श्रीसूतजी बोले-
मैत्रेयजीने नित्यकर्मोंसे निवृत्त हुए मुनिवर पराशरजीको प्रणाम कर एवं उनके चरण छूकर पूछा ॥१॥
"हे गुरुदेव ! मैंने आपहीसे सम्पूर्ण वेद, वेदांग और सकल धर्मशास्त्रोंका क्रमशः अध्ययन किया है ॥२॥
हे मुनिश्रेष्ठ ! आपकी कृपासे मेरे विपक्षी भी मेरे लिये यह नहीं कह सकेंगे कि 'मैंने सम्पूर्ण शास्त्रोंकें अभ्यासकें परिश्रम नहीं किया' ॥३॥
हे धर्मज्ञ ! हे महाभाग ! अब मैं आपके मुखारविन्दसे यह सुनना चाहता हूँ कि यह जगत् किस प्रकार उप्तन्न हुआ और आगे भी ॥ (दुसरे कल्पके आरम्भमें ) कैसे होगा ? ॥४॥
तथा हे ब्रह्मन् ! इस संसारका उपादान- कारण क्या है ? यह सम्पूर्ण चराचर किससे उप्तन्न हुआ है ? यह पहले किसमें लीन था और आगे किसमें लीन हो जायगा ? ॥५॥
इसके अतिरिक्त ( आकाश आदि ) भूतोंका परिमाण, समुद्र, पर्वत तथा देवता आदिकी उप्तत्ति, पृथिवीका अधिष्ठान और सूर्य आदिका परिमाण तथा उनका आधार, देवता आदिके वंश, मनु, मन्वन्तर, ( बार-बार आनेवाले ) चारों युगोंमें विभक्त कल्प और कल्पोंकें विभाग, प्रलयका स्वरूप, युगोंकें पृथक् - पृथक् सम्पूर्ण धर्म, देवार्षि और राजर्षियोंके चरित्र, श्रीव्यासजीकृत वैदिक शाखाओंकी यथावत् रचना तथा ब्रह्माणादि वर्ण और ब्रह्माचर्यादि आश्रमोंके धर्म - ये सब, हे महामुनि शक्तिनन्दन ! मैं आपसे सुनना चाहता हूँ ॥६-१०॥
हे ब्रह्मण ! आप मेरे प्रति अपना चित्त प्रसादोन्मुख कीजिये जिससे हे महामुने ! मैं आपकी कृपासे यह सब जान सकूँ" ॥११॥
श्रीपराशरजी बोले -
"हे धर्मज्ञ मैत्रेय ! मेरे पिताजीके पिता श्रीवसिष्ठजीने जिसका वर्णन किया था, उस पूर्व प्रसंगका तुमने मुझे अच्छा स्मरण कराया- ( इसके लिये तुम धन्यवादके पात्र हो ) ॥१२॥
हे मैत्रेय ! जब मैनें सुना कि पिताजीको विश्वामित्रकी प्रेरणासे राक्षसने खा लिया है, तो मुझको बडा़ भारी क्रोध हुआ ॥१३॥
तब राक्षसोंका ध्वंस करनेके लिये मैंने यज्ञ करना आरम्भ किया ॥ उस यज्ञमें सैकडों राक्षस जलकर भस्म हो गये ॥१४॥
इस प्रकार उन राक्षसोंको सर्वथा नष्ट होते देख मेरे महाभाग पितामय वसिष्ठजी मुझसे बोले ॥१५॥
" हे वत्स ! अत्यन्त क्रोध कर्ना ठीक नहीं, अब इसे शान्त करो । राक्षसोंका कुछ भी अपराध नहीं है, तुम्हारे पिताके लिये तो ऐसा ही होना था ॥१६॥
क्रोध तो मूर्खोंका ही हुआ करता है, विचारवानोंको भला कैसे हो सकता है ? भैया ! भला कौन किसीको मारता है ? पुरुष स्वयं ही अपने कियेका फल भोगता है ॥१७॥
हे प्रियवर ! यह क्रोध तो मनुष्यके अत्यन्त कष्टसे सत्र्चित यश और तपका भी प्रबल नाशक है ॥१८॥
हे तात ! इस लोग और परलोक दोनोंको बिगाड़नेवाले इस क्रोधका महार्षिगण सर्वदा त्याग करतें हैं, इसालिये तू इसके वशीभूत मत हो ॥१९॥
अब इन बेचारे निरपराध राक्षसोंको दग्ध करनेसे कोई लाभ नहीं; अपने इस यज्ञको समाप्त करो । साधुओंका धन तो सदा क्षमा ही है" ॥२०॥
महात्मा दादाजीके इस प्रकार समझानेपर उनकी बातोंके गौरवका विचार करके मैंने वह यज्ञ समाप्त कर दिया ॥२१॥
इससे मुनिश्रेष्ठ भगवान् वसिष्ठजी बहुत प्रसन्न हुए । उसी समय ब्रह्माजीके पुत्र पुलस्त्यजी वहाँ आये ॥२२॥
हे मैत्रेय ! पितामह ( वसिष्ठजी ) ने उन्हें अर्घ्य दिया, तब वे महर्षि पुलहके ज्येष्ठ भ्राता महाभाग पुलस्त्यजी आसन ग्रहण करके मुझसे बोले ॥२३॥
पुलस्त्यजी बोले - तुमने, चित्तमें बडा़ वैरभाव रहनेपर भी अपने बडे़ - बूढे़ वसिष्ठजीके कहनेसे क्षमा स्वीकार की है, इसलिये तुम सम्पूर्ण शास्त्रोंके ज्ञाता होगे ॥२४॥
हे महाभाग ! अत्यन्त क्रोधित होनेपर भी तुमने मेरी सन्तानका सर्वथा मूलोच्छेद नहीं किया; अतः मैं तुम्हें एक और उत्तम वर देता हूँ ॥२५॥
हे वत्स ! तुम पुराणसंहिताके वक्ता होगे और देवताओंके यथार्थ स्वरूपको जानोगे ॥२६॥
तथा मेरे प्रसादसे तुम्हारी निर्मल बुद्धि प्रवृत्ति और निवृत्ति ( भोग और मोक्ष ) के उप्तन्न करनेवाले कर्मोंमें निःसन्देह हो जायगी ॥२७॥
( पुलस्त्यजीके इस तरह कहनेके अनन्तर ) फिर मेरे पितामह भगवान वसिष्ठजी बोले "पुलस्त्यजीने जो कुछ कहा है, वह सभी सत्य होगा " ॥२८॥
हे मैत्रेय ! इस प्रकार पूर्वकालमें बुद्धिमान वसिष्ठजी और पुलस्त्यजीनें जो कुछ कहा था, वह सब तुम्हारे प्रश्नसे मुझे स्मरण हो आया है ॥२९॥
अतः हे मैत्रेय ! तुम्हारे पूछनेसे मैं उस सम्पूर्ण पुराणसंहिताको तुम्हें सुनाता हूँ; तुम उसे भली प्रकार ध्यान देकर सुनो ॥३०॥
यह जगत विष्णुसे उप्तन्न हुआ है, उन्हींमें स्थित है, वे ही इसकी स्थिति और लयके कर्ता हैं तथा यह जगत् भी वे ही हैं ॥३१॥
इति श्रीविष्णुपुराणे प्रथमेंऽशे प्रथमोऽध्यायः ॥१॥
श्रीपराशरजी बोले-
जो ब्रह्म, विष्णु और शंकररूपसे जगत्की उप्तत्ति, स्थिति और संहारके कारण हैं तथा अपने भक्तोंको संसार-सागरसे तारनेवाले हैं, उन विकाररहित, शुद्ध, अविनाशी, परमात्मा, सर्वदा एकरस, सर्वविजयी भगवान् वासुदेव विष्णुको नमस्कार है ॥१-२॥
जो एक होकर भी नाना रूपवाले हैं, स्थूलसूक्ष्ममय हैं, अव्यक्त ( कारण ) एवं व्यक्त ( कार्य ) रूप हैं तथा ( अपने अनन्य भक्तोंकी ) मुक्तिके कारण हैं, ( उन श्रीविष्णुभगवान्को नमस्कार है ) ॥३॥
जो विश्वरूप प्रभु विश्वकी उप्तत्ति, स्थिति और संहारके मूल-कारण हैं, उन परमात्मा विष्णुभगवान्को नमस्कार है ॥४॥
जो विश्वके अधिष्ठान है, अतिसूक्ष्मसे भी सूक्ष्म हैं, सर्व प्राणियोंमें स्थित पुरुशोत्तम और अविनाशी हैं, जो परमार्थतः ( वास्तवमें ) अति निर्मल ज्ञानस्वरूप हैं, किन्तु अज्ञानवश नाना पदार्थरूपसे प्रतीत होते हैं, तथा जो ( कालस्वरूपसे ) जगत्की उप्तत्ति और स्थितिमें समर्थं एवं उसका संहार करनेवाले हैं, उन जगदीश्वर, अजन्मा, अक्षय और अव्यय भगवान् विष्णूको प्रणाम करके तुम्हें वह सारा प्रसंग क्रमशः सुनाता हूँ जो दक्ष आदि मुनिश्रेष्ठोंके पूछनेपर पितामह भगवान ब्रह्मजीने उनसे कहा था ॥५-८॥
वह प्रसंग दक्ष आदि मुनियोंने नर्मदा-तटपर राजा पुरुकुत्सको सुनाया था तथा पुरुकुत्सने सारस्वतसे और सारस्वतने मुझसे कहा था ॥९॥
'जो पर ( प्रकृति ) से भी पर, परमश्रेष्ठ, अन्तरात्मामें स्थित परमात्मा, रूप, वर्ण, नाम और विशेषण आदिसे रहित हैः जिसमें जन्म, वृद्धि, परिणाम, क्षय और नाश- इन छः विकारोंका सर्वथा अभाव हैं; जिसको सर्वदा केवल 'हे' जिसको सर्वदा केवल 'हे' इतना ही कह सकते हैं, तथा जिनके लिये यह प्रसिद्ध है कि 'वे सर्वत्र हैं और उनमें समस्त विश्व बसा हुआ है- इसलिये ही विद्वान् जिसको वासुदेव कहते हैं' वही नित्य, अजन्मा, अक्षय, अव्यय, एकरस और हेय गुणोंके अभावके कारण निर्मल परब्रह्म है ॥१०-१३॥
वही इन सब व्यक्त ( कार्य ) और अव्यक्त ( कारण ) जगत्के रूपसे, तथा इसके साक्षी पुरुष और महाकरण कलके रूपसे स्थित है ॥१४॥
हे द्विज ! परब्रह्मका प्रथम रूप पुरुष है, अव्यक्त ( प्रकृति ) और व्यक्त ( महदादि ) उसके अन्य रूप हैं तथा ( सबको क्षोभित करनेवाले होनेसे ) काल उसका परमरूप है ॥१५॥
इस प्रकार जो प्रधान, व्यक्त और कालइन चारोंसे परे है तथा जिसे पण्डितजन ही देख पाते हैं देख पाते हैं वही भगवान विष्णुका परमपद है ॥१६॥
प्रधान, पुरूष, व्यक्त और काल - ये ( भगवान् विष्णुके ) रूप पृथक् पृथक् संसारकी उप्तत्ति, पालन और संहारके प्रकाश तथा उप्तादनमें कारण हैं ॥१७॥
भगवान् विष्णु जो व्यक्त, अव्यक्त, पुरुष और कालरूपसे स्थित होते हैं, इसे उनकी बालवत् क्रीडा ही समझो ॥१८॥
