Sunday, May 23, 2010

दस महाविद्या

 महाकाली मंत्र 
ऊं ए क्लीं ह्लीं श्रीं ह्सौ: ऐं ह्सौ: श्रीं ह्लीं क्लीं ऐं जूं क्लीं सं लं श्रीं र: अं आं इं ईं उं ऊं ऋं ऋं लं लृं एं ऐं ओं औं अं अ: ऊं कं खं गं घं डं ऊं चं छं जं झं त्रं ऊं टं ठं डं ढं णं ऊं तं थं दं धं नं ऊं पं फं बं भं मं ऊं यं रं लं वं ऊं शं षं हं क्षं स्वाहा। 

विधि 
यह महाकाली का उग्र मंत्र है। इसकी साधना विंध्याचल के अष्टभुजा    पर्वत पर त्रिकोण में स्थित काली खोह में करने से शीघ्र सिद्धि होती है अथवा श्मशान में भी साधना की जा सकती है, लेकिन घर में साधना नहीं करनी चाहिए। जप संख्या 1100 है, जिन्हें 90 दिन तक अवश्य करना चाहिए। दिन में महाकाली की पंचोपचार पूजा करके यथासंभव फलाहार करते हुए निर्मलता, सावधानी, निभीर्कतापूर्वक    जप करने से महाकाली सिद्धि प्रदान करती हैं। इसमें होमादि की आवश्यकता नहीं होती।

फल 

यह मंत्र सार्वभौम है। इससे सभी प्रकार के सुमंगलों, मोहन, मारण, उच्चाटनादि तंत्रोक्त षड्कर्म की सिद्धि होती है।

तारा 



ऊं ह्लीं आधारशक्ति तारायै पृथ्वीयां नम: पूजयीतो असि नम:

इस मंत्र का पुरश्चरण 32 लाख जप है। जपोपरांत होम द्रव्यों से होम करना चाहिए।

फल 

सिद्धि प्राप्ति के बाद साधक को तर्कशक्ति, शास्त्र ज्ञान, बुद्धि कौशल आदि की प्राप्ति होती है।

भुवनेश्वरी 



ह्लीं 

अमावस्या को लकड़ी के पटरे पर उक्त मंत्र लिखकर गर्भवती स्त्री को दिखाने से उसे सुखद प्रसव होता है। गले तक जल में खड़े होकर, जल में ही सूर्यमंडल को देखते हुए तीन हजार बार मंत्र का जप करने वाला मनोनुकूल कन्या का वरण करता है। अभिमंत्रित अन्न का सेवन करने से लक्ष्मी की वृद्धि होती है। कमल पुष्पों से होम करने पर राजा का वशीकरण होता है।













त्रिपुर सुंदरी 


मंत्र

श्रीं ह्लीं क्लीं एं सौ: ऊं ह्लीं श्रीं कएइलह्लीं हसकहलह्लीं संकलह्लीं सौ: एं क्लीं ह्लीं श्रीं

विधि 

इस मंत्र का पुरश्चरण एक लाख जप है। जप के पश्चात त्रिमधुर (घी, शहद, शक्कर) मिश्रित कनेर के पुष्पों से होम करना चाहिए।

फल 

कमल पुष्पों के होम से धन व संपदा प्राप्ति, दही के होम से उपद्रव नाश, लाजा के होम से राज्य प्राप्ति, कपूर, कुमकुम व कस्तूरी के होम से कामदेव से भी अधिक सौंदर्य की प्राप्ति होती है। अंगूर के होम से वांछित सिद्धि व तिल के होम से मनोभिलाषा पूर्ति व गुग्गुल के होम से दुखों का नाश होता है। कपूर के होमत्व से कवित्व शक्ति    आती है।



                                                              
                                                       छिन्नमस्ता 




ऊं श्रीं ह्लीं ह्लीं वज्र वैरोचनीये ह्लीं ह्लीं फट् स्वाहा

इस मंत्र का पुरश्चरण चार लाख जप है। जप का दशांश होम पलाश या बिल्व फलों से करना चाहिए।
तिल व अक्षतों के होम से सर्वजन वशीकरण, स्त्री के रज से होम करने पर आकर्षण, श्वेत कनेर पुष्पों से होम करने से रोग मुक्ति, मालती पुष्पों के होम से वाचासिद्धि व चंपा के पुष्पों से होम करने पर सुख-समृद्धि की प्राप्ति होती है।









धूमावती 




मंत्र 

ऊं धूं धूं धूमावती स्वाहा

इस मंत्र का पुरश्चरण एक लाख जप है। जप का दशांश तिल मिश्रित घृत से होम करना चाहिए।
नीम की पत्ती व कौए के पंख पर उक्त मंत्र खओ 108 बार पढ़कर देवता का नाम लेते हुए धूप दिखाने से शत्रुओं में    परस्पर विग्रह होता है।











बगलामुखी 




ऊं ह्लीं बगलामुखि सर्वदुष्टानां वाचं मुखं पदं स्तंभय जिव्हां कीलय बुद्धिं विनाशय ह्लीं ऊं स्वाहा

इस मंत्र का पुरश्चरण एक लाख जप है। जपोपरांत चंपा के पुष्प से दशांश होम करना चाहिए। इस साधना में पीत वर्ण की महत्ता है। इंद्रवारुणी की जड़ को सात बार अभिमंत्रित करके पानी में डालने से वर्षा का स्तंभन होता है। सभी मनोरथों की पूर्ति के लिए एकांत में एक लाख बार मंत्र का जप करें। शहद व शर्करायुत तिलों से होम करने पर वशीकरण, तेलयुत नीम के पत्तों से होम करने पर हरताल, शहद, घृत व शर्करायुत लवण से होम    करने पर आकर्षण होता है।





