्ते महिषार्दिनि।।1
नमस्ते शुम्भ हन्त्र्यै च, निशुम्भासुर घातिनि।
जाग्रतं हि महादेवि जप ! सिद्धिं कुरूष्व मे।।2
ऐं-कारी सृष्टि-रूपायै, ह्रींकारी प्रतिपालिका।
क्लींकारी काल-रूपिण्यै, बीजरूपे नमोऽस्तु ते।।3
चामुण्डा चण्डघाती च, यैकारी वरदायिनी।
विच्चे नोऽभयदा नित्यं, नमस्ते मन्त्ररूपिणि।।4
धां धीं धूं धूर्जटेः पत्नीः, वां वीं वागेश्वरी तथा।
क्रां क्रीं श्रीं में शुभं कुरू, ऐं ॐ ऐं रक्ष सर्वदा।।5
ॐॐॐ कार-रूपायै, ज्रां ज्रां ज्रम्भाल-नादिनी।
क्रां क्रीं क्रूं कालिकादेवि ! शां शीं शूं में शुभं कुरू।।6
ह्रूं ह्रूं ह्रूंकार रूपिण्यै, ज्रं ज्रं ज्रम्भाल नादिनी।
भ्रां भ्रीं भ्रूं भैरवी भद्रे ! भवानि ते नमो नमः।।7
अं कं चं टं तं पं यं शं बिन्दुराविर्भव।
आविर्भव हं सं लं क्षं मयि जाग्रय जाग्रय
त्रोटय त्रोटय दीप्तं कुरू कुरू स्वाहा।
पां पीं पूं पार्वती पूर्णा, खां खीं खूं खेचरी तथा।।8
म्लां म्लीं म्लूं दीव्यती पूर्णा, कुंजिकायै नमो नमः।
सां सीं सप्तशती सिद्धिं, कुरूश्व जप-मात्रतः।।9
।।फल श्रुति।।
इदं तु कुंजिका स्तोत्रं मन्त्र-जागर्ति हेतवे।
अभक्ते नैव दातव्यं, गोपितं रक्ष पार्वति।।
यस्तु कुंजिकया देवि ! हीनां सप्तशती पठेत्।
न तस्य जायते सिद्धिररण्ये रोदनं यथा।।
फिर यन्त्र की तीन बार प्रदक्षिणा करते हुए यह मन्त्र बोलें-
यानि कानि च पापानि, जन्मान्तर-कृतानि च।
तानि तानि प्रणश्यन्ति, प्रदक्षिणं पदे पदे।।
प्रदक्षिणा करने के बाद यन्त्र को पुनः नमस्कार करते हुए यह मन्त्र पढ़े-
एतस्यास्त्वं प्रसादन, सर्व मान्यो भविष्यसि।
सर्व रूप मयी देवी, सर्वदेवीमयं जगत्।।
अतोऽहं विश्वरूपां तां, नमामि परमेश्वरीम्।।
अन्त में हाथ जोड़कर क्षमा-प्रार्थना करें। यथा-
अपराध सहस्त्राणि, क्रियन्तेऽहर्निषं मया।
दासोऽयमिति मां मत्वा, क्षमस्व परमेश्वरि।।
आवाहनं न जानामि, न जानामि विसर्जनम्।
पूजां चैव न जानामि, क्षम्यतां परमेश्वरि।।
मन्त्र-हीनं क्रिया-हीनं, भक्ति-हीनं सुरेश्वरि !
यत् पूजितम् मया देवि ! परिपूर्णं तदस्तु मे।।
अपराध शतं कृत्वा, जगदम्बेति चोच्चरेत्।
या गतिः समवाप्नोति, न तां ब्रह्मादयः सुराः।।
सापराधोऽस्मि शरणं, प्राप्यस्त्वां जगदम्बिके !
इदानीमनुकम्प्योऽहं, यथेच्छसि तथा कुरू।।
अज्ञानाद् विस्मृतेर्भ्रान्त्या, यन्न्यूनमधिकं कृतम्।
तत् सर्वं क्षम्यतां देवि ! प्रसीद परमेश्वरि !
कामेश्वरि जगन्मातः, सच्चिदानन्द-विग्रहे !
गृहाणार्चामिमां प्रीत्या, प्रसीद परमेश्वरि !
गुह्याति-गुह्य-गोप्त्री त्वं, गुहाणास्मत् कृतं जपम्।
सिद्धिर्भवतु मे देवि ! त्वत् प्रसादात् सुरेश्वरि।