उनमेंसे अव्यक्त कारणको, जो सदसद्रूप ( कारणशक्तिविशिष्ट ) और नित्य ( सदा एकरस ) है, श्रेष्ठ मुनिजन प्रधान तथा सूक्ष्म प्रकृति कहते है ॥१९॥
वह क्षयरहित है, उनका कोई अन्य आधार भी नहीं है तथा अप्रमेय, अजर, निश्चल शब्द - स्पर्शादिशून्य और रूपादिरहित है ॥२०॥
वह त्रिगुणमय और जगत्का कारण है तथा स्वयं अनादि एवं उप्तत्ति और लयसे रहित है । यह सम्पूर्ण प्रपत्र्च प्रलयकालसे लेकर सृष्टिके आदितक उसीसे व्याप्त था ॥२१॥
हे विद्ववान ! श्रुतिके मर्मको जाननेवाले, श्रुतिपरायण ब्रह्मवेत्ता महात्मागण इसी अर्थको लक्ष्य करके प्रधानके प्रतिपादक इस ( निम्रलिखित ) श्लोकको कहा करते हैं - ॥२२॥
'उस समय ( प्रलयकालमें ) न दिन था, न रात्रि थी, न आकाश था, न पृथिवी थी, न अन्धकार था, न प्रकाश था और न इनके अतिरिक्त कुछ और ही था । बस, श्रोत्रादि इन्द्रियों और बुद्धि आदिका अविषय एक प्रधान ब्रह्म और पुरुष ही था ' ॥२३॥
हे विप्र ! विष्णुके परम ( उपाधिरहित ) स्वरूपसे प्रधान और पुरुष - ये दो रूप हुए; उसी ( विष्णु ) के जिस अन्य रूपके द्वारा वे दोनों ( सृष्टि और प्रलयकालमें ) संयुक्त और वियुक्त होते हैं, उस रूपान्तरका ही नाम 'काल' है ॥२४॥
बीते हुए प्रलयकालमें यह व्यक्त प्रपत्र्च प्रकृतिमें लीन था, इसलिये प्रपत्र्चके इस प्रलयको प्राकृत प्रलय कहते हैं ॥२५॥
हे द्विज ! कालरूप भगवान् अनादि हैं, इनका अन्त नहीं है इसलिये संसारकी उप्तत्ति, स्थिति और प्रलय भी कभी नहीं रुकते ( वे प्रवाहरूपसे निरन्तर होते रहते हैं ) ॥२६॥
हे मैत्रेय ! प्रलयकालमें प्रधान ( प्रकृति ) के साम्यावस्थामें स्थित हो जानेपर और पुरुषके प्रकृतिसे पृथक् स्थित हो जानेपर विष्णुभगवानका कालरूप ( इन दोनोंको धारण करनेके लिये ) प्रवृत्त होता है ॥२७॥
तदनन्तर ( सर्गकाल उपस्थित होनेपर ) उन परब्रह्म परमात्मा विश्वरूप सर्वव्यापी सर्वभूतेश्वर सर्वात्मा परमेश्वरने अपनी इच्छासे विकारी प्रधान और अविकारी पुरुषमें प्रविष्ट होकर उनको क्षोभित किया ॥२८-२९॥
जिस प्रकार क्रियाशील न होनेपर भी गन्ध अपनी सन्निधिमात्रसे ही मनको क्षुभित कर देता है, उसी प्रकार परमेश्वर अपनी सन्निधिमात्रसे ही प्रधान और पुरुषको प्रेरित करते हैं ॥३०॥
हे ब्रह्मन ! वह पुरुषोत्तम ही इनको क्षोभित करनेवाले हैं और वे ही क्षुब्ध होते हैं तथा संकोच ( साम्य ) और विकास ( क्षोभ ) युक्त प्रधानरूपसे भी वे ही स्थित हैं ॥३१॥
ब्रह्मादि समस्त ईश्वरोंके ईश्वर वे विष्णु ही समष्टि-व्यष्टिरूप, ब्रह्मादि जीवरूप तथा महत्तत्वरूपसे स्थित हैं ॥३२॥
हे द्विजश्रेष्ठ ! सर्गकालके प्राप्त होनेपर गुणोंकी साम्यावस्थारूप प्रधान जब विष्णुके क्षेत्रज्ञरूपसे अधिष्ठित हुआ तो उससे महत्तत्वकी उप्तत्ति हुई ॥३३॥
उप्तन्न हुए महान्को प्रधानतत्तवने आवृत किया; महत्तत्त्व सात्विक, राजस और तामस भेदसे तीन प्रकारका है । किन्तु जिस प्रकार बीज छिलकेसे समभावसे ढँका रहता है वैसे ही यह त्रिविध महत्तत्त्व प्रधान - तत्त्वसे सब ओर व्याप्त है । फिर त्रिविध महत्तत्त्वसे ही वैकारिक ( सात्विक ) तैजस ( राजस ) और तामस भुतादि तीन प्रकारका अहंकार उप्तन्न हुआ । हे महामुने ! वह त्रिगुणात्मक होनेसे भूत और इन्द्रिय आदिका कारण है और प्रधानसे जैसे महत्तत्त्व व्याप्त है, वैसे ही महत्त्वत्त्वसे वह ( अहंकार ) व्याप्त है ॥३४-३६॥
भूतादि नामक तामस अहंकारने विकृत होकर शब्द तन्मात्रा और उससे शब्द गुणवाले आकाशकी रचना की ॥३७॥
उस भूतादि तामस अहंकारने शब्द तन्मात्रारूप आकाशको व्याप्त किया । फिर ( शब्द तन्मात्रारूप ) आकाशने विकृत होकर स्पर्श तन्मात्राको रचा ॥३८॥
उस ( स्पर्श तन्मात्रा ) से बलवान् वायु हुआ, उसका गुण स्पर्श माना गया है । शब्दतन्मात्रारूप आकाशने स्पर्श तन्मात्रावाले वायुको आवृत किया है ॥३९॥
फिर ( स्पर्श - तन्मात्रारूप ) वायुने विकृत होकर रूप - तन्मात्राकी सृष्टि की । ( रूप - तन्मात्रायुक्त ) वायुसे तेज उप्तन्न हुआ है, उसका गुण रूप कहा जाता है ॥४०॥
स्पर्श तन्मात्रारुप वायुने रूप - तन्मात्रावाले तेजको आवृत किया । फिर ( रूप - तन्मात्रावाले तेजको आवृती किया । फिर ( रूप - तन्मात्रामय ) तेजने भी विकृत होकर रस - तन्मात्राकी रचना की ॥४१॥
उस ( रस- तन्मात्रारूप ) से रस-गुणवाला जल हुआ । रस तन्मात्रावाले जलको रूप-तन्मात्रामय तेजने आवृत किया ॥४२॥
( रस-तन्मात्रारूप ) जलने विकारको प्राप्त होकर गन्ध-तन्मात्राकी सृष्टी की, उससे पृथीवी उप्तन्न हुई है जिसका गुण गन्ध माना जाता है ॥४३॥
उन- उन आकाशादि भूतोंमें तन्मात्रा है ( अर्थात् केवल उनके गुण शब्दादि ही हैं ) इसलिये वे तन्मात्रा ( गुणरूप ) ही कहे गये हैं ॥४४॥
तन्मात्राओंमें विशेष भाव नहीं है इसलिये उनकी अविशेष संज्ञा है ॥४५॥
वे अविशेष तन्मात्राएँ शान्त, घोर अथवा मूढ़ नहीं हैं ( अर्थात् उनका सुख दुःख या मोहरूपसे अनुभव नहीं हो सकता ) इस प्रकार तामस अहंकारसे यह भूततन्मात्रारूप सर्ग हुआ है ॥४६॥
दस इन्द्रियाँ तैजस अर्थांत राजस अहंकारसे और उनके अधिष्ठाता देवता वैकारिक अर्थात् सात्त्विक अहंकारसे उप्तन्न हुए कहे जाते हैं । इस प्रकार इंद्रायोंके अधिष्ठाता दस देवता और ग्यारहवाँ मन वैकरिक ( सात्त्विक ) हैं ॥४७॥
हे द्विज ! त्वक् चक्षु, नासिका, जिह्ला और श्रोत्र ये पाँचों बुद्धीकी सहायतासे शब्दादि विषयोंको ग्रहण करनेवाली पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ हैं ॥४८॥
हे मैत्रेय ! पायु ( गुदा), उपस्थ ( लिड्ग ) हस्त, पाद, और वाक् ये पाँच कर्मेंन्द्रियाँ है । इनके कर्म ( मल मुत्रका ) त्याग शिल्प, गति और वचन बतलाये जाते है ॥४९॥
आकाश वायु, तेज जल और पृथिवी ये पाँचों भुत उत्तरोत्तर ( क्रमशः ) शब्द स्पर्श आदि पाँच गुणोंसे युक्त हैं ॥५०॥
ये पाँचो भूत शान्त घोर और मूढ हैं ( अर्थात सुख दूःख औरज मोहयुक्त हैं ) अतः ये विशेष कहलाते हैं *॥५१॥
इन भूतोंमें पृथक पृथक नान शक्तियाँ हैं । अतः वे परस्पर पूर्णयता मिले बिना संसारकी रचना नहीं कर सके ॥५२॥
इसलिये एक दुसरेके आश्रय रहनेवाले और एक ही संघातकी उप्तत्तिके लक्ष्यवाले महत्तत्वसे लेकर विशेषपर्यंन्त प्रकृतिके इन सभी विकारोंने पुरुषसे अधिष्ठित होनेके कारण परस्पर मिलकर सर्वथा एक होकर प्रधानतत्त्वके अनुग्रहसे अण्डकी उप्तत्ति की ॥५३-५४॥
हे महाबुद्धे ! जलके बुलबुलेके समान क्रमशः भूतोंसे बढा़ हुआ वह गोलाकार और जलपर स्थित महान् अण्ड ब्रह्म ( हिरण्यगर्भ ) रूप विष्णुका अति उत्तम प्राकृत आधार हुआ ॥५५॥
उसमें वे अव्यक्त स्वरूप जगत्पत्ति विष्णु व्यक्त हिरण्यगर्भरूपसे स्वयं ही विराजमान हुए ॥५६॥
उन महात्मा हिरण्यगर्भका सुमेरु उल्ब ( गर्भको ढँकनेवाली झिल्ली ), अन्य पर्वत, जरायु ( गर्भाशय ) तथा समुद्र गर्भाशयस्थ रस था ॥५७॥
हे विप्र ! उस अण्डमें ही पर्वत और द्वीपादिके सहित समुद्र, ग्रह गणके सहित सम्पूर्ण लोक तथा देव, असुर और मनुष्य आदि विविध प्राणिवर्ग प्रकट हुए ॥५८॥
वह अण्ड पूर्व पूर्वकी अपेक्षा दस-दस-गुण अधिक जल, अग्नि, वायु आकाश और भूतादि अर्थात तामस-अहंकारसे आवृत है तथा भूतादि महत्तत्त्वसे घिरा हुआ है ॥५९॥