मातंगी 


ऊं ह्लीं एं श्रीं नमो भगवति उच्छिष्ट चांडालि श्रीमातंगेश्वरि सर्वजन वंशकरि स्वाहा

इस मंत्र का पुरश्चरण दस हजार जप है। जप का दशांश शहद व महुआ के पुष्पों से होम करना चाहिए। काम्य प्रयोग से पूर्व एक हजार बार मूलमंत्र का जाप करके पुन: शहदयुक्त महुआ के पुष्पों से होम करना चाहिए। पलाश के पत्तों या पुष्पों के होम से वशीकरण, मल्लिका के पुष्पों के होम से लाभ, बिल्व पुष्पों से राज्य प्राप्ति, नमक से आकर्षण होता है।











कमला 




ऊं नम: कमलवासिन्यै स्वाहा

दस लाख जप करें। दशांश शहद, घी व शर्करा युक्त लाल कमलों से होम करें, तो सभी कामनाएं पूर्ण होंगी। समुद्र से गिरने वाली नदी के जल में आकंठ जप करने पर सभी प्रकार की संपदा मिलती है।

















महालक्ष्मी 




ऊं श्रीं ह्लीं श्रीं कमले कमलालयै प्रसीद प्रसीद ऊं श्रीं ह्लीं श्रीं महालक्ष्मयै नम:

एक लाख बार जप करें। शहद, घी व शर्करायुक्त बिल्व फलों से दशांश होम करने से साधक के घर में लक्ष्मी वास    करती है। यदि किसी को अधिक धन की प्रबल कामना हो, तो वह सत्य वाचन करे, लक्ष्मी मंत्र व श्रीसूक्त का पाठ व मंत्र करे। पूर्वाभिमुख होकर भोजन करे व वार्तादि भी पूर्वाभिमुख होकर करे। जल में नग्न होकर स्नान न करें। तेल मलकर भोजन करें। अनावश्यक रूप से भू-खनन न करें।    

दुर्गा जी का दशाक्षर मंत्र

दुर्गा जी की सिद्ध साधनाओं में एक यह भी बहुत प्रसिद्ध और प्रभावशाली मंत्र साधना है। दस अक्षरों से रचित होने के कारण दशाक्षर मंत्र कहलाता है।
मंत्र - ॐ दुर्गे दुर्गे रक्षिणि ठ: ठ: स्वाहा।
साधना विधि - किसी भी शुभ मुहूर्त में यह साधना आरंभ की जा सकती है। दुर्गा जी की प्रतिमा, या चित्र का पूजन करके नित्य इस मंत्र का जप सिद्धि के लिये एक लाख पच्चीस हजार 40 दिन में है। परन्तु नवरात्रों में 9 दिन में 24,000 मंत्र तथा ग्रहण काल में 40 माला का जप ही पर्याप्त होता है। जप से पहले दुर्गा जी की पंचोपचार, अष्टोपचार अथवा षोडोशोपचार पूजा करके, अंगन्यास, करन्यास, हृदयादिन्यास करना चाहिये। आज के युग में व्यक्ति इतना स्थिर और क्लांत है कि वह शास्त्रीय पद्धति से जटिल साधनाएं नहीं कर सकता। ऐसी स्थिति में साधक श्रद्धा भाव से, देवी जी की साधना को निर्विघ्ता, सुरक्षा, शांति और सफलता प्राप्ति के लिये अपनी भाषा में मौन निवेदन कर ले, तो भी अवश्य कल्याण होता है। परन्तु सविधि जप अनुष्ठान उत्तम होगा।
करन्यास -
ॐ दुर्गे अंगुष्ठाभ्यां नम:।
(मंत्र पढ़ते हुये अंगुष्ठ का स्पर्श करें।)
ॐ दुर्गे तर्जनीभ्यां स्वाहा।
(मंत्र पढ़ते हुये तर्जनी का स्पर्श करें।)
ॐ दुर्गे मध्यमाभ्यां वौषट्।
(मंत्र पढ़ते हुए मध्यमा का स्पर्श करें।)
ॐ भूरक्षिणी अनामिकाभ्यां हुँ।
(मंत्र पढ़ते हुए अनामिका का स्पर्श करें।)
ॐ दुर्गे दुर्गे रक्षिणी अस्त्राय फट्।
(मंत्र पढ़ते हुये कनिष्ठिका का स्पर्श करें।)
शास्त्रीय पद्धति यह है कि प्रत्येक साधन में सभी न्यास अंगन्यास, कर हृदय आदि न्यास अवश्य किये जायें। यह नियमावली इतनी जटिल है कि सामान्य गृहस्थ जो प्राय: अशिक्षित या अल्प शिक्षित होता है। यह न्यासादि की बाध्यता को पूरी नहीं कर सकता।
गुरु तथा देवी के चरणों में अपने आपको पूर्ण रूप से समर्पित कर दे और क्रियाओं को न कर मानसिक रूप से क्षमा प्रार्थना करते हुए जप की प्रक्रिया आरंभ करे। अर्थात यदि अपने शब्दों में देवता की स्तुति करके, निर्विघ् साधना के लिये प्रार्थना की ली जाये और शुद्ध पवित्र स्थान पर एकाग्रचित बैठकर मंत्र, का जप किया जा सके, तो भी साधना फलीभूत होती है। वस्तुत: देवता श्रद्धा ही चाहते हैं शेष सभी उपचारों का उनकी दृष्टि में कोई महत्व नहीं। वास्तव में न्यासादि शारीरिक क्रियायें हैं - यह योग साधन के संक्षिप्त रूप हैं, इनसे शारीरिक व मानसिक संतुलन और शुचिता की स्थिति बनी रहती है।
इस दुर्गा साधना में प्रयुक्त होने वाले श्री सिद्ध दुर्गा यंत्र को दुर्गा जी के चित्र या प्रतिमा के साथ स्थापित कर लें और फिर रक्त चंदन की माला से मंत्र जप आरंभ करे दें। मंत्र जप की समाप्ति पर पुन: दुर्गा स्तुति अथवा श्री दुर्गायै नम: का ग्यारह बार जप करके प्रणाम करना चाहिये।

