भारतीय परंपराओं एवं पौराणिक श्रुति-स्मृतियों के अनुसार भगवान विष्णु ने समय-समय पर अद्भुत अवतार लेकर पापों का नाश कर धर्म की पुनर्स्थापना की। देश के अलग-अलग राज्यों के क्षेत्रों में अपने-अपने आराध्य देवी-देवताओं का पूजन-अर्चन करने की मान्यताएँ प्राचीनकाल से चली आ रही हैं।
जहां हिमाचल प्रदेश में माता दुर्गा के नव-रूपों की अगाध श्रद्धापूर्वक पूजन-अर्चन करने की विशेष परंपरा है, वहीं शैव भक्ति के साथ-साथ उत्तरांचल राज्य तथा जम्मू-कश्मीर, ऊधमपुर में मेले के रूप में देवी-देवताओं के प्रसन्न करने की प्रथा चली आ रही है। देश के कई अन्य राज्यों में भी घर-घर विष्णु भगवान के अवतार नृसिंह का पूजन-अर्चन बड़े श्रद्धा-भाव से किये जाने की प्रथा आज भी विशेष रूप से प्रचलित है। उत्तराखंड में अधिकतर परिवारों के `कुलदेव', `इष्टदेव' भगवान नृसिंह ही हैं।
नृसिंह पुराण के एक श्लोक के अनुसार, स्वाति नक्षत्रसंयोगे शनिवारे महद्वतम्। सिद्धियोगस्य संयोगे वणिजेकरणे तथा। पुंसां सौभाग्ययोगेन लभ्यते दैवयोगत। सर्वैरेतैस्तु संयुक्तं हत्याकोटिविनाशनम्।।
अर्थात् वैशाख शुक्ल प्रदोष व्यापिनी चतुर्दशी को नृसिंह जयन्ती का व्रत किया जाता है। दैवयोग अथवा सौभाग्यवश किसी दिन पूर्वविधा में शनि, स्वाति, सिद्धि और वणिज का संयोग हो तो उसी दिन व्रत करना चाहिए। व्रत को सब वर्ण के लोग कर सकते हैं। मध्याह्न के समय नदी या जल से वैदिक एवं नृसिंह गायत्री मंत्र का जाप करते हुए तिल, गोमय, मृत्तिका और आंवले सहित स्नान करने के पश्चात् ताम्र-कलश में रत्नादि डालकर, अष्टकमल दल पर भगवान नृसिंह की प्रतिमा को पंचामृतादि से स्नानादि `पुरुष-सूक्तम्' से करवाना चाहिए। इस व्रत में क्रोध, लोभ, मोह एवं मिथ्याभाषण, पापाचार आदि का सर्वथा त्याग करना चाहिए। सायंकाल पुन नृसिंह भगवान का षोडशोपचार से पूजन करना चाहिए। कहीं-कहीं नृसिंह को रोठ (गुड़-आटे) चढ़ाने की भी परंपरा है। प्रतिवर्ष इस व्रत को करते रहने से भगवान नृसिंह व्रती की एवं उसके परिवार की सभी प्रकार से (तंत्र-मंत्र, भूत-प्रेतादि बाधाओं से) रक्षा करके यथेच्छ धन-धान्य देते हैं।
विष्णु अवतार नृसिंह शक्ति एवं पराक्रम के प्रतीक माने जाते हैं। प्राचीन काल में कश्यप की पत्नी दिति के पुत्र हिरण्याक्ष को विष्णु भगवान ने वराह अवतार लेकर मारा था, क्योंकि वह पृथ्वी को पाताल लोक (रसातल) में ले गया था। इसी कारण भाई की मृत्यु का बदला लेने के लिए हिरण्यकशिपु ने ब्रह्मादि देवताओं की कई वर्ष तक तपस्या करके ऐसा वरदान मांगा कि वह न तो रात में मरे, न दिन में और न ही स्वर्ग, पाताल, हथियार, मनुष्य, देव, किन्नर, गण, जानवर से मरे। न घर के भीतर या बाहर मरे। ऐसा वरदान पाकर हिरण्यकशिपु अत्याचार करने लगा। जब पाप के कारण चारों ओर त्राहि-त्राहि मची तो हिरण्यकशिपु की पत्नी एवं जंभासुर की पुत्री कयादु के गर्भ से छ पुत्र हुए, जिनमें एक प्रह्लाद भी थे। वह भगवान विष्णु के अनन्य भक्त थे। पिता के अत्याचारों से क्षुब्ध होकर प्रह्लाद भगवान से प्रार्थना करते तो हिरण्यकशिपु अपने पुत्र को मारने की तरकीबें अपनाता, किन्तु विफल ही होता।
हिरण्यकशिपु की बहन होलिका की मृत्यु भी इसी अत्याचार एवं भक्त प्रह्लाद की विजय का प्रमाण है। जब पिता का पुत्र पर अत्याचार अधिक बढ़ गया तो लोहे का खंभा फाड़कर भगवान नृसिंह का अवतार हुआ। नृसिंह अर्थात् आधा शरीर शेर का, आधा नर का। भगवान के इस अवतार ने पापी हिरण्यकशिपु का अंत किया और प्रह्लाद एवं जनता को अत्याचारों से मुक्ति दिलाई।
प्रह्लाद ने भगवान नृसिंह से पूछा, ``भगवन्! अन्य भक्तों की अपेक्षा मेरे प्रति आपका अधिक स्नेह होने का क्या कारण है?'' तब भगवान ने कहा, ``प्रह्लाद! पूर्वजन्म में तू विद्याहीन, आचारहीन वासुदेव नाम का ब्राह्मण था और एक गणिका से प्रेम करता था। वह गणिका वैशाख शुक्ल चतुर्दशी का व्रत किया करती थी, उसी की संगति से तुमने भी यह व्रत किया। इसी कारण तुम्हारी प्रीति मुझ में हुई और तुम पापमुक्त होकर वैकुंठ के अधिकारी हो गये। अब अपने राज्य में पूर्ण भगवद् संदेश देना।''
वीर हनुमान जी की भांति नृसिंह भगवान भी पराक्रम और शक्ति रूप के प्रतीक हैं। प्राचीन हिन्दू राज्यों में कई राजाओं ने नृसिंह भगवान की मूर्ति को अपने सिक्कों तथा ध्वजों पर राज्य-चिह्न के रूप में स्थान दिया था