और इन सबके सहित वह महत्तत्व भी अव्यक्त प्रधानसे आवृत है । इस प्रकार जैसे नारियलके फलका भीतरी बीज बाहरसे कितने ही छिलकोंसे ढँका रहता है वैसे ही यह अण्ड इन सात प्राकृत आवरणोंसे घिरा हुआ है ॥६०॥
उसमें स्थित हुए स्वयं विश्वेश्वर भगवान् विष्णु ब्रह्मा होकर रजोगुणका आश्रय लेकर इस संसारकी रचनामें प्रवृत्त होते हैं ॥६१॥
तथा रचना हो जानेपर सत्त्वगुण विशिष्ट अतुल पराक्रमी भगवान् विष्णु उसका कल्पान्तपर्यंन्त युग-युगमें पालन करते हैं ॥६२॥
है मैत्रेय ! फिर कल्पका अन्त होनेपर अति दारून तमः-प्रधान रुद्ररूप धारण कर वे जनार्दन विष्णु ही समस्त भूतोंका भक्षण कर लेते हैं ॥६३॥
इस प्रकार समस्त भूतोंका भक्षण कर संसारको जलमय करके वे परमेश्वर शेष-शय्यापर शयन करते हैं ॥६४॥
जगनेपर ब्रह्मारूप होकर वे फिर जगत्की रचना करते हैं ॥६५॥
वह एक ही भगवान जनार्दन जगत्की सृष्टी, स्थिति और संहारके लिये ब्रह्मा, विष्णु और शिव - इन तीन संज्ञाओंको धारण करते हैं ॥६६॥
वे प्रभु विष्णु स्नष्टा ( ब्रह्म ) होकर अपनी ही सृष्टि करते हैं, पालक विष्णु होकर पाल्यरूप अपना ही पालन करते हैं और अन्तमें स्वयं ही संहारक (शिव ) तथा स्वयं ही उपसंहृत ( लीन ) होते हैं ॥६७॥
पृथिवी, जल, तेज, वायु, और आकाश तथा समस्त इन्द्रियाँ और अन्तःकरण आदि जितना जगत् है सब पुरुषरूप है और क्योंकी वह अव्यय विष्णु ही विश्वरूप और सब भूतोंके अन्तरात्मा हैं, इसलिये ब्रह्मादि प्राणियोंमे स्थित सर्गादिक भी उन्हींके उपकारक हैं । ( अर्थात् जिस प्रकार ऋत्विजोंद्वारा किया हुआ हवन यजमानका उपकाराक होता है, उसी तरह परमात्माके रचे हुए समस्त प्राणियोंद्वारा होनेवाली सृष्टी भी उन्हींकी उपकारक है ) ॥६८-६९॥
वे सर्वस्वरूप, श्रेष्ठ, वरदायक और वरेण्य ( प्रार्थनाके योग्य ) भगवान् विष्णु ही ब्रह्मा आदि अवस्थाओंद्वारा रचनेवाले हैं, वे ही रचे जाते हैं, वे ही पालते है, वे ही पालित होते हैं तथा वे ही संहार करते हैं ( और स्वयं ही संहृत होते हैं ) ॥७०॥
इति श्रीविष्णुपुराणे प्रथमेंऽशे द्वितीयोऽध्यायः ॥२॥
श्रीमैत्रेयजी बोले-
हे भगवन् ! जो ब्रह्म, निर्गुण, अप्रमेय, शुद्ध और निर्मलात्मा है उसका सर्गादिका कर्त्ता होना कैसे सिद्ध हो सकता है ? ॥१॥
श्रीपराशरजी बोले-हे तपस्वियोंमें श्रेष्ठ मैत्रेय ! समस्त भाव - पदार्थोकीं शक्तियाँ अचिन्त्य - ज्ञानकी विषय होती हैं; ( उनमें कोई युक्ति काम नहीं देती ) अतः अग्निकी शक्ति उष्णताके समान ब्रह्मकी भी सर्गादिरचनारूप शक्तियाँ स्वाभाविक हैं ॥२॥
अब जिस प्रकार नारायण नामक लोक-पितामय भगवान ब्रह्माजी सृष्टिकी रचनामें प्रवृत्त होते हैं सो सुनो । हे विद्वन् ! वे सदा उपचारसे ही 'उप्तन्न हुए' कहलाते हैं ॥३-४॥
उनके अपने परिमाणसे उनकी आयु सौ वर्षकी कहीं जाती है । उस ( सौ वर्ष ) का नाम पर है, उसका आधा परार्द्ध कहलाता है ॥५॥
हे अनघ ! मैनें जो तुमसे विष्णुभगवानका कालस्वरूप कहा था उसीके द्वारा उस ब्रह्माकी तथा और भी जो पृथिवी, पर्वत, समुद्र आदि चराचर जीव हैं उनकी आयुका परिमाण किया जाता है ॥६-७॥
हे मुनिश्रेष्ठा ! पन्द्रह निमेषको काष्ठा कहते हैं, तीस काष्ठाकी एक कला तथा तीस कलाका एक मुहूर्त होता है ॥८॥
तीस मुहूर्तका मनुष्यका एक दिन-रात कहा जाता है और उतने ही दीन-रातका दो पक्षयुक्त एक मास होता है ॥९॥
छः महीनोंका एक अयन और दक्षिणायन तथा उत्तरायण दो अयन मिलकर एक वर्ष होता है । दक्षणायन देवताओंकी रात्रि है और उत्तरायण दिन ॥१०॥
देवताओंके बारह हजार वर्षोकें सतयुग, त्रेता, द्वापर और कलियुग नामक चार युग होते हैं । उनका अलग अलग परिमाण मैं तुम्हें सुनाता हूँ ॥११॥
पुरातत्वके जाननेवाले सतयुग आदिका परिमाण क्रमशः चार, तीन, दो और एक हजार दिव्य वर्ष बतलाते हैं ॥१२॥
प्रत्येक युगके पूर्व उतने ही सौ वर्षकी सन्ध्या बतायी जाती है और युगके पीछे उतने ही परिमाणवाले सन्ध्यांश होते हैं ( अर्थात् सतयुग आदिके पूर्व क्रमशः चार, तीन दो और एक सौ दिव्य वर्षकी सन्ध्याएँ और इतने ही वर्षके सन्ध्यांश होते हैं ) ॥१३॥
हे मुनिश्रेष्ठ ! इन सन्ध्या और सन्ध्यांशोंके बीचका जितना काल होता है, उसे ही सतयुग आदि नामवाले युग जानना चाहिये ॥१४॥
हे मुने ! सतयुग, त्रेता, द्वापर और कलि ये मिलकर चतुर्युग कहलाते हैं; ऐसे हजार चतुर्युगका ब्रह्मका एक दिन होता है ॥१५॥
हे ब्रह्मन् ! ब्रह्माके एक दिनमें चौदह मनु होते हैं । उनका कालकृत परिमाण सुनो ॥१६॥
सप्तार्षि, देवगण, इन्द्र, मनु और मनुके पुत्र राजालोक ( पूर्व-कल्पानुसार ) एक ही कालमें रचे जाते हैं और एक ही कालमें उनका संहार किया जाता है ॥१७॥
हे सत्तम ! इकहत्तर चतुर्यगसे कुछ अधिक * कालका एक मन्वन्तर होता है । यही मनु और देवता आदिका काल है ॥१८॥
इस प्रकार दिव्य वर्ष- गणनासे एक मन्वन्तरमें आठ लाख बावन हजार वर्ष बताये जाते हैं ॥१९॥
तथा हे महामुने ! मानवी वर्ष-गणनाके अनुसार मन्वन्तरका परिमाण पूरे तीस करोड़ सरसठ लाख बीस हजार वर्ष है, इससे अधिक नहीं ॥२०-२१॥
इस कालका चौदह गुना ब्रह्माका दिन होता हैं, इसके अनन्तर नैमित्तिक नामवाला ब्राह्मा-प्रलय होता है ॥२२॥
उस समय भूर्लोकं भुवर्लोक और स्वर्लोक तीनों जलनें लगते हैं और महर्लोकमें रहनेवाले सिद्भगण अति सन्तप्त होकर जनलोकको चले जाते हैं ॥२३॥
इस प्रकार त्रिलोकीके जलमय हो जानेपर जनलोकवासी योगियोंद्वारा ध्यान किये जाते हुए नारायणरूप कमलयोनि ब्रह्माजी त्रिलोकीके ग्राससे तृप्त होकर दिनके बराबर ही परिमाणवाली उस रात्रिमें शेषशय्यापर शयन करते हैं और उसके बीत जानेपर पुनः संसारकी सृष्टी करते हैं ॥२४-२५॥
इसी प्रकार ( पक्ष, मास आदि ) गणनासे ब्रह्माका एक वर्ष और फिर सौ वर्ष होते हैं । ब्रह्माके सौ वर्ष ही उस महात्मा ( ब्रह्मा ) की परमायु हैं ॥२६॥
हे अनघ ! उन ब्रह्माजीका एक परार्द्ध बीत चुका है । उसके अन्तमें पाद्य नामसे विख्यात महाकल्प हुआ था ॥२७॥
हे द्विज ! इस समय वर्तमान उनके दुसरे परार्द्धका यह वाराह नामक पहला कल्प कहा गया है ॥२८॥
इति श्रीविष्णुपुराणे प्रथमेंऽशे तृतीयोऽध्यायः ॥३॥
* इकहत्तर चतुर्युगके हिसाबसे चौदह मन्वन्तरोंमें ९९४ चतुर्युग होते हैं और ब्रह्माके एक दिनमें एक हजार चतुर्युग होते हैं, अतः छः चतुर्युग और बचे । छः चतुर्युगका चौदहवाँ भाग कुछ कम पाँच हजार एक सौ तीन दिव्य वर्ष होता है, इस प्रकार एक मन्वन्तरमें इकहत्तर चतुर्युगके अतिरिक्त इतने दिव्य वर्ष और अधिक होते है ।
श्रीमैत्रेय बोले -
हे महामुने ! कल्पके आदिमें नारायणाख्य भगवान् ब्रह्माजीने जिस प्रकार समस्त भूतोंकी रचना की वह आप वर्णन किजिये ॥१॥
श्रीपराशरजी बोले- प्रजापतियोंके स्वामी नारायणस्वरूप भगवान् ब्रह्माजीने जिस प्रकार प्रजाकी सृष्टि की थी वह मुझसे सुनो ॥२॥
पिछले कल्पका अन्त होनेपर रात्रिमें सोकर उठनेपर सत्त्वगुणके उद्रेकसे युक्त भगवान् ब्रह्माजीने सम्पूर्ण लोकोंको शून्यमय देखा ॥३॥
वे भगवान नारायण पर हैं, अचिन्त्य हैं, ब्रह्मा, शिव आदि ईश्वरोंके भी ईश्वर हैं, ब्रह्मस्वरूप हैं, अनादि हैं और सबकी उत्पत्तिके स्थान हैं ॥४॥
( मनु आदि स्मृतिकार ) उन ब्रह्मस्वरूप श्रीनारायदेवके विषयमें जो एस जगतकी उप्तत्ति और लयके स्थान हैं , यह श्लोक कहते हैं ॥५॥
नर ( अर्थात् पुरुष-भगवान् पुरुषोत्तम ) से उप्तन्न होनेके कारण जलको 'नार' कहते हैं, वह नार ( जल ) ही उनका प्रथम अयन ( निवास-स्थान ) है । इसलिये भगवान्को 'नारायण' कहा है ॥६॥