Sunday, May 09, 2010

नवरात्रि शक्ति साधना


परिचय:- नवरात्रि शक्ति साधना का महापर्व है। वैसे तो पूरे वर्ष में चार नवरात्र- चैत्र, आषाढ़, आश्विन और माघ की शुक्ल पक्ष प्रतिपदा तिथि से नवमी तिथि तक नौ दिन के होते है, किन्तु प्रसिद्धि में चैत्र और आश्विन के नवरात्र है। शीत एवं ग्रीष्म ऋतु के मिलन का यह संधिकाल वर्ष में दो बार आता है। चैत्र से मौसम शीत से बदलकर गर्मी का रूप क्रमश: लेता है और आश्विन मेंगर्मी से शीत ऋतु की ओर बढता चला जाता है। शरीर एवं मन की विकारो का निष्कासन एवं परिशोधन इस संधि वेला में सहज रूप से होता है। नवरात्र भी प्रकृति जगत में ऋतुओं का संधिकाल है। यह अवधि नौ दिनों की होती है। पृथ्वी की गति मंद पड़ जाती है। योग साधना एवं मन की चेतना के परिमार्जन, परिशोधन हेतु यह अवधि अत्यधिक महत्वपूर्ण है। हिन्दु संस्कृति में इस संधिकाल में नौ दिनों का व्रत-काल निश्चित किया गया है ताकि शरीर आने वाली ऋतु के अनुसार ढ़ल सके और जरा-व्याधि का उस पर कोई प्रभाव न पडे।
मौसम परिवर्तन की इस कालावधि में समूची प्रकृति बदलने लगती है, जिसका सीधा प्रभाव हमारे शरीर पर पड़ता है। कफ, पित एवं वायु तत्व की संतुलन बिगड़ने लगता है, यही कारण है कि ऋतुओं के इस संधिकाल मे बिमारियाँ बढ़ जाती है। अतएव नौ दिनो तक जब हम आहार-विहार में संयम बरतते हुए पूजा के नियमों का पालन करते है, मानसिक रूप से संयमित जीवन व्यतीत करते है तो प्रकृति स्वत: शरीर एवं मन को स्वस्थ रखने में सहयोग करती है। नवरात्री अनुष्ठान की परिभाषा देते हुए भी कहा गया है-

”नव शक्तिभि: संयुक्तं नवरात्रं तदुच्यते”
अर्थात देवी की नवधा शक्ति जिस समय एक महाशक्ति का रूप धारण करती है उसे ही नवरात्रि कहते है। नवरात्रि नवनिर्माण के लिए होती है चाहे आध्यात्मिक हो या भौतिक। आदिकाल से ही मनुष्य की प्रकृति शक्ति साधना की रही है। शक्ति साधना का प्रथम रूप दुर्गा ही मानी जाती है। मनुष्य तो क्या देवी-देवता, यक्ष-किन्नर भी अपने संकट निवारण के लिए मॉ दुर्गा को ही पुकारते है। इस सौभाग्य के सामने पैसा, धन-दौलत, समय या वयस्तता तुच्छ है क्योंकि कल किसने देखा है? हम सभी ने अपनी किस्मत को, भाग्य को कोसते हुए बहुतो को देखा होगा। जब कभी सफलता नहीं मिलती तो भाग्य खराब है, भाग्य मे नहीं लिखा है, भाग्य साथ नहीं दे रहा है आदि बातें कही जाती है। किंतु वास्तव मे भाग्य क्या है....मात्र एक अवसर। जो हर किसी को उपलब्ध होता है लेकिन अज्ञानतावश वह अवसर खो देना ही दुर्भाग्य है। ऑखे सबके माथे में जड़ी होती है, पर विवेक दृष्टि सौभाग्यवानो को ही मिलती है। समय सबके लिए समान होता है। सूरज किसी की पैतृक सम्पति नहीं है वह सबका है और वही पूरी दुनिया की घड़ी है। जिस प्रकार बरसते हुए जल मे से वही आपके काम का होता है जितना पानी आप घड़े या किसी बरतन मे इकठ्ठा कर लेते है। ठीक इसी प्रकार समय के साथ भी होता है। आप और मै उसके जितने हिस्से को रोक लेते है अर्थात जितने हिस्से का उपयोग कर लेते है, उतना हमारा हो जाता है। आप समय के होइये, समय आपका हो जायेगा। हमे हाथ आये अवसर का सम्मान करना होगा, उसे थाम लेना होगा।
अगर हमने आने वाली इस नवरात्रि के अवसर को थाम लिया तो ऐसी कोई शक्ति संसार में दूसरी नही जो आपको प्राप्त होने वाले माता के अनुग्रह से दूर रख सके। उसकी कृपा और