गणेश मन्त्र


गणेश मन्त्र
 नमो सिद्ध-विनायकाय सर्व-कार्य-कर्त्रे सर्व-विघ्न-प्रशमनाय सर्व-राज्य-वश्य-करणाय सर्व-जन-सर्व-स्त्री-पुरुष-आकर्षणाय श्रीं ॐ स्वाहा ॥
िधि- नित्य-कर्म से निवृत्त होकर उक्त मन्त्र का निश्चित संख्या में नित्य १ से १० माला जप करे। बाद में जब घर से निकले, तब अपने अभीष्ट कार्य का चिन्तन करे। इससे अभीष्ट कार्व सुगमता से पूरे हो जाते हैं।

Friday, April 23, 2010

अष्ट यक्षिणी साधना

जीवन में रस आवश्यक है,जीवन में सौन्दर्य आवश्यक है,जीवन में आहलाद आवश्यक है,जीवन में सुरक्षा आवश्यक है,ऐसे श्रेष्ठ जीवन के लिए संपन्न करें----------

अष्ट यक्षिणी साधना
बहुत से लोग यक्षिणी का नाम सुनते ही डर जाते हैं कि ये बहुत भयानक होती हैं, किसी चुडैल कि तरह, किसी प्रेतानी कि तरह, मगर ये सब मन के वहम हैं। यक्षिणी साधक के समक्ष एक बहुत ही सौम्य और सुन्दर स्त्री के रूप में प्रस्तुत होती है। देवताओं के कोषाध्यक्ष कुबेर स्वयं भी यक्ष जाती के ही हैं। यक्षिणी साधना का साधना के क्षेत्र में एक निश्चित अर्थ है। यक्षिणी प्रेमिका मात्र ही होती है, भोग्या नहीं, और यूं भी कोई स्त्री भोग कि भावभूमि तो हो ही नहीं सकती, वह तो सही अर्थों में सौन्दर्य बोध, प्रेम को जाग्रत करने कि भावभूमि होती है। यद्यपि मन का प्रस्फुटन भी दैहिक सौन्दर्य से होता है किन्तु आगे चलकर वह भी भावनात्मक रूप में परिवर्तित होता है या हो जाना चाहिए और भावना का सबसे श्रेष्ठ प्रस्फुटन तो स्त्री के रूप में सहगामिनी बना कर एक लौकिक स्त्री के सन्दर्भ में सत्य है तो क्यों नहीं यक्षिणी के संदर्भ में सत्य होगी? वह तो प्रायः कई अर्थों में एक सामान्य स्त्री से श्रेष्ठ स्त्री होती है।
तंत्र विज्ञान के रहस्य को यदि साधक पूर्ण रूप से आत्मसात कर लेता है, तो फिर उसके सामाजिक या भौतिक समस्या या बाधा जैसी कोई वस्तु स्थिर नहीं रह पाती। तंत्र विज्ञान का आधार ही है, कि पूर्ण रूप से अपने साधक के जीवन से सम्बन्धित बाधाओं को समाप्त कर एकाग्रता पूर्वक उसे तंत्र के क्षेत्र में बढ़ने के लिए अग्रसर करे।


साधक सरलतापूर्वक तंत्र कि व्याख्या को समझ सके, इस हेतु तंत्र में अनेक ग्रंथ प्राप्त होते हैं, जिनमे अत्यन्त गुह्य और दुर्लभ साधानाएं वर्णित है। साधक यदि गुरु कृपा प्राप्त कर किसी एक तंत्र का भी पूर्ण रूप से अध्ययन कर लेता है, तो उसके लिए पहाड़ जैसी समस्या से भी टकराना अत्यन्त लघु क्रिया जैसा प्रतीत होने लगता है। 


साधक में यदि गुरु के प्रति विश्वास न हो, यदि उसमे जोश न हो, उत्साह न हो, तो फिर वह साधनाओं में सफलता नहीं प्राप्त कर सकता। साधक तो समस्त सांसारिक क्रियायें करता हुआ भी निर्लिप्त भाव से अपने इष्ट चिन्तन में प्रवृत्त रहता है।

ऐसे ही साधकों के लिए 'उड़ामरेश्वर तंत्र' मे एक अत्यन्त उच्चकोटि कि साधना वर्णित है, जिसे संपन्न करके वह अपनी समस्त मनोकामनाओं को पूर्ण कर सकता है तथा अपने जीवन में पूर्ण भौतिक सुख-सम्पदा का पूर्ण आनन्द प्राप्त कर सकता है।

'अष्ट यक्षिणी साधना' के नाम से वर्णित यह साधना प्रमुख रूप से यक्ष की श्रेष्ठ रमणियों, जो साधक के जीवन में सम्पूर्णता का उदबोध कराती हैं, की ये है।