सम्पूर्ण जगत जलमय हो रहा था । इसलिये प्रजापति ब्रह्मजीने अनुमानसे पृथिवीको जलके भीतर जान उसे बाहर निकालनेकी इच्छासे एक दुसरा शरीर धारण किया । उन्होंने पूर्व-कल्पोंके आदिमें जैसे मत्स्य, कूर्म आदि रूप धारण किये थे वैसे ही इस वाराह कल्पके आरम्भमें वेदयज्ञमय वाराह शरीर ग्रहण किया और सम्पूर्ण जगतकी स्थितिमें तत्पर हो सबके अन्तरात्मा और अविचल रूप वे परमत्मा प्रजापति ब्रह्माजी, जो पृथिवीको धारण करनेवाले और अपने ही आश्रयसे स्थित हैं, जन लोकस्थित सनकादि सिद्धेश्वरोसे स्तुति किये जाते हुए जलमें प्रविष्ट हुए ॥७-१०॥
तब उन्हें पाताललोकर्में आये देख देवी वसुन्धरा अति भक्तिविनम्र हो उनकी स्तुति करने लगी ॥११॥
पृथिवी बोली - हे शंख, चक्र, गदा, पद्म धारण करनेवाले कमलनयन भगवन् ! आपको नमस्कार है । आज आप इस पातालतलसे मेरा उद्धार कीजिये । पूर्वकालमें आपहीसे मैं उत्पन्न हूई थी ॥१२॥
हे जनार्दन ! पहले भी आपहीने मेरा उद्धार किया था । और हे प्रभो ! मेरे तथा आकाशादि अन्य सब भूतोकें भी आप अही उपादान कारण हैं ॥१३॥
हे परमात्मस्वरूप ! आपको नमस्कार है । हे पुरुषात्मन् ! आपको नमस्कार है । हे प्रधान ( कारण ) और व्यक्तः ( कार्य ) रूप ! आपको नमस्कार है । हे कलस्वरूप ! आपको बारम्बार नमस्कार है ॥१४॥
हे प्रभो ! जगतकी सृष्टि आदिके लिये ब्रह्मा, विष्णु और रुद्ररूप धारण करनेवाले आप ही सम्पूर्ण भूतोंकी उप्तत्ति, पालन और नाश करनेवाले हैं ॥१५॥
और जगत्के एकार्णवरूप ( जलमय ) हो जानेपर, हे गोविन्द । सबको भक्षणकर अन्तमें आप ही मनीषिजनोंद्वारा चिन्तित होते हुए जलमें शयन करते हैं ॥१६॥
हे प्रभो ! आपका जो परतत्त्व है उसे तो कोई भी नहीं जानता; अतः आपका जो रूप अवतारोंमें प्रकट होता है उसीकी देवगण पूजा करते हैं ॥१७॥
आप परब्रह्मकी ही आराधना किये बिना कौन मोक्ष प्राप्त कर भला वासुदेवकी आराधना किये बिना कौन मोक्ष प्राप्त कर सकता है ? ॥१८॥
मनसे जो कुछ ग्रहण ( संकल्प ) किया जाता हैं, चक्षु आदि इन्दियोंसे जो कुछ ग्रहण ( विषय ) करनेयोग्य है, बुद्धीद्वारा जो कुछ विचारणीय है वह सब आपहीका रूप है ॥१९॥
हे प्रभो ! मैं आपहीका रूप हूँ, आपहीके आश्रित हूँ और आपहीके द्वारा रची गयी हूँ तथा आपहीके आश्रित हूँ और आपहीके द्वारा रची गयी हूँ आपहीके शरणमें हूँ । इसीलिये लोकमें मुझे 'माधवी' भी कहते हैं ॥२०॥
हे सम्पूर्ण ज्ञानमय ! हे स्थूलमय ! हे अव्यय ! आपकी जय हो ! हे अनन्त ! हे अव्यक्त ! हे व्यक्तमय प्रभो ! आपकी जय हो ॥२१॥
हे परापर-सरूप ! हे विश्वात्मन ! हे यज्ञपते ! हे अनघ ! आपकी जय हो । हे प्रभो ! आप ही यज्ञ हैं ,आप ही वषट्कार हैं, आप ही ओंकार हैं और आप ही
( आहवानीयादि ) अग्नियाँ हैं ॥२२॥
हे हरे ! आप ही वेद, वेदांग और यज्ञपुरुष हैं तथा सूर्य आदि ग्रह , तारे नक्षत्र और सम्पूर्ण जगत भी आप ही हैं ॥२३॥
हे पुरुषोत्तम ! हे परमेश्वर ! मूर्त अमृर्त, दृश्य-अदृश्य तथा जो कुछ मैने कहा है और जो नहीं कहा, वह सब आप ही हैं । अतः आपको नमस्कार है, बारम्बार नमस्कार है ॥२४॥
श्रीपराशरजी बोले- पृथिवीद्वारा इस प्रकार स्तुति किये जानेपर सामस्वर ही जिनकी ध्वनि है उन भगवान् धरणीधरने घर्घर शब्दसे गर्जना की ॥२५॥
फिर विकसित कमलके समान नेत्रोंवाले उन महावराहने अपनी डाढ़ोंसे पृथिवीको उठा लिया और वे कमल दलके समान श्याम तथा नीलाचलके सदृश विशालकाय भगवान् रसातलसे बाहर निकले ॥२६॥
निकलते समय उनके मुखके श्वाससे उछलते हुए जलने जनलोकमें रहनेवाले महातेजस्वी और निष्पाप सनन्दनादि मुनीश्वरोंको भिगो दिया ॥२७॥
जल बड़ा शब्द करता हुआ उनके खुरोंसे विदीर्ण हुए रसातलमें नीचेकी ओर जाने लगा और जनलोकमें रहनेवाले सिद्धगण उनके श्वास वायुसे विक्षिप्त होकर इधर उधर भागने लगे ॥२८॥
जिनकी कुक्षि जलमें भोगी हुई है वे महावराह जिस समय अपने वेदमय शरीरको कँपाते हुए पृथिवीको लेकर बाहर निकले उस समय उनकी रोमावलीमें स्थित मुनिजन स्तुति करने लगे ॥२९॥
उन निश्शंक और उन्नत दृष्टिवाले धराधर भगवान्की जनलोकमें रहनेवाले सनन्दनादि योगीश्वरोंने प्रसन्नचित्तसे अति नम्रतापूर्वक सिर झुकाकर इस प्रकार स्तुति की ॥३०॥
हे ब्रह्मदि ईश्वरोंके भी परम ईश्वर ! हे केशव ! हे शंख गदाधर ! हे खड्ग चक्रधारी प्रभो ! आपकी जय हो ! आप ही संसारकी उप्तत्ति, स्थिति और नाशके कारण हैं, तथा आप ही ईश्वर हैं और जिसे परम पद कहते हैं वह भी आपसे अतिरिक्त और कुछ नहीं है ॥३१॥
हे यूपरूपी डाढ़ोवाले प्रभो! आप ही यज्ञपुरुष हैं आपके चरणोंमे चारों वेद हैं, दाँतोंमे यज्ञ हैं, मुखमें ( श्येन चित आदि ) चितियाँ हैं । हुताशन ( यज्ञाग्रि ) आपकी जिह्वा है तथा कुशाएँ रोमावलि हैं ॥३२॥
हे महात्मन् ! रात और दिन आपके नेत्र हैं तथा सबका आधारभूत परब्रह्म आपका सिर है । हे देव ! वैष्णव आदि समस्त सूक्त आपके सटाकलाप ( स्कन्धके रोम गुच्छ ) है और समग्र हवि आपके प्राण हैं ॥३३॥
हे प्रभो ! स्त्रुक् आपका तुण्ड ( थूथनी ) है, सामस्वर धीर गम्भीर शब्द है, प्राग्वंश ( यजमानगृह ) शरीर है तथा सत्र शरीरकी सन्धियाँ हैं । हे देव ! इष्ट ( श्रौत ) और पूर्त ( स्मार्त ) धर्म आपके कान हैं । हे नित्यस्वरूप भगवन ! प्रसन्न होइये ॥३४॥
हे अक्षर ! हे विश्वमूर्ते ! अपने पाद प्रहारसे भूमंडलको व्याप्त करनेवाले आपको हम विश्वके आदिकारण समझते हैं । आप सम्पूर्ण चराचर जगत्के परमेश्वर और नाथ हैं; अत; प्रसन्न होइये ॥३५॥
हे नाथ ! आपकी डाढ़ोंपर रखा हुआ यह सम्पूर्ण भूमंडल ऐसा प्रतीत होता है मानो कमलवनको रौंदते हुए गजराजके दाँतोंसे कोई कीचड़्में सना हुआ कमलका पत्ता लगा हो ॥३६॥
हे अनुपम प्रभावशाली प्रभो ! पृथिवी और आकाशके बीचमें जितना अन्तर है वह आपके शरीरसे ही व्याप्त है । हे विश्वको व्याप्त करनेमें समर्थ तेजयुक्त प्रभो ! आप विश्वका कल्याण कीजिये ॥३७॥
हे जगत्पते ! परमार्थ (सत्य वस्तु ) तो एकमात्र आप ही हैं, आपके अतिरिक्त और कोई भी नहीं है । यह आपकी ही महिमा ( माया ) है जिससे यह सम्पूर्ण चराचर जगत् व्याप्त हैं ॥३८॥
यह जो कुछ भी मूर्तिमान् जगत दिखायी देता है ज्ञानस्वरूप आपहीका रूप है । अजितेन्द्रिय लोग भ्रमसे इसे जगत् रूप देखते हैं ॥३९॥
इस सम्पूर्ण ज्ञान स्वरूप जगत्को बुद्धीहीन लोग अर्थरूप देखते हैं, अतः वे निरन्तर मोहमय संसार सागरमें भटका करते हैं ॥४०॥
हे परमेश्वर ! जो लोग शुद्धचित्त और विज्ञानवेत्ता हैं वे इस सम्पूर्ण संसारको आपका ज्ञानत्मक स्वरूप ही देखतें हैं ॥४१॥
हे सर्व ! हे सर्वात्मन ! प्रसन्न होइये । हे अप्रमेयात्मन् ! हे कमलनयन ! संसारके निवासके लिये पृथिवीका उद्धार करके हमको शान्ति प्रदान कीजिये ॥४२॥
हे भगवन ! हे गोविन्द ! इस समय आप सत्त्वप्रधान है; अतः हे ईश ! जगतके उद्भवके लिये आप इस पृथिवीका उद्धार कीजिये और हे कमलनयन ! हमको शान्ति प्रदान कीजिये ॥४३॥
आपके द्वारा यह सर्गकी प्रवृत्ति संसारका उपकार करनेवाली हो ! हे कमलनयन ! आपको नमस्कार है, आप हमको शान्ति प्रदान कीजिये ॥४४॥
श्रीपराशरजी बोले - इस प्रकार स्तुति किये जानेपर पृथिवीको धारण करनेवाले परमात्मा वराहजीने उसे शीघ्र ही उठाकर अपार जलके ऊपर स्थापित कर दिया ॥४५॥
उस जलसमूहके ऊपर वह एक बहुत बडीं नौकाके समान स्थित है और बहुत विस्तृत आकार होनेके कारण उसमें डुबती नहीं है ॥४६॥