आशीर्वाद से दूर रख सके। दुर्गा माँ की शक्ति के स्वरूप का ही पर्व नवरात्री है। अखिल ब्रह्माण्ड की महाशक्ति ऐश्वर्य व ज्ञान की अधिष्ठात्री माँ जगदम्बे के नौ रूपों की उपासना का दुर्लभ अवसर ही नवरात्रि है। प्रत्येक मनुष्य मे दैवी शक्ति छिपी हुई है और वह सब कुछ कर सकता है। इस शक्ति के बल पर अपनी परिस्थिति बदल सकता है। जिस प्रकार धन के बदले में अभीष्ट वस्तुयें खरीदी जा सकती है, उसी प्रकार समय के बदले मे भी विद्या, बुद्धि, लक्ष्मी, कीर्ति, आरोग्य, सुख-शांति, मुक्ति आदि जो भी रूचिकर हो खरीदी जा सकती है।
“या श्री: स्वयं सुकृतिनां भवनेष्व लक्ष्मी:,
पापात्मना कृतधियाँ हृदयेषु बुद्धि:।
श्रद्धा सतां कुलजन प्रभवस्य लज्जा,
तां त्वां नता: स्म परिपालय देविविश्वम॥“
अर्थात जो पुण्यात्माओ के घरो में स्वयं श्री लक्षमी के रूप में, पापियो के यहाँ दरिद्रता रूप में, शुद्ध अंत:करण वाले व्यक्तियों के हृदय मे सदबुद्धि रूप में, सतपुरूषो में श्रद्धा रूप में, कुलीन व्यक्तियों मे लज्जा रूप मे निवास करती है। उसी भगवती दुर्गा को हम सभी नमस्कार करते है। हे देवी आप ही विश्व का पालन पोषण कीजिये।

“ॐ नमो दैव्यै महादैव्यै शिवायै सततं नम:॥
नम: प्रकृत्यै भद्रायै नियता: प्रणता: स्मताम॥“
देवी के नौ रूप:- माँ भक्त वत्सला और अजय है, अतएव जो भक्त दुर्गासप्तशती(तंत्र का सर्वोतम ग्रंथ) का उचित ढ़ंग से अध्यन और चिंतन मनन करके हृदयंगम कर लिया तो समझिए फिर उसे तंत्र की कोई पुस्तक पढ़ने की कोई आवश्यकता नहीं है। दुर्गासप्तशती अपने आप में सम्पूर्ण ग्रंथ, सम्पूर्ण पुराण एवं सम्पूर्ण वेद है। तीनो लोको में माँ का सहारा सर्वोत्तम है। देवी के नौ रूप निम्न है:- 
प्रथम शैलपुत्री:-

1st
इनके ध्यान का मंत्र है:-
वन्दे वांछित लाभाय चन्द्रार्द्वकृत शेखराम।
वृषारूढ़ा शूलधरां शैलपुत्री यशस्विनीम॥

गिरिराज हिमालय की पुत्री होने के कारण भगवती का प्रथम स्वरूप शैलपुत्री का है, जिनकी आराधना से प्राणी सभी मनोवांछित फल प्राप्त कर लेता है।
द्वितीय ब्रह्मचारिणी:-

2nd
इनके ध्यान का मंत्र है:-


“दधना कर पद्याभ्यांक्षमाला कमण्डलम।
देवी प्रसीदमयी ब्रह्मचारिण्यनुत्तमा॥“
जो दोनो कर-कमलो मे अक्षमाला एवं कमंडल धारण करती है। वे सर्वश्रेष्ठ माँ भगवती ब्रह्मचारिणी मुझसे पर अति प्रसन्न हों। माँ ब्रह्मचारिणी सदैव अपने भक्तो पर कृपादृष्टि रखती है एवं सम्पूर्ण कष्ट दूर करके अभीष्ट कामनाओ की पूर्ति करती है।
तृतीय चन्द्रघण्टा:-
3rd
इनके ध्यान का मंत्र है:-
”पिण्डजप्रवरारूढ़ा चण्डकोपास्त्रकैयुता।
प्रसादं तनुते मद्यं चन्द्रघण्टेति विश्रुता॥“
इनकी आराधना से मनुष्य के हृदय से अहंकार का नाश होता है तथा वह असीम शांति की प्राप्ति कर प्रसन्न होता है। माँ चन्द्रघण्टा मंगलदायनी है तथा भक्तों को निरोग रखकर उन्हें वैभव तथा ऐश्वर्य प्रदान करती है। उनके घंटो मे अपूर्व शीतलता का वास है।


चर्तुकम कुष्माण्डा:-
4th
इनके ध्यान का मंत्र है:-
”सुरासम्पूर्णकलशं रूधिराप्लुतमेव च।
दधानाहस्तपद्याभ्यां कुष्माण्डा शुभदास्तु में॥“
इनकी आराधना से मनुष्य त्रिविध ताप से मुक्त होता है। माँ कुष्माण्डा सदैव अपने भक्तों पर कृपा दृष्टि रखती है। इनकी पूजा आराधना से हृदय को शांति एवं लक्ष्मी की प्राप्ति होती हैं।

पंचम स्कन्दमाता :-
5th
इनके ध्यान का मंत्र है:-
“सिंहासनगता नित्यं पद्याञ्चितकरद्वया।
शुभदास्तु सदा देवी स्कन्दमाता यशस्विनी॥“
इनकी आराधना से मनुष्य सुख-शांति की प्राप्ति करता है। सिह के आसन पर विराजमान तथा कमल के पुष्प से सुशोभित दो हाथो वाली यशस्विनी देवी स्कन्दमाता शुभदायिनी है।

षष्ठ कात्यायनी :-
6th
इनके ध्यान का मंत्र है:-
“चन्द्रहासोज्जवलकरा शार्दूलावरवाहना।
कात्यायनी शुभं दद्यादेवी दानव घातिनी॥“
इनकी आराधना से भक्त का हर काम सरल एवं सुगम होता है। चन्द्रहास नामक तलवार के प्रभाव से जिनका हाथ चमक रहा है, श्रेष्ठ सिंह जिसका वाहन है, ऐसी असुर संहारकारिणी देवी कात्यायनी कल्यान करें।