ये प्रमुख यक्षिणियां है - 

  1.  सुर सुन्दरी यक्षिणी 
  2. मनोहारिणी यक्षिणी
  3.  कनकावती यक्षिणी 
  4.  कामेश्वरी यक्षिणी
  5.  रतिप्रिया यक्षिणी
  6.  पद्मिनी यक्षिणी 
  7.   नटी यक्षिणी 
  8. अनुरागिणी यक्षिणी

प्रत्येक यक्षिणी साधक को अलग-अलग प्रकार से सहयोगिनी होती है, अतः साधक को चाहिए कि वह आठों यक्षिणियों को ही सिद्ध कर लें।
  • सुर सुन्दरी यक्षिणी 

यह सुडौल देहयष्टि, आकर्षक चेहरा, दिव्य आभा लिये हुए, नाजुकता से भरी हुई है। देव योनी के समान सुन्दर होने से कारण इसे सुर सुन्दरी यक्षिणी कहा गया है। सुर सुन्दरी कि विशेषता है, कि साधक उसे जिस रूप में पाना चाहता हैं, वह प्राप्त होता ही है - चाहे वह माँ का स्वरूप हो, चाहे वह बहन का या पत्नी का, या प्रेमिका का। यह यक्षिणी सिद्ध होने के पश्चात साधक को ऐश्वर्य, धन, संपत्ति आदि प्रदान करती है।

  •  मनोहारिणी यक्षिणी
अण्डाकार चेहरा, हरिण के समान नेत्र, गौर वर्णीय, चंदन कि सुगंध से आपूरित मनोहारिणी यक्षिणी सिद्ध होने के पश्चात साधक के व्यक्तित्व को ऐसा सम्मोहन बना देती है, कि वह कोई भी, चाहे वह पुरूष हो या स्त्री, उसके सम्मोहन पाश में बंध ही जाता है। वह साधक को धन आदि प्रदान कर उसे संतुष्ट कराती है।

  •  कनकावती यक्षिणी

रक्त वस्त्र धारण कि हुई, मुग्ध करने वाली और अनिन्द्य सौन्दर्य कि स्वामिनी, षोडश वर्षीया, बाला स्वरूपा कनकावती यक्षिणी है। कनकावती यक्षिणी को सिद्ध करने के पश्चात साधक में तेजस्विता तथा प्रखरता आ जाती है, फिर वह विरोधी को भी मोहित करने कि क्षमता प्राप्त कर लेता है। यह साधक की प्रत्येक मनोकामना को पूर्ण करने मे सहायक होती है।

  • कामेश्वरी यक्षिणी
सदैव चंचल रहने वाली, उद्दाम यौवन युक्त, जिससे मादकता छलकती हुई बिम्बित होती है। साधक का हर क्षण मनोरंजन करती है कामेश्वरी यक्षिणी। यह साधक को पौरुष प्रदान करती है तथा पत्नी सुख कि कामना करने पर पूर्ण पत्निवत रूप में साधक कि कामना करती है। साधक को जब भी द्रव्य कि आवश्यकता होती है, वह तत्क्षण उपलब्ध कराने में सहायक होती है।

  • रति प्रिया यक्षिणी
स्वर्ण के समान देह से युक्त, सभी मंगल आभूषणों से सुसज्जित, प्रफुल्लता प्रदान करने वाली है रति प्रिया यक्षिणी। रति प्रिया यक्षिणी साधक को हर क्षण प्रफुल्लित रखती है तथा उसे दृढ़ता भी प्रदान करती है। साधक और साधिका यदि संयमित होकर इस साधना को संपन्न कर लें तो निश्चय ही उन्हें कामदेव और रति के समान सौन्दर्य कि उपलब्धि होती है।

  • पदमिनी यक्षिणी
कमल के समान कोमल, श्यामवर्णा, उन्नत स्तन, अधरों पर सदैव मुस्कान खेलती रहती है, तथा इसके नेत्र अत्यधिक सुन्दर है। पद्मिनी यक्षिणी साधना साधक को अपना सान्निध्य नित्य प्रदान करती है। इसकी सबसे बड़ी विशेषता यह है, कि यह अपने साधक में आत्मविश्वास व स्थिरता प्रदान कराती है तथा सदैव उसे मानसिक बल प्रदान करती हुई उन्नति कि और अग्रसर करती है।

  • नटी यक्षिणी
नटी यक्षिणी को 'विश्वामित्र' ने भी सिद्ध किया था। यह अपने साधक कि पूर्ण रूप से सुरक्षा करती है तथा किसी भी प्रकार कि विपरीत परिस्थितियों में साधक को सरलता पूर्वक निष्कलंक बचाती है।


  • अनुरागिणी यक्षिणी
अनुरागिणी यक्षिणी शुभ्रवर्णा है। साधक पर प्रसन्न होने पर उसे नित्य धन, मान, यश आदि प्रदान करती है तथा साधक की इच्छा होने पर उसके साथ उल्लास करती है।