फिर उन अनादि परमेश्वरने पृथ्विवीको समतल कर उसपर जहाँ-तहाँ पर्वतोंको विभाग करके स्थापित कर दिया ॥४७॥
सत्यसंकल्प भगवानने अपने अमोघ प्रभावसे पूर्वकल्पके अन्तमें दग्ध हुए समस्त पर्वतोंको पृथिवी तलपर यथास्थान रच दिया ॥४८॥
तदनन्तर उन्होंने सप्तद्वेपादि क्रमसे पृथिवीका यथायोग्य विभाग कर भूर्लोकादि चारों लोकोंकी पूर्ववत कल्पना कर दी ॥४९॥
फिर उन भगवान् हरिने रजोगुणसे युक्त हो चतुर्मुखधारी ब्रह्मारूप धारण कर सृष्टिकी रचना की ॥५०॥
सृष्टिकी रचनामें भगवान् तो केवल निमित्तमात्र ही हैं, क्योंकि उसकी प्रधान कारण तो केवल निमित्तमात्र ही हैं, क्योकिं उसकी प्रधान कारण तो सृज्य पदार्थोकी शक्तियाँ ही हैं ॥५१॥
हे तपस्वियोंमें श्रेष्ठ मैत्रेय ! वस्तुओंकीं रचनामें निमित्तमात्रको छोड्कर और किसी बातकी आवश्यकता भी नहीं है, क्योंकि वस्तु तो अपनी ही ( परिणाम ) शक्तिसे वस्तुता ( स्थूलरूपता ) को प्राप्त हो जाती है ॥५२॥
इति श्रीविष्णुपुराणे प्रथमेंऽशे चतुर्थोऽध्यायः ॥४॥
श्रीमैत्रेयजी बोले-
हे द्विजराज ! सर्गके आदिमें भगवान् ब्रह्माजीने पृथिवी, आकाश और जल आदिमें रहनेवाले देव, ऋषि, पितृगण, दानव, मनुष्य, तिर्यक और वृक्षादिको जिस प्रकार रचा तथा जैसे गुण, स्वभाव और रूपवाले जगत्की रचना की वह सब आप मुझसे कहिये ॥१-२॥
श्रीपराशरजी बोले - हेअ मैत्रेय ! भगवान् विभुने जिस प्रकार इस सर्गकी रचना की वह मैं तुमसे कहता हूँ; सावधान होकर सुनो ॥३॥
सर्गके आदिमें ब्रह्माजीके पूर्ववत् सृष्टिका चिन्तन करनेपर पहले अबुद्धिपूर्वक ( अर्थात् पहले-पहल असावधानी हो जानेसे ) तमोगुणी सृष्टिका आविर्भाव हुआ ॥४॥
उस महात्मासे प्रथम तम ( अज्ञान ) , मोह, महामोह ( भोगेच्छा ), तामिस्त्र ( क्रोध ) और अन्धातामिस्त्र ( अभिनिवेश ) नामक पत्र्चपर्वा ( पाँच प्रकारकी ) अविद्या उप्तन्न हुई ॥५॥
उसके ध्यान करनेपर ज्ञानशून्य बाहर भीतरसे तमोमय और जड नगादि ( वृक्ष-गुल्म-लता-वीरुत्-तृण ) रूप पाँच प्रकारका सर्ग हुआ ॥६॥
( वराहजीद्वारा सर्वप्रथम स्थापित होनेके कारण ) नगादिको मुख्य कहा गया है, इसलिये यह सर्ग भी मुख्य सर्ग कहलाता है ॥७॥
उस सृष्टिको पुरुषार्थकी आसाधिका देखकर उन्होने फिर अन्य सर्गके पुरुषार्थकी असाधिका देखकर उन्होंने फिर अन्य सर्गके लिये ध्यान किया तो तिर्यक् - स्त्रोत- सृष्टि उप्तन्न हुई । यह सर्ग ( वायुके समान ) तिरछा चलनेवाला है इसलिये तिर्यक् स्त्रोत कहलाता है ॥८-९॥
ये पशु, पक्षी आदि नामसे प्रसिद्ध हैं - और प्रायः तमोमय ( अज्ञानी ),विवेकरहित अनुचित मार्गका अवलाम्बन करनेवाले और विपरीत ज्ञानको ही यथार्थ ज्ञान माननेवाले होते हैं । ये सब अहंकारी, अभिमानी, अट्ठाईस वधोंसे युक्त* आन्तरिक सुख आदिको ही पूर्णतया समझनेवाले और परस्पर एकदूसरेकी प्रवृत्तिको न जाननेवाले होते हैं ॥१०-११॥
उस सर्गको भी पुरुषार्थका असाधक समझ पुनः चिन्तन करनेपर एक और सर्ग हुआ । वह ऊर्ध्व-स्त्रोतनामक तीसरा सात्विक सर्ग ऊपरके लोकोंमे रहने लगा ॥१२॥
वे ऊर्ध्व स्त्रोत सृष्टिमें उप्तन्न हुए प्राणी विषय-सुखके प्रेमी, बाह्य और आन्तरिक दृष्टिसम्पन्न, तथा बाह्म और आन्तरिक ज्ञानयुक्त थे ॥१३॥
यह तीसरा देवसर्ग कहलाता है । इस सर्गके प्रादुर्भूत होनेसे सन्तृष्टचित्त ब्रह्माजीको अति प्रसन्नता हुइ ॥१४॥
फिर, इन मुख्य सर्ग आदि तीनो प्रकारकीक सृष्टीयोंमें उप्तन्न हुए प्राणियोंको पुरुषार्थका असाधक जान उन्होंने एक और उत्तम साधक सर्गके लिये चिन्तन किया ॥१५॥
उन सत्यसंकल्प ब्रह्माजीके इस प्रकार चिन्तन करनेपर अव्यक्त ( प्रकृति ) से पुरुषार्थका साधक अर्वाक्स्त्रोत नामक सर्ग प्रकट हुआ ॥१६॥
इस सर्गके प्राणे, नीचे ( पृथिवीपर ) रहते हैं इसलिये वे 'अर्वाक् स्त्रोत' कहलाते हैं । उनमें सत्त्व, रज और तम तीनोंहीकी अधिकता होती है ॥१७॥
इसलिये वे दुःखबहुल, अत्यन्त क्रियाशील एवम बाह्म-आभ्यन्तर ज्ञानसे युक्त और साधक हैं । इस सर्गके प्राणी मनुष्य हैं ॥१८॥
हे मुनिश्रेष्ठ ! इस प्रकार अबतक तुमसे छः सर्ग, कहे । उनमें महत्तत्वको ब्रह्माका पहला सर्ग जानना चाहिये ॥१९॥
दूसरा सर्ग तन्मात्राओंकास है, जिसे भुतसर्ग भी कहते हैं और तीसरा वैकारिक सर्ग है जो ऐन्द्रियिक ( इन्द्रिय सम्बन्धी ) कहलाता है ॥२०॥
इस प्रकार बुद्धीपूर्वक उप्तन्न हुआ यह प्राकृत सर्ग हुआ । चौथा मुख्यसर्ग है । पर्वत-वृक्षादि स्थावर ही मुख्य सर्गके अन्तर्गत हैं ॥२१॥
पाँचवाँ जो तिर्यक्स्त्रोत बतलाया उसे तिर्यक ( कीट पतंगादि ) योनि भी कहते हैं । फिर छठा सर्ग ऊर्ध्व स्त्रोताओंका है जो देवसर्ग कहलाता है । उसके पश्चात् सातवाँ सर्ग अर्वाक् - स्त्रोताओंका है, वह मनुष्य सर्ग है ॥२२-२३॥
आठवाँ अनुग्रह सर्ग है । वह सात्त्विक और तामसिक है । ये पाँच वैकृत ( विकारी ) सर्ग हैं और पहले तीन प्राकृत सर्ग कहालाते हैं ॥२४॥
नवाँ कौमार- सर्ग है जो प्राकृत और वैकृत भी है । इस प्रकार सृष्टी रचनामें प्रवृत्त हुए जगदीश्वर प्रजापतिके प्राकृत और वैकृत नामक ये जगत्के मूलभूत नौ सर्ग तुम्हें सुनाये । अब और क्या सुनन जगत्के मूलभूत नौ सर्ग तुम्हें सुनाये । अब और क्या सुनना चाहते हो ? ॥२५-२६॥
श्रीमैत्रेयजी बोले -
हे मुने ? आपने इन देवादिकोंके सर्गोका संक्षेपसे वर्णन किया । अब, हे मुनिश्रेष्ठ ! मैं इन्हें आपके मुखारविन्दसे विस्तारपूर्वक सुनना चाहता हूँ ॥२७॥
श्रीपराशरजी बोले- हे मैत्रेय ! सम्पूर्ण प्रजा अपने पुर्व शुभाशुभ कर्मोसे युक्त है; अतः प्रलयकालमें सबका लय होनेपर भी वह उनके संस्कारोंसे मुक्त नहीं होती ॥२८॥
हे ब्रह्मन ! ब्रह्माजीके सृष्टि कर्ममें प्रवृत्त होनेपर देवताओंसे लेकर स्थावरपर्यन्त चार प्रकारकी सृष्टि हुई । वह केवल मनोमयी थी ॥२९॥
फिर देवता, असुर, पितृगण और मनुष्य- इन चारोंकी तथा जलकी सृष्टी करनेकी इच्छासे उन्होंने अपने शरीरका उपयोग किया ॥३०॥
सृष्टि-रचनाकी कामनासे प्रजापतिके युक्तचित्त होनेपर तमोगुणकी वृद्धि हुई ।न अतः सबसे पहले उनकी जंघासे असुर उप्तन्न हुए ॥३१॥
तब, हे मैत्रेय ! उन्होंने उस तमोमय शरीरको छोड़ दिया, वह छोडा़ हुआ तमोमय शरीर ही रात्रि हुआ ॥३२॥
फिर अन्य देहमें स्थित होनेपर सृष्टिकी कामनावाले उन प्रजापतिको अति प्रसन्नता हुई, और हे द्विज ! उनके मुखसे सत्त्वप्रधान देवगण उप्तन्न हुए ॥३३॥
तदनन्तर उस शरीरको भी उन्होंने त्याग दिया । वह त्यागा हुआ शरीर ही सत्त्वस्वरूप दिन हुआ । इसीलिये रात्रिमें असुर बलवान् होते हैं और दिनमें देवगणोंका बल विशेष होता है ॥३४॥
फिर उन्होंने आंशिक सत्त्वमय अन्य शरीर ग्रहण किया और अपनेको पितृवत् मानते हुए ( अपने पार्श्व भागसे ) पितृगणकी रचना की ॥३५॥
पितृगृणकी रचना कर उन्होनें उस शरीरको भी छोड़ दिया । वह त्यागा हुआ शरीर ही दिन और रात्रिके बीचमें स्थित सन्ध्या हुई ॥३६॥
तत्पश्चात् उन्होंने आंशिक रजोमय अन्य शरीर धारण किया; हे द्विजश्रेष्ठ ! उससे रजः प्रधान मनुष्य उप्तन्न हुए ॥३७॥
फिर शीघ्र ही प्रजापतिने उस शरीरको भी त्याग दिया, वही ज्योत्स्ना हुआ, जिसे पूर्व सन्ध्या अर्थात प्राप्तःकाल कहते है ॥३८॥
इसीलिये, हे मैत्रेय ! प्रातःकाल होनेपर मनुष्य और सायंकालके समय पितर बलवान् होते हैं ॥३९॥
इस प्रकर रात्रि, दिन, प्रातःकाल और सायंकाल ये चारों प्रभु ब्रह्माजीके शरीर हैं और तीनों गुणोंके आश्रय हैं ॥४०॥