सप्तम कालरात्री:-
7th
इनके ध्यान का मंत्र है:-
“एकवेणी जपाकर्णपूरा नग्ना खरास्थिता।
लम्बोष्ठी कर्णिकाकर्णी तैलाभ्यक्तशरीरिणी॥
वामपादोल्लसल्लोहलताकण्टक भूषणा।
वर्धन्मूर्धध्वजा कृष्णा कालरात्रिर्भयंकरी॥“
संसार में कालो का नाश करने वाली देवी ‘कालरात्री’ ही है। भक्तों द्वारा इनकी पूजा के उपरांत उसके सभी दु:ख, संताप भगवती हर लेती है। दुश्मनों का नाश करती है तथा मनोवांछित फल प्रदान कर उपासक को संतुष्ट करती हैं।

अष्टम महागौरी:-
8th
इनके ध्यान का मंत्र है:-
“श्वेत वृषे समारूढ़ा श्वेताम्बर धरा शुचि:।
महागौरी शुभं दद्यान्महादेव प्रमोददा॥“
माँ महागौरी की आराधना से किसी प्रकार के रूप और मनोवांछित फल प्राप्त किया जा सकता है। उजले वस्त्र धारण किये हुए महादेव को आनंद देवे वाली शुद्धता मूर्ती देवी महागौरी मंगलदायिनी हों।

नवम सिद्धिदात्री:-
9th
इनके ध्यान का मंत्र है:-
“सिद्धगंधर्वयक्षादौर सुरैरमरै रवि।
सेव्यमाना सदाभूयात सिद्धिदा सिद्धिदायनी॥“
सिद्धिदात्री की कृपा से मनुष्य सभी प्रकार की सिद्धिया प्राप्त कर मोक्ष पाने मे सफल होता है। मार्कण्डेयपुराण में अणिमा, महिमा, गरिमा, लघिमा, प्राप्ति, प्राकाम्य, ईशित्व एवं वशित्वये आठ सिद्धियाँ बतलायी गयी है। भगवती सिद्धिदात्री उपरोक्त संपूर्ण सिद्धियाँ अपने उपासको को प्रदान करती है। माँ दुर्गा के इस अंतिम स्वरूप की आराधना के साथ ही नवरात्र के अनुष्ठान का समापन हो जाता है।

दुर्गा सप्तशती:- दुर्गा सप्तशती अपने आपमें एक अदभुत तंत्र ग्रंथ है। महाकाली, महालक्ष्मी और महासरस्वती का संबंध क्रमश: ऋगवेद, यजुर्वेद और सामवेद से है। ये तीनो वेद तीनो महाशक्तियों का स्वरूप है। इसी प्रकार शाक्त तंत्र, शैव तंत्र और वैष्णव तंत्र उपरोक्त तीनो स्वरूप की अभिव्यक्ति हैं। अत: सप्तशती तीनो वेदो का प्रतिनिधित्व करता है। दुर्गा सप्तशती में (700) सात सौ प्रयोग है जो इस प्रकार है:- मारण के 90, मोहन के 90, उच्चाटन के दो सौ(200), स्तंभन के दो सौ(200), विद्वेषण के साठ(60) और वशीकरण के साठ(60)। इसी कारण इसे सप्तशती कहा जाता है। 

दुर्गा सप्तशती पाठ विधि:- 

नवरात्र घट स्थापना (ऐच्छिक):- नवरात्र का श्रीगणेश शुक्ल पतिपदा को प्रात:काल के शुभमहूर्त में घट स्थापना से होता है। घट स्थापना हेतु मिट्टी अथवा साधना के अनुकूल धातु का कलश लेकर उसमे पूर्ण रूप से जल एवं गंगाजल भर कर कलश के उपर (मुँह पर) नारियल(छिलका युक्त) को लाल वस्त्र/चुनरी से लपेट कर अशोक वृक्ष या आम के पाँच पत्तो सहित रखना चाहिए। पवित्र मिट्टी में जौ के दाने तथा जल मिलाकर वेदिका का निर्माण के पश्चात उसके उपर कलश स्थापित करें। स्थापित घट पर वरूण देव का आह्वान कर पूजन सम्पन्न करना चाहिए। फिर रोली से स्वास्तिक बनाकर अक्षत एवं पुष्प अर्पण करना चाहिए। 

कुल्हड़ में जौ बोना(ऐच्छिक):- नवरात्र के अवसर पर नवरात्रि करने वाले व्यक्ति विशेष शुद्ध मिट्टी मे, मिट्टी के किसी पात्र में जौ बो देते है। दो दिनो के बाद उसमे अंकुर फुट जाते है। यह काफी शुभ मानी जाती है। 

मूर्ति या तसवीर स्थापना(ऐच्छिक):- माँ दुर्गा, श्री राम, श्री कृष्ण अथवा हनुमान जी की मूर्ती या तसवीर को लकड़ी की चौकी पर लाल अथवा पीले वस्त्र(अपनी सुविधानुसार) के उपर स्थापित करना चाहिए। जल से स्नान के बाद, मौली चढ़ाते हुए, रोली अक्षत(बिना टूटा हुआ चावल), धूप दीप एवं नैवेध से पूजा अर्चना करना चाहिए। 

अखण्ड ज्योति(ऐच्छिक):- नवरात्र के दौरान लगातार नौ दिनो तक अखण्ड ज्योति प्रज्जवलित की जाती है। किंतु यह आपकी इच्छा एवं सुविधा पर है। आप केवल पूजा के दौरान ही सिर्फ दीपक जला सकते है। 

आसन:- लाल अथवा सफेद आसन पूरब की ओर बैठकर नवरात्रि करने वाले विशेष को पूजा, मंत्र जप, हवन एवं अनुष्ठान करना चाहिए। 