:-        अष्ट यक्षिणी साधना को संपन्न करने वाले साधक को यह साधना अत्यन्त संयमित होकर करनी चाहिए। समूर्ण साधना काल में ब्रह्मचर्य का पालन अनिवार्य है। साधक यह साधना करने से पूर्व यदि सम्भव हो तो 'अष्ट यक्षिणी दीक्षा' भी लें। साधना काल में मांस, मदिरा का सेवन न करें तथा मानसिक रूप से निरंतर गुरु मंत्र का जप करते रहे। यह साधना रात्रिकाल में ही संपन्न करें। साधनात्मक अनुभवों की चर्चा किसी से भी नहीं करें, न ही किसी अन्य को साधना विषय में बतायें। निश्चय ही यह साधना साधक के जीवन में भौतिक पक्ष को पूर्ण करने मे अत्यन्त सहायक होगी, क्योंकि अष्ट यक्षिणी सिद्ध साधक को जीवन में कभी भी निराशा या हार का सामना नहीं करना पड़ता है। वह अपने क्षेत्र में अद्वितीयता प्राप्त करता ही है।


साधना विधान:-
इस साधना में आवश्यक सामग्री है - ८ अष्टाक्ष गुटिकाएं तथा अष्ट यक्षिणी सिद्ध यंत्र एवं 'यक्षिणी माला'। साधक यह साधना किसी भी शुक्रवार को प्रारम्भ कर सकता है। यह तीन दिन की साधना है। लकड़ी के बजोट पर सफेद वस्त्र बिछायें तथा उस पर कुंकुम से निम्न यंत्र बनाएं। (इस यंत्र की फोटो आपको मंत्र-तंत्र-यंत्र विज्ञान पत्रिका में मिलेगी)
फिर उपरोक्त प्रकार से रेखांकित यंत्र में जहां 'ह्रीं' बीज अंकित है वहां एक-एक अष्टाक्ष गुटिका स्थापित करें। फिर अष्ट यक्षिणी का ध्यान कर प्रत्येक गुटिका का पूजन कुंकूम, पुष्प तथा अक्षत से करें। धुप तथा दीप लगाएं। फिर यक्षिणी से निम्न मूल मंत्र की एक माला मंत्र जप करें, फिर क्रमानुसार दिए गए हुए आठों यक्षिणियों के मंत्रों की एक-एक माला जप करें। प्रत्येक यक्षिणी मंत्र की एक माला जप करने से पूर्व तथा बाद में मूल मंत्र की एक माला मंत्र जप करें। उदाहरणार्थ पहले मूल मंत्र की एक माला जप करें, फिर सुर-सुन्दरी यक्षिणी मंत्र की एक माला मंत्र जप करें, फिर मूल मंत्र की एक माला मंत्र जप करें, फिर क्रमशः प्रत्येक यक्षिणी से सम्बन्धित मंत्र का जप करना है। ऐसा तीन दिन तक नित्य करें।

मूल अष्ट यक्षिणी मंत्र

॥ ॐ ऐं श्रीं अष्ट यक्षिणी सिद्धिं सिद्धिं देहि नमः ॥
  • सुर सुन्दरी मंत्र
॥ ॐ ऐं ह्रीं आगच्छ सुर सुन्दरी स्वाहा ॥

  • मनोहारिणी मंत्र
॥ ॐ ह्रीं आगच्छ मनोहारी स्वाहा ॥

  • कनकावती मंत्र
॥ ॐ ह्रीं हूं रक्ष कर्मणि आगच्छ कनकावती स्वाहा ॥

  • कामेश्वरी मंत्र
॥ ॐ क्रीं कामेश्वरी वश्य प्रियाय क्रीं ॐ ॥

  • रति प्रिया मंत्र
॥ ॐ ह्रीं आगच्छ आगच्छ रति प्रिया स्वाहा ॥
  • पद्मिनी मंत्र
॥ ॐ ह्रीं आगच्छ आगच्छ पद्मिनी स्वाहा ॥
  • नटी मंत्र
॥ ॐ ह्रीं आगच्छ आगच्छ नटी स्वाहा ॥
  • अनुरागिणी मंत्र
॥ ॐ ह्रीं अनुरागिणी आगच्छ स्वाहा ॥

      मंत्र जप समाप्ति पर साधक साधना कक्ष में ही सोयें। अगले दिन पुनः इसी प्रकार से साधना संपन्न करें, तीसरे दिन साधना साधना सामग्री को जिस वस्त्र पर यंत्र बनाया है, उसी में बांध कर नदी में प्रवाहित कर दें