फिर ब्रह्माजीने एक और रजोमात्रात्मक शरीर धारण किया । उसके द्वरा ब्रह्माजीसे क्षुधा उप्तन्न हुई और क्षुधासे कामकी उप्तत्ति हुई ॥४१॥
तब भगवान् प्रजापतिने अन्धकारमें स्थित होकर क्षुधाग्रस्त सृष्टिकी, रचना की । उसमें बडे़ कुरूप और दाढी़ मूँछवाले व्यक्ति उप्तन्न हुए । वे स्वयं ब्रह्माजीकी ओर ही ( उन्हें भक्षण करनेके लिये ) दौड़े ॥४२॥
उनमेंसे जिन्होंने यह कहा कि ऐसा मत करो, इनकी रक्षा कर, वे 'राक्षस' कहलाये और जिन्होंने कहा 'हम खायेंगे' वे खानेकी वासनावाले होनेसे ' यक्ष ' कहे गये ॥४३॥
उनकी इस अनिष्ट प्रवृत्तिको देखकर ब्रह्माजीके केश सिरसे गिर गये और फिर पुनः उनके मस्तकपर आरूढ़ हुए । इस प्रकार ऊपर चढनेके कारण वे सर्प कहलाये और नीचे गिरनेके कारण ' अहि' कहे गये । तदनन्तर जगत् रचयिंता ब्रह्माजीने क्रोधित होकर क्रोधयुक्त प्राणियोंकी रचना की: वे कपिश ( कालापन लिये हुए पीले ) वर्णके, अति उग्र स्वभाववाले तथा मांसाहारी हुए ॥४४-४५॥
फिर गान करते समय उनके शरीरसे तुरन्त ही गन्धर्व उप्तन्न हुए । हे द्विज ! वे वाणीका उच्चारण करते अर्थात् बोलते हुए उत्पन्न हुए थे, इसलिये ' गन्धर्व ' कहलाये ॥४६॥
इन सबकी रचना करके भगवान् ब्रह्माजीने पक्षियोंको, उनके पूर्व कर्मोसे प्रेरित होकर स्वच्छन्दतापूर्वक अपनी आयुसे रचा ॥४७॥
तननन्तर अपने वक्षःस्थलसे भेड़ मुखसे बकरी, उदर और पार्श्वभागसे गौ, पैरोंसे घोडे़ हाथी, गधें वनगाय, मृग, ऊँट, खच्चर और न्यंक आदि पशुओंकी रचना की ॥४८-४९॥
उनके रोमोंसे फल मूलस्वरू ओषधियाँ उप्तन्न हूई । हे द्विजोत्तम ! कल्पके आरम्भमें ही ब्रह्माजीने पशु और ओषधि आदिकी रचना करके फिर त्रेतायुगके आरम्भमें उन्हें यज्ञादि कर्मोंमें सम्मिलित किया ॥५०॥
गौ, बकरी, पुरुष, भेड़, घोड़े, खच्चर और गधे ये सब गाँवोंमे रहनेवाले पशु हैं । जंगली पशु ये हैं- श्वापद ( व्याघ्र आदि ), दो खुरवाले ( वनगाय आदि), हाथी बन्दर और पाँचवें पक्षी, छठे जलके जीव तथा सातवें सरीसृप आदि ॥५१-५२॥
फिर अपने प्रथम ( पूर्व ) मुखसे ब्रह्माजीने गायत्री, ऋक्, त्रिवृत्सोम रथन्तर और अग्निष्टोम यज्ञोंको निर्मित किया ॥५३॥
दक्षिण - मुखसे यजु, त्रैष्टुप्छन्द, पत्र्चदशस्तोम, बृहत्साम तथा उक्थकी रचना की ॥५४॥
पश्चिम- मुखसे साम, जगतीछन्द, सप्तदशस्तोम, वैरूप और अतिरात्रको उप्तन्न किया ॥५५॥
तथा उत्तर मुखसे उन्होंने एकविंशतिस्तोम् , अथर्ववेद, आप्तोर्यामाण, अनुष्टुप्छन्द और वैराजकी सृष्टि की ॥५६॥
इस प्रकार उनके शरीरसे समस्त ऊँच नीच प्राणी उप्तन्न हुए । उन आदिकर्ता प्रजापति भगवान् ब्रह्माजीने देव, असुर पितृगण और मनुष्योंकी सृष्टी कर तदनन्तर कल्पका आरम्भ होनेपर फिर यक्ष, पिशाच , गन्धर्व, अप्सरागण, मनुष्य, किन्नर, राक्षस, पशु , पक्षी, मृग और सर्प आदि सम्पूर्ण नित्य एवं अनित्य स्थावर जड्गम जगत्की रचना की । उनमेंसे जिनके जैसे जैसे कर्म पूर्वकल्पोंमें थे पुनः-पुनः सृष्टि होनेपर उनकी उन्हीमें फिर प्रवृत्ति हो जाती है ॥५७-६०॥
उस समय हिंसा-अहिंसा, मृदुता- कठोरता, धर्म- अधर्म, सत्य मिथ्या - ये सब अपनी पूर्व भावनाके अनुसार उन्हें प्राप्त हो जाते हैं, इसीसे ये उन्हें अच्छे लगने लगते हैं ॥६१॥
इस प्रकर प्रभू विधाताने ही स्वयं इन्द्रियोंके विषय भूत और शरीर आदिमें विभिन्नता और व्यवहारको उप्तन्न किया है ॥६२॥
उन्हींने कल्पके आरम्भमें देवता आदि प्राणियोंके वेदानुसार नाम और रूप तथा कार्य विभागको निश्चित किया है ॥६३॥
ऋषियों तथा अन्य प्राणियोंके भी वेदनुकुल नाम और यथायोग्य कर्मोंको उन्हीने निर्दिष्ट किया है ॥६४॥
जिस प्रकर भिन्न भिन्न ऋतुओंके पुनः पुनः आनेपर उनके चिह्न और नाम रूप आदि पूर्ववत् रहते हैं उसी प्रकार युगादिमें भी उनकें पूर्व भाव ही देखे जाते हैं ॥६५॥
सिसृक्षा-शक्त ( सृष्टि - रचनाकी इच्छारूप शक्त ) से युक्त वे ब्रह्मजी सृज्य शक्ति ( सृष्टिके प्रारब्ध ) की प्रेरणासे कल्पोंके आरम्भमें बारम्बार इसी प्रकार सृष्टिकी रचना किया करते हैं ॥६६॥
* सांख्य कारिकामें अट्ठाईस वधोंका वर्णन इस प्रकार किया है -
एकादशेन्द्रियवधाः सह बुद्धिवधैरशक्तिरुद्दिष्टा । सप्तदश वधा बुद्धेर्विपर्ययात्तुष्टिसिद्धीनाम् ॥
आध्यात्मिक्यश्चतस्त्रः प्रकृत्युपादानकालभाग्याख्याः । बाह्मा विषयोपरमात् पत्र्च च नव तृष्टयोऽभिमताः ॥
ऊहः शब्दोऽध्ययनं दुःखविघातास्त्रयः सुहृत्प्राप्तिः । दानत्र्च सिद्धयोऽष्टौ सिद्धेः पूर्वोऽड्कुशस्त्रिविधा ॥ (४९-५१)
ग्यारह इन्द्रियवध और तुष्टि तथा सिद्धिके विपर्ययसे सत्रह बुद्धी वध- ये कल अट्ठाईस वध अशक्ति कहलाते हैं । प्रकृति, उपादान, काल और भाग्य नामक चार अध्यात्मिक और पाँचों ज्ञानेंन्द्रियोंके बाह्य विषयोंके निवृत्त हो जानेसे पाँच बाह्य इस प्रकार कुल नौ तुष्टियाँ हैं तथा ऊहा, शब्द अध्ययन, ( आध्यात्मिक, आधिभौतिक और आधिदैविक ) तीन दुःखविघात, सुहृत्प्राप्ति और दान ये आठ सिद्धियाँ हैं । ये ( इन्द्रियाशक्त, तृष्टि, सिद्धिरूप ) तीनों वध मुक्तिसे पूर्व विघ्ररूप हैं ।
अन्धत्व वधिरत्वादिसे लेकर पागलपनतक मनसहित ग्यारह इन्द्रियोंकी विपरित अवस्थाएँ ग्यारह इन्द्रियवध हैं ।
आठ प्रकरकी प्रकृतिमेंसे किसीमें चित्तका लय हो जानेसे अपनेको मुक्त मान लेना प्रकॄति नामवाली तूष्टि है । संन्याससे ही अपनेको कृतार्थ मान लेना उपादान नामकी तृष्टि है । समय आनेपर स्वयं ही सिद्धि लाभ हो जायगी, ध्यानादि क्लेशकी क्या आवश्यकता है - ऐसा विचार ' भाग्य ' नामकी तुष्टि है । ये चारोंका आत्मासे सम्बन्ध है; अतः ये आध्यात्मिक तुष्टियाँ हैं । पदार्थोंके उपार्जन, रक्षण और व्यय आदिमें दोष देखकर उनसे उपराम हो जाना बाह्म तुष्टियाँ हैं । शब्दादि ब्राह्म विषय पाँच हैं, इसलिये ब्राह्म तुष्टियाँ भी पाँच ही हैं । इस प्रकार कुल नौ तुष्टियाँ है ।
उपदेशकी अपेक्षा न करके स्वयं ही परमार्थका निश्चय कर लेना 'ऊहा' सिद्धि है । प्रसंगवश कहीं कुछ सुनकर उसीसे ज्ञानिसिद्धि मान लेना शब्द सिद्धि है । गुरुसे पढ़्कर ही वस्तु प्राप्त हो गयी- ऐसा मान लेना ' अध्ययन सिद्धि है । आध्यात्मिकादि त्रिविध दूःखोंका नाश हो जाना तीन प्रकारकी 'दुःखविघात' सिद्धि है । अभीष्ट पदार्थकी प्राप्ति हो जाना 'सुहॄत्प्राप्ति' सिद्धि है । तथा विद्वान् या तपस्वियोंका संग प्राप्त हो जाना 'दान' नामिका सिद्धि है । इस प्रकार ये आठ सिद्धियाँ हैं ।
इति श्रीविष्णुपुराणे प्रथमेंऽशे पत्र्चमोऽध्यायः ॥५॥
श्रीमैत्रेयजी बोले-
हे भगवान् ! आपने जो अर्वाक् स्त्रोता मनुष्योंके विषयमें कहा उनकी सृष्टि ब्रह्माजीने किस प्रकार की यह विस्तारपूर्वक कहिये ॥१॥
श्रीप्रजापतिने ब्राह्मणादि वर्णको जिन जिन गुणोंसे युक्त और जिस प्रकार रचा तथा उनके जो- जो कर्वत्य कर्म निर्धारित किये वह सब वर्णन किजिये ॥२॥
श्रीपराशरजी बोले -
द्विजश्रेष्ठ ! जगत्-रचनाकी इच्छासे युक्त सत्यसंकल्प श्रीब्रह्माजीके मुखसे पहले सत्त्वप्रधान प्रजा उप्तन्न हुई ॥३॥
तदनन्तर उनके वक्षःस्थलसे रजः प्रधान तथा जंघाओंसे रज और तमविशिष्ट सृष्टि हुई ॥४॥
हे द्विजोत्तम ! चरणोंसे ब्रह्माजीने एक और प्रकारकी प्रजा उप्तन्न की, वह तमः प्रधान थी । ये ही सब चारों वर्ण हुए ॥५॥