नवरात्र पाठ:- माँ दुर्गा की साधना के लिए श्री दुर्गा सप्तशती का पूर्ण पाठ अर्गला, कवच, कीलक सहित करना चाहिए।श्री राम के उपासक को राम रक्षा स्त्रोत’, श्री कृष्ण के उपासक को भगवद गीता एवं हनुमान उपासक कोसुन्दरकाण्ड आदि का पाठ करना चाहिए। 

भोगप्रसाद:- प्रतिदिन देवी एवं देवताओं को श्रद्धा अनुसार विशेष अन्य खाद्द्य पदार्थो के अलावा हलुए का भोग जरूर चढ़ाना चाहिए। 

कुलदेवी का पूजन:- हर परिवार मे मान्यता अनुसार जो भी कुलदेवी है उनका श्रद्धा-भक्ति के साथ पूजा अर्चना करना चाहिए। 

विसर्जन:- विजयादशमी के दिन समस्त पूजा हवन इत्यादि सामग्री को किसी नदी या जलाशय में विसर्जन करना चाहिए। 

पूजा सामग्री:- कुंकुम, सिन्दुर, सुपारी, चावल, पुष्प, इलायची, लौग, पान, दुध, घी, शहद, बिल्वपत्र, यज्ञोपवीत, चन्दन, इत्र, चौकी, फल, दीप, नैवैध(मिठाई), नारियल आदि।

मंत्र सहित पूजा विधि:- स्वयं को शुद्ध करने के लिए बायें हाथ मे जल लेकर, उसे दाहिने हाथ से ढ़क लें। मंत्रोच्चारण के साथ जल को सिर तथा शरीर पर छिड़क लें।


“ॐ अपवित्र: पवित्रो वा सर्वावस्थां गतोsपिवा।
य: स्मरेत पुंडरीकाक्षं स: बाह्य अभ्यंतर: शुचि॥
ॐ पुनातु पुण्डरीकाक्ष: पुनातु पुण्डरीकाक्ष पुनातु॥“


आचमन:- तीन बार वाणी, मन व अंत:करण की शुद्धि के लिए चम्मच से जल का आचमन करें। हर एक मंत्र के साथ एक आचमन किया जाना चाहिए।


ॐ अमृतोपस्तरणमसि स्वाहा।
ॐ अमृताविधानमसि स्वाहा।
ॐ सत्यं यश: श्रीमंयी श्री: श्रयतां स्वाहा।

प्राणायाम:- श्वास को धीमी गति से भीतर गहरी खींचकर थोड़ा रोकना एवं पुन: धीरे-धीरे निकालना प्राणायाम कहलाता है। श्वास खीचते समय यह भावना करे किं प्राण शक्ति एवं श्रेष्ठता सॉस के द्वारा आ रही है एवं छोड़ते समय यह भावना करे की समस्त दुर्गण-दुष्प्रवृतियां, बुरे विचार, श्वास के साथ बाहर निकल रहे है। प्राणायाम निम्न मंत्र के उच्चारण के उपरान्त करें:
ॐ भू: ॐ भुव: ॐ स्व: ॐ मह:।
ॐ जन: ॐ तप: ॐ सत्यम।
ॐ तत्सवितुर्ररेण्यं भर्गो देवस्य धीमही धियो यो न: प्रचोदयात।
ॐ आपोज्योतिरसोअमृतं बह्मभुर्भुव स्व: ॐ।

न्यास:- इसका प्रयोजन शरीर के सभी महत्वपूर्ण अंगो में पवित्रता का समावेश तथा अंत:चेतना को जगाना ताकि देवपूजन जैसा श्रेष्ठ कृत्य किया जा सके। बाए हाथ में(हथेली) जल लेकर दाहिने हाथ की पांचो अंगुलियों को उनमे भिगोकर बताए गए स्थान को मंत्रोचार के साथ स्पर्श करें।


ॐ वाड़मेsआस्येsस्तु। (मुख को)
ॐ नसोर्मेप्राणेsस्तु। (नासिका के दोनो छिद्रों को)
ॐ अक्ष्णोर्मेचक्षुरस्तु। (दोनो नेत्रो को)
ॐ कर्णयोर्मे श्रोत्रमस्तु। (दोनो कानो को)
ॐ बाह्वोर्मे बलमस्तु। (दोनो बाहो को)
ॐ उर्वोर्मेओजोsस्तु। (दोनो जंघाओं को)
ॐ अरिष्टानिमेsड़्गानि, तनूस्तंवा मे सहसन्तु। (समस्त शरीर को)


आसन शुद्धि:- आसन की शुद्धि के लिए धरती माता को स्पर्श करें।

ॐ पृथ्वित्वया घृता लोका देवि त्वं विष्णुना धृता:।
ॐ त्वं च धारय मां देवि पवित्रं कुरू चासनम॥


रक्षा विधान:- रक्षा विधान का अर्थ है जहाँ हम पूजा कर रहे है वहाँ यदि कोई आसुरी शक्तियाँ, मानसिक विकार आदि हो तो चले जायें, जिससे पूजा में कोई बाधा उपस्थित न हो। बाए हाथ मे पीली सरसो अथवा अक्षत लेकर दाहिने हाथ से ढ़क दें। निम्न मंत्र उच्चारण के पश्चात सभी दिशाओं में उछाल दें।

ॐ अपसर्पन्तु ते भूता: ये भूता:भूमि संस्थिता:।
ये भूता: बिघ्नकर्तारस्तेनश्यन्तु शिवाज्ञया॥
अपक्रामन्तु भूतानि पिशाचा: सर्वतो दिशम।
सर्वेषामविरोधेन पूजा कर्मसमारभ्भे॥


गणपति पूजन:- लकड़ी के पट्टे या चौकी पर सफेद वस्त्र बिछाकर उस पर एक थाली रखें। इस थाली में कुंकुम से स्वस्तिक का चिन्ह बनाकर उस पर पुष्प आसन लगाकर गण अपति की प्रतिमा या फोटो(तस्वीर) स्थापित कर दें या सुपारी पर लाल मौली बांधकर गणेश के रूप में स्थापित करना चाहिए। अब अक्षत, लाल पुष्प(गुलाब), दूर्वा(दुवी) एवं नेवैध गणेश जी पर चढ़ाना चाहिए। जल छोड़ने के पश्चात निम्न मंत्र का 21 बार जप करना चाहिए:-

“ॐ गं गणपतये नम:”

मंत्रोच्चारण के पश्चात अपनी मनोकामना पूर्ती हेतु निम्न मंत्र से प्रार्थना करें:-

विध्नेश्वराय वरदाय सुरप्रियाय।
लम्बोदराय सकलाय जगद्विताय॥
नागाननाय श्रुति यज्ञ विभूषिताय।
गौरी सुताय गण नाथ नमो नमस्ते॥
भक्तार्त्तिनाशन पराय गणेश्वराय।
सर्वेश्वराय शुभदाय सुरेश्वराय॥
विद्याधराय विकटाय च वामनाय।
भक्त प्रसन्न वरदाय नमो नमस्ते॥


संकल्प:- दाहिने हाथ मे जल, कुंकुम, पुष्प, चावल साथ मे ले

“ॐ विष्णु र्विष्णु: श्रीमद्भगवतो विष्णोराज्ञाया प्रवर्तमानस्य, अद्य, श्रीबह्मणो द्वितीय प्ररार्द्धे श्वेत वाराहकल्पे जम्बूदीपे भरत खण्डे आर्यावर्तैक देशान्तर्गते, मासानां मासोत्तमेमासे (अमुक) मासे (अमुक) पक्षे (अमुक) तिथौ (अमुक) वासरे (अपने गोत्र का उच्चारण करें) गोत्रोत्पन्न: (अपने नाम का उच्चारण करें) नामा: अहं (सपरिवार/सपत्नीक) सत्प्रवृतिसंवर्धानाय, लोककल्याणाय, आत्मकल्याण्य, ...........(अपनी कामना का उच्चारण करें) कामना सिद्दयर्थे दुर्गा पूजन विद्यानाम तथा साधनाम करिष्ये।“

जल को भूमि पर छोड़ दे। अगर कलश स्थापित करना चाहते है तो अब इसी चौकी पर स्वास्तिक बनाकर बाये हाथ की ओर कोने में कलश(जलयुक्त) स्थापित करें। स्वास्तिक पर कुकंम, अक्षत, पुष्प आदि अर्पित करते हुए कलश स्थापित करें। इस कलश में एक सुपारी कुछ सिक्के, दूब, हल्दी की एक गांठ डालकर, एक नारियल पर स्वस्तिक बनाकर उसके उपर लाल वस्त्र लपेटकर मौली बॉधने के बाद कलश पर स्थापित कर दें। जल का छींटा देकर, कुंकम, अक्षत, पुष्प आदि से नारियल की पूजा करे। वरूण देव को स्मरण कर प्रणाम करे। फिर पुरब, पश्चिम, उत्तर एवं दक्षिण में(कलश मे) बिन्दी लगाए। अब एक दूसरी स्वच्छ थाली में स्वस्तिक बनाकर उस पर पुष्प का आसन लगाकर दुर्गा प्रतिमा या तस्वीर या यंत्र को स्थापित करें। अब निम्न प्रकार दुर्गा पूजन करे:-

स्नानार्थ जलं समर्पयामि (जल से स्नान कराए)
स्नानान्ते पुनराचमनीयं जल समर्पयामि (जल चढ़ाए)
दुग्ध स्नानं समर्पयामि (दुध से स्नान कराए)
दधि स्नानं समर्पयामि (दही से स्नान कराए)
घृतस्नानं समर्पयामि (घी से स्नान कराए)
मधुस्नानं समर्पयामि (शहद से स्नान कराए)
शर्करा स्नानं समर्पयामि (शक्कर से स्नान कराए)
पंचामृत स्नानं समर्पयामि (पंचामृत से स्नान कराए)
गन्धोदक स्नानं समर्पयामि (चन्दन एवं इत्र से सुवासित जल से स्नान करावे)
शुद्धोदक स्नानं समर्पयामि (जल से पुन: स्नान कराए)
यज्ञोपवीतं समर्पयामि (यज्ञोपवीत चढ़ाए)
चन्दनं समर्पयामि (चंदन चढ़ाए)
कुकंम समर्पयामि (कुकंम चढ़ाए)
सुन्दूरं समर्पयामि (सिन्दुर चढ़ाए)
बिल्वपत्रै समर्पयामि (विल्व पत्र चढ़ाए)
पुष्पमाला समर्पयामि (पुष्पमाला चढ़ाए)
धूपमाघ्रापयामि (धूप दिखाए)
दीपं दर्शयामि (दीपक दिखाए व हाथ धो लें)
नैवेध निवेद्यामि (नेवैध चढ़ाए(निवेदित) करे)
ऋतु फलानि समर्पयामि (फल जो इस ऋतु में उपलब्ध हो चढ़ाए)
ताम्बूलं समर्पयामि (लौंग, इलायची एवं सुपारी युक्त पान चढ़ाए)
दक्षिणा समर्पयामि (दक्षिणा चढ़ाए)