इस प्रकार हे द्विजसत्तम ! ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र ये चारी क्रमशः ब्रह्माजीके मुख्य, वृक्षः स्थल, जानु और चरणोमें उप्तन्न हुए ॥६॥
हे महाभाग ! ब्रह्माजीने यज्ञानुष्ठानके लिये ही यज्ञके उत्तम साधनरूप इस सम्पूर्ण चातुर्वर्ण्यकी रचना की थी ॥७॥
हे धर्मज्ञ ! यज्ञसे तृप्त होकर देवगण जल बरसाकर प्रजाको तृप्त करते हैं; अतः यज्ञ सर्वथा कल्याणका हेतु है ॥८॥
जो मनुष्य सदा स्वधर्मपरायण, सदाचारी, सज्जन और सुमार्गगामी होते हैं उन्हीसें यज्ञका यथावत् अनुष्ठान हो सकता है ॥९॥
हे मुने ! ( यज्ञके द्वारा ) मनुष्य इस मनुष्य शरीरसे ही स्वर्ग और अपवर्ग प्राप्त कर सकते हैं; तथा और भी जिस स्थानकी उन्हें इच्छा हो उसीको जा सकते हैं ॥१०॥
हे मुनिसत्तम ! ब्रह्माजीद्वारा रची हुई वह चातुर्वर्ण्य विभागमें स्थित प्रजा अति श्रद्धायुक्त आचरणवाली, स्वेच्छानुसार रहनेवाली, सम्पूर्ण बाधाओंसे रहित, शुद्ध अन्तःकरणवाली, सत्कुलोप्तन्न और पुण्य कर्मोके अनुष्ठानसे परम पवित्र थी ॥११-१२॥
उसका चित्त शुद्ध होनेके कारण उसमें निरन्तर शुद्धस्वरूप श्रीहरिके विराजमान रहनेसे उन्हें शुद्ध ज्ञान प्राप्त होता था जिससे वे भगवानके उस 'विष्णु' नामक परम पदको देख पाते थे भगवान्के उस 'विष्णु' नामक परम पदको देख पाते थे ॥१३॥
फिर ( त्रेतायुगके आरम्भमें ) हमने तुमसे भगवान्के जिस काल नामक अंशका पहले वर्णन किया है, वह अति अल्प सारवाले ( सुखवाले ) तुच्छ और घोर ( दुःखमय ) पापोंको प्रजामें प्रवृत्त कर देता है ॥१४॥
हे मैत्रेय ! उससे प्रजामें पुरुषार्थका विघातक तथा अज्ञान और लोभको उप्तन्न करनेवाला रागादिरूप अधर्मका बीज उत्पन्न हो जाता है ॥१५॥
तभीसे उसे वह विष्णु पद प्राप्ति रूप स्वाभाविक सिद्धि और रसोल्लास आदि अन्य अष्ट सिद्धियाँ * नहीं मिलतीं ॥१६॥
उन समस्त सिद्धियोंके क्षीण हो जाने और पापके बढ़ जानेसे फिर सम्पूर्ण प्रजा द्वन्दु, ह्यास और दुःखसे आतुर हो गयी ॥१७॥
तब उसने मरुभूमि, पर्वत और जल आदिके स्वाभाविक तथ कृत्रिम दुर्ग और पुर तथा खर्वट** आदि स्थापित किये ॥१८॥
हे महामते ! उन पुर आदिकोंमें शीत और घाम आदि बाधाओंसे बचनेके लिये उसने यथायोग्य घर बनाये ॥१९॥
इस प्रकर शीतोष्णादिसे बचनेका उपाय करके उस प्रजाने जीविकाके साधनरूप कृषि तथा कला-कौशल आदिकी रचना की ॥२०॥
हे मुने ! धान, जौ, गेहूँ, छोटे धान्य,तिल काँगनी , ज्वार , कोदो, छोटी मटर, उड़्द, मूँग, मसूर, बड़ी मटर, कुलथी, राई , चना और सन- ये सत्रह ग्राम्य ओषधियोंकी जतियाँ हैं । ग्राम्य और वन्य दोनों प्रकारकी मिलाकर कुल चौदह ओषधियाँ याज्ञिक हैं । उनके नाम ये हैं-धान, जौ, उड़्द, गेहूँ, छोटे धान्य, तिल, काँगनी और कुलथी ये आठ तथा श्यामाक ( समाँ ), नीबार, वनतिल, गवेधु, वेणुयव और मर्कट ( मक्का ) ॥२१-२५॥
ये चौदह ग्राम्य और वन्य ओषधियाँ यज्ञानुष्ठानकी सामग्री हैं और यज्ञ इनकी उप्तत्तिका प्रधान हेतु है ॥२६॥
यज्ञौके सहित ये औषधियाँ प्रजाकी वृद्धिका परम कारण हैं, इसलियें इहलोक परलोकके ज्ञाता पुरुष यज्ञोंका अनुष्ठान किया करते हैं ॥२७॥
हे मुनिश्रेष्ठ ! नित्यप्रति किया जानेवाला यज्ञानुष्ठान मनुष्योंका परम उपकारक और उनके किये हुए पापोंको शान्त करनेवाला है ॥२८॥
हे महामुने ! जिनके चित्तमें कालकी गतिसे पापका बीज बढता हैं उन्हीं लोगोंका चित्त यज्ञमें प्रवृत्त नहीं होता ॥२९॥
उन यज्ञके विरोधियोंने वैदिक मत, वेद और यज्ञादि कर्म- सभीकी निन्दा की है ॥३०॥
वे लोग दुरात्मा, दुराचारी, कुटिलमति, वेद विनिन्दक और प्रवृत्तिमार्गका उच्छेद करनेवाले ही थे ॥३१॥
हे धर्मवानोंमें श्रेष्ठ मैत्रेय ! इस प्रकार कृषि आदि जीविकाके साधनोंके निश्चित हो जानेपर प्रजापति ब्रह्माजीने प्रजाकी रचना कर उनके स्थान और गुणोंके अनुसार मर्यादा, वर्ण और आश्रमोंके धर्म तथा अपने धर्मका भली प्रकार पालन करनेवाले समस्त वर्णोके लोक आदिकी स्थापना की ॥३२-३३॥
कर्मनिष्ठा ब्राह्मणोंका स्थान पितॄलोक है, युद्ध क्षेत्रसे कभी न हटनेवाले क्षत्रियोंका इन्द्रलोक है ॥३४॥
तथा अपने धर्मका पालन करनेवाले वैश्योंका वायुलोक और सेवाधर्मपरायण शूद्रोंका गन्धर्वलोक है ॥३५॥
अट्ठासी हजार ऊर्ध्वरेता मुनि है; उनका जो स्थान बताया गया है वही गुरुकुलवासी ब्रह्मचारियोंका स्थान है ॥३६॥
इसी प्रकार वनवासी वानप्रस्थोंका स्थान सप्तर्षिलोक, गृहस्थोंका पितृलोक और संन्यासियोंका ब्रह्मलोक है तथा आत्मानुभवसे तृप्त योगियोंका स्थान अमरपद ( मोक्ष ) है ॥३७-३८॥
जो निरन्तर एकान्तसेवी और ब्रह्माचिन्तनमें मग्न रहनेवाले योगिजन हैं उनका जो परमस्थान है उसे पण्डितजन ही देख पाते है ॥३९॥
चन्द्र और सूर्य आदि ग्रह भी अपने अपने लोकोंमे जाकर फिर लौट आते हैं, किन्तु द्वादशाक्षर मन्त्न ( ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ) का चिन्तन करनेवाले अभीतक मोक्षपदसे नहीं लौटे ॥४०॥
तामिस्त्र, अन्धतामिस्त्र, महारौरव, रौरव, असिपत्रवन, घोर, कालसुत्र और अवीचिक आदि जो नरक हैं, वे वेदोंकी निन्दा और यज्ञोंका उच्छेद करनेवाले तथा स्वधर्म विमुख पुरुषोंके स्थान कहे गये हैं ॥४१-४२॥
* रसोल्लासादि अष्ट सिद्धियोंका वर्णन स्कन्दपुराणमें इस प्रकार किया है -
रसस्य स्वत एवान्तरूल्लासः स्याकृते युगे । रसोल्लासाख्यिक सिद्धिस्तया हन्ति क्षुधं नरः ॥
स्त्र्यादीनां नैरपेक्ष्येण सदा तृप्ता प्रजास्तथा । द्वितीया सिद्धिरुद्दिष्टा सा तृत्पिर्मुनिसत्तमैः ॥
धर्मौत्तमश्च योऽस्त्यासां सा तृतीयाऽमिधीयते । चतुर्थी तुल्यता तासामायुषः सुखरूपयोः ॥
ऐकान्त्यबलबाहुल्यं विशोका नाम पत्र्चमी । परमात्मपरत्वेन तपोध्यानादिनिष्ठिता ॥
षष्ठी च कामचारित्वं सप्तमी सिद्धिरुच्यते । अष्टमी च तथा प्रोक्ता यत्रक्क्चनशायिता ॥
अर्थ- सत्ययुगमें रसका स्वयं ही उल्लास होता था । यहीं रसोल्लास नामकी सिद्धि है, उसके प्रभावसे मनुष्य भूखको नष्ट कर देता है । उस समय प्रजा स्त्री आदि भोगोंकी अपेक्षाके बिना ही सदा तृप्त रहती थी; इसीको मुनिश्रेष्ठोंने 'तृप्ति' नामक दूसरी सिद्धि कहा है । उनका जो उत्तम धर्म था वही उनकी तीसरी सिद्धि कही जाती है । उस समय सम्पूर्ण प्रजाके रूप और आयु एक-से थे, यही उनकी चौथी सिद्धि था । बलकी ऐकान्तिकी अधिकता- यह विशोका नामकी पाँचवीं सिद्धि है । परमात्मपरायण रहते हुए तप ध्यानादिमें तप्तर रहना छठी सिद्धि है । स्वेच्छानुसार विचरना सातवीं सिद्धि कही जाती है तथा जहाँ तहाँ मनकी मौज पडे़ रहना आठवीं सिद्धि कही गयी है ।
** पहाड़ या नदीके तटपर बसे हुए छोटे-छोटे टोलोंको 'खर्वट' कहते हैं ।
इति श्रीविष्णुपुराणे प्रथमेंऽशे षष्ठोऽध्यायः ॥६॥
श्रीपराशरजी बोले-
फिर उन प्रजापतिके ध्यान करनेपर उनके देहस्वरूप भूतोंसे उप्तन्न हुए शरीर और इन्द्रियोंके सहित मानस प्रजा उप्तन्न हुई । उस समय मतिमान् ब्रह्माजीके जड शरीरसे ही चेतन जीवोंका प्रादुर्भाव हुआ ॥१॥
मैंने पहले जिनका वर्णन किया है, देवताओंसे लेकर स्थावरपर्यंन्त वे सभी त्रिगुणात्मक चर और अचर जीव इसी प्रकार उप्तन्न हुए ॥२-३॥
जब महाबुद्धिमान् प्रजापतिकी वह प्रजा पुत्र-पौत्रादि - क्रमसे और न बढ़ी तब उन्होनें भृगु, पुलस्त्य, पुलह, क्रतु, अंगिरा, मरीचि , दक्ष , अत्रि और वसिष्ठ-इन अपने ही सदृश अन्य मानस पुत्रोंकी सृष्टि की । पुराणोंमे ये नौ ब्रह्मा माने गये हैं ॥४-६॥