इसके बाद कर्पूर अथवा रूई की बाती जलाकर आरती करे। 

आरती के नियम:- प्रत्येक व्यक्ति जानकारी के अभाव में अपनी मन मर्जी आरती उतारता रहता है। विशेष ध्यान देने योग्य बात है कि देवताओं के सम्मुख चौदह बार आरती उतारना चाहिए। चार बार चरणो पर से, दो बार नाभि पर से, एकबार मुख पर से तथा सात बार पूरे शरीर पर से। आरती की बत्तियाँ 1,5,7 अर्थात विषम संख्या में ही बत्तियाँ बनाकर आरती की जानी चाहिए। 

दुर्गा जी की आरती:-
जय अम्बे गौरी, मैया जय श्यामा गौरी।
तुमको निशिदिन ध्यावत हरि ब्रह्मा शिव री ॥1॥ जय अम्बे....
माँग सिंदुर विराजत टीको मृगमदको।
उज्ज्वल से दोउ नैना, चन्द्रवदन नीको ॥2॥ जय अम्बे....
कनक समान कलेवर रक्ताम्बर राजै।
रक्त-पुष्प गल माला, कण्ठनपर साजै ॥3॥ जय अम्बे....
केहरी वाहन राजत, खड्ग खपर धारी।
सुर-नर-मुनि-जन सेवत, तिनके दुखहरी ॥4॥ जय अम्बे....
कानन कुण्डल शोभित, नासाग्रे मोती।
कोटिक चन्द्र दिवाकर, सम राजत ज्योती ॥5॥ जय अम्बे....
शुभ्भ निशुभ्भ विदारे, महिषासुर-धाती।
धूम्रविलोचन नैना निशिदिन मदमाती ॥6॥ जय अम्बे....
चण्ड मुण्ड संहारे, शोणितबीज हरे।
मधु कैटभ दोउ मारे, सुर भयहीन करे ॥7॥ जय अम्बे....
ब्रह्माणी, रूद्राणी तुम कमलारानी।
आगम-निगम-बखानी, तुम शिव पटरानी ॥8॥ जय अम्बे....
चौसठ योगिनि गावत, नृत्य करत भैरूँ।
बाजत ताल मृदंगा औ बाजत डमरू ॥9॥ जय अम्बे....
तुम ही जग की माता, तुम ही हो भरता।
भक्तन की दुख हरता सुख सम्पति करता ॥10॥ जय अम्बे....
भुजा चार अति शोभित, वर मुद्रा धारी।
मनवाञ्छित फल पावत, सेवत नर-नारी ॥11॥ जय अम्बे....
कंचन थाल विराजत, अगर कपुर बाती।
(श्री) मालकेतु में राजत कोटिरतन ज्योती ॥12॥ जय अम्बे....
(श्री) अम्बेजी की आरती जो कोई नर गावै।
कहत शिवानंद स्वामी, सुख सम्पति पावै ॥13॥ जय अम्बे....


प्रदक्षिणा:-
“यानि कानि च पापानी जन्मान्तर कृतानि च।
तानी सर्वानि नश्यन्तु प्रदक्षिणपदे पदे॥
प्रदक्षिणा समर्पयामि।“

प्रदक्षिणा करें (अगर स्थान न हो तो आसन पर खड़े-खड़े ही स्थान पर घूमे)

क्षमा प्रार्थना:- पुष्प सर्मपित कर देवी को निम्न मंत्र से प्रणाम करे।


“नमो दैव्यै महादेव्यै शिवायै सततं नम:।
नम: प्रकृतयै भद्रायै नियता: प्रणता: स्मताम॥
या देवी सर्व भूतेषु मातृरूपेण संस्थिता।
नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमस्तस्यै नमो नम:॥

ततपश्चात देवी से क्षमा प्रार्थना करे कि जाने अनजाने में कोई गलती या न्यूनता-अधिकता यदि पूजा में हो गई हो तो वे क्षमा करें। इस पूजन के पश्चात अपने संकल्प मे कहे हुए मनोकामना सिद्धि हेतु निम्न मंत्र का यथाशक्ति श्रद्धा अनुसार 9 दिन तक जप करें:-

”ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चे॥“


इस मंत्र के बाद दुर्गा सप्तशती के सभी अध्यायो का पाठ 9 दिन मे पूर्ण करें। 

नवरात्री की समाप्ति पर यदि कलश स्थापना की हो तो इसके जल को सारे घर मे छिड़क दें। इस प्रकार पूजा सम्पन्न होती है। यदि कोई व्यक्ति विशेष उपरांकित विधि का पालन करने मे असमर्थ है तो नवरात्रि के दौरान दुर्गा चालीसा का पाठ करें। 

सावधानियाँ:-
- पूजा से संबंधित सामाग्री पूजा स्थान पर पहले ही रख लें।
- धुले हुए साफ वस्त्र अपए पहनने के लिए हमेशा तैयार रखे।
- पूजा की चौकी पूजा स्थान पर धो कर पूजा से पहले रख ले।
- नवरात्री के दौरान दिन-रात मिलाकर एक समय भोजन करना चाहिए या फलाहार करें।
- जाप या तो कर माला से करें या जप माला संभाल कर रखे।
- साधक को सफेद/लाल/पीले वस्त्र के दौरान पहनना चाहिए।
- नवरात्री के दौरान बाल न कटवाए।
- नवरात्री में व्यर्थ वाद-विवाद, कहानी-किस्से की पुस्तके एवं फिल्म आदि से दूर रहना चाहिए।
- सम्पूर्ण पूजा के दौरान जप को माँ दुर्गा के चरणो मे समर्पित करे।
- विजयादशमी के दिन पूजा मे प्रयुक्त सभी सामग्री को कुछ दक्षिणा एवं पुष्प सहित दुर्गा मंदिर मे चढ़ा दे या नदी मे प्रवाहित करना चाहिए।