फिर ख्याति, भूति , सम्भूति, क्षमा , प्रीति, सन्नति, ऊर्ज्जा, अनसूया तथा प्रसूति इन नौ कन्याओंको उप्तन्न कर, इन्हें उन महात्माओंको 'तुम इनकी पत्नी हो' ऐसा कहकर सौंप दिया ॥७-८॥
ब्रह्माजीने पहले जिन सनन्दनादिको उप्तन्न किया था वे निरपेक्ष होनेके कारण सन्तान और संसार आदिमें प्रवृत्त्फ़ नहीं हुए ॥९॥
वे सभी ज्ञानसम्पन्न, विरक्त और मत्सरादि दोषोंसे रहित थे । उन महात्माओंको संसार रचनासे ब्रह्माजीको त्रिलोकीको भस्म कर देनेवाला महान् क्रोध उप्तन्न हुआ । हे मुने ! उन ब्रह्माजीके क्रोधके कारण सम्पूर्ण त्रिलोकी ज्वाला-मालाओंसे अत्यन्त देदीप्यमान हो गयी ॥१०-११॥
उस समय उनकी टेढी़ भॄकुटि और क्रोध सन्तत्प ललाटसे दोपहरके सूर्यके समान प्रकाशमान रुद्रकी उप्तत्ति हुई ॥१२॥
उसका अति प्रचण्ड शरीर आधा नर और आधा नारीरूप था । तब ब्रह्माजी 'अपने शरीरका विभाग कर' ऐसा कहकर अन्तर्धान हो गये ॥१३॥
ऐसा कहे जानेपर उस रुद्रने अपने शरीरस्थ स्त्री और पुरुष दोनों भोगोंको अलग अलग कर दिया और फिर पुरुष भागको ग्यारह भागोंमें विभक्त किया ॥१४॥
तथा स्त्री भागको भी सौम्य, क्रूर, शान्त अशान्त और श्याम गौर आदि कई रूपोंमें विभक्त कर दिया ॥१५॥
तदनन्तर हे द्विज ! अपनेसे उप्तन्न अपने ही स्वरूप स्वायम्भुवको ब्रह्माजीने प्रजा पालनके लिये प्रथम मनु बनाया ॥१६॥
उन स्वायम्भुव मनुने ( अपने ही साथ उप्तन्न हुई ) तपके कारण निष्पाप शतरूपा नामकी स्त्रीको अपनी पत्नीरूपसे ग्रहण किया ॥१७॥
हे धर्मज्ञ ! उन स्वायम्भुव मनुसे शतरूपा देवीने प्रियव्रत और उत्तानपादनामक दो पुत्र तथा उदार, रूप और गुणोंसे सम्पन्न प्रसूति और आकूति नामकी दो कन्याएँ उप्तन्न कीं । उनमेंसे प्रसूतिको दक्षके साथ तथा आकूतिको रुचि प्रजापतिके साथ विवाह दिया ॥१८-१९॥
हे महाभाग ! रुचि प्रजापतिने उसे ग्रहण कर लिया । तब उन दम्पतीके यज्ञ और दक्षिणा - ये युगल ( जुड़्वाँ ) सन्तान उप्तन्न हुई ॥२०॥
यज्ञके दक्षिणासे बारह पुत्र हुए, जो स्वायम्भूव मन्वन्तरमें याम नामके देवता कहलाये ॥२१॥
तथा दक्षने प्रसूतिसे चौबीस कन्याएँ उप्तन्न कीं । मुझसे उनके शुभ नाम सुनो ॥२२॥
श्रद्धा, लक्ष्मी, धृति, तृष्टि, मेधा, पृष्टि, क्रिया, बुद्धि, लज्जा, वपु, शान्ति, सिध्दि और तेरहवीं कीर्ति- इन दक्ष कन्याओंको धर्मने पत्नीरूपसे ग्रहण किया । इनसे छोटी शेष ग्यारह कन्याएँ ख्याति, सती, सम्भूति, स्मृति, प्रीति, क्षमा, सन्तति, अनसुया, ऊर्ज्जा, स्वाहा और स्वधा थीं ॥२३-२५॥
हे मुनिसत्तम ! इन ख्याति आदि कन्याओंको क्रमशः भृगु, शिव मरीचि, अंगिरा, पुलस्त्य, पुलह, क्रतु, अत्रि, वसिष्ठ- इन मुनियों तथा अग्नि और पितरोंने ग्रहण किया ॥२६-२७॥
श्रद्धासे काम, चला ( लक्ष्मी ) से दर्प, धृतिसे नियम, तुष्टिसे सन्तोष और पुष्टिसे लोभकी उप्तत्ति हूई ॥२८॥
तथ मेधासे श्रुत, क्रियासे दण्ड, नय और विनय, बुद्धिसे बोध, लज्जासे विनय, वपुसे उसका पुत्र व्यवसाय, शान्तिसे क्षेम, सिद्धिसे सुख और कीर्तिसे यशका जन्म हुआः ये ही धर्मके पुत्र हैं । रीतने कामसे धर्मके पौत्र हर्षको उप्तन्न किया ॥२९-३१॥
अधर्मकी स्त्री हिंसा थी, उससे अनृत नामक पुत्र और निकृति नामकी कन्या उप्तन्न हुई । उन दोनोंसे भय और नरक नामके पुत्र तथा उनकी पत्नियाँ माया और वेदना नामकी कन्याएँ हूई । उनमेंसे मायाने समस्त प्राणियोंका संहारकार्त्ता मृत्यु नामक पुत्र उप्तन्न किया ॥३२-३३॥
वेदनाने भी रौरव ( नरक ) के द्वारा अपने पुत्र दुःखको जन्म दिया और मृत्युसे व्याधि, जरा, शोक तृष्णा और क्रोधाकी उप्तत्ति हुई ॥३४॥
ये सब अधर्मरूप हैं और 'दुःखोत्तर' नामसे प्रसिद्ध हैं, ( क्योंकि इनसे परिणाममें दुःख ही प्राप्त होता है ) इनके न कोई स्त्री है और न सन्तान । ये सब ऊर्ध्वरेता हैं ॥३५॥
हे मुनिकुमार ! ये भगवान् विष्णुके बड़े भयंकर रूप हैं और ये ही संसारके नित्य प्रलयके कारण होते हैं ॥३६॥
हे महाभाग ! दक्ष मरीचि, अत्रि और भृगु आदि प्रजापतिगण इस जगत्के नित्य सर्गके कारण हैं ॥३७॥
तथा मनु और मनुके पराक्रमी, सन्मार्गपरायण और शूर वीर पुत्र राजागण इस संसारकी नित्य स्थितिके कारण हैं ॥३८॥
श्रीमैत्रेयजी बोले- हे ब्रह्मन ! आपने जो नित्यस्थिति नित्य, सर्ग और नित्य प्रलयका उल्लेख किया सो कृपा करके मुझसे इनका स्वरूप वर्णन कीजिये ॥३९॥
श्रीपराशरजी बोले- जिनकी गति कहीं नहीं रुकती वे अचिन्त्यात्मा सर्वव्यापक भगवान् मधुसूदन निरन्तर इन मनु आदि रूपोंसे संसारकी उप्तत्ति, स्थिति और नाश करते रहते हैं ॥४०॥
हे द्विज ! समस्त भूतोंका चार प्रकारका प्रलय है - नैमित्तिक, प्राकृतिक , आत्यन्तिक और नित्य ॥४१॥
उनमेंसे नैमित्तिक प्रलय ही ब्राह्म-प्रलय है, जिसमें जगत्पति ब्रह्माजी कल्पान्तमें शयन करते हैं; तथा प्राकृतिक प्रलयमें ब्रह्माण्ड प्रकृतिमें लीन हो जाता है ॥४२॥
ज्ञानके द्वारा योगीका परमात्मामें लीन हो जाना आत्यान्तिक प्रलय है और रात दिन जो भूतोंका क्षय होता है वही नित्य प्रलय है ॥४३॥
प्रकृतिसे महत्तत्वादिक्रमसे जो सृष्टि होती है वह प्राकृतिक सृष्टि कहलाती है और अवान्तर प्रलयके अनन्तर जो ( ब्रह्माके द्वारा ) चराचर जगत्की उप्तत्ति होती है वह दैनन्दिनी सृष्टि कही जाती है ॥४४॥
और हे मुनिश्रेष्ठ ! जिसमें प्रतिदिन प्राणियोंकी उप्तत्ति होती रहती है उसे पुराणार्थमें कुशल महानुभावोंने नित्य सृष्टि कहा है ॥४५॥
इस प्रकार समस्त शरीरमें स्थित भूतभावन भगवान् विष्णु जगत्की उप्तत्ति, स्थिति और प्रलय करते रहते हैं ॥४६॥
हे मैत्रेय ! सृष्टि, स्थिति और विनाशकीं इन वैष्णवी शक्तियोंका समस्त शरीरोंमें समान भावसे अहिर्निश सत्र्चार होता रहता है ॥४७॥
हे ब्रह्मन् । ये तीनों महतीं शक्तियाँ त्रिगुणमयी है, अतः जो उन तीनों गुणोंका अतिक्रमण कर जाता है वह परमपदको ही प्राप्त कर लेता है, फिर जन्म मरणादिके चक्रमें नहीं पड़्ता ॥४८॥
इति श्रीविष्णुपुराणे प्रथमेंऽशे सप्तमोऽध्यायः ॥७॥
श्रीपराशरजी बोले-
हे महामुने ! मैंने तुमसे ब्रह्माजीके तामस सर्गका वर्णन किया, अब मैं रुद्रसर्गका वर्णण करता हूँ, सो सुनो ॥१॥
कल्पके आदिमे अपने समान पुत्र उप्तन्न होनेके लिये चिन्तन करते हुए ब्रह्माजीकी गोदमें नीललोहित वर्णके एक कुमारका प्रादुर्भाव हुआ ॥२॥
हे द्विजोत्तम ! जन्मके अनन्तर ही वह जोरजोरसे रोने और इधर-उधर दौड़ने लगा । उसे रोता देख ब्रह्माजीने उससे पूछा - 'तू क्यों रोता है ? ' ॥३॥
उसने कहा - "मेरा नाम रखो ।" तब ब्रह्माजी बोले- ' हे देव ! तेरा नाम रुद्र है, अब तू मत रो धैर्य धारण कर । ऐसा कहनेपर भी वह सात बार और रोया ॥४॥
तब भगवान् ब्रह्माजीने उसके सात नाम और रखेः तथा उन आठोंके स्थान, स्त्री और पुत्र भी निश्चित किये ॥५॥
हे द्विज ! प्रजापतिने उसे भव, शर्व , ईशान, पशुपति , भमि, उग्र और महादेव कहकर सम्बोधन किया ॥६॥
यही उसके नाम रखे और इनके स्थान भी निश्चित किये । सूर्य, जल, पृथिवी, वायु, अग्नि, आकाश, ( यज्ञमें ) दीक्षित ब्राह्मण और चन्द्रमा - ये क्रमशः उनकी मूर्तियाँ हैं ॥७॥
हे द्विजश्रेष्ठ ! रुद्र आदि नामोंके साथ उन सूर्य आदि मूर्तियोंकी क्रमशः सुवर्चला, ऊषा विकेशी, अपरा , शिवा, स्वाहा, दिशा, दीक्षा और रोहिणी नामकी पत्नियाँ हैं । हे महाभाग ! अब उनके पुत्रोंके नाम सुनो; उन्हीके पुत्र पौत्रादिकोंसे यह सम्पूर्ण जगत् परिपूर्ण है ॥८-१०॥
शनैश्चर, शुक्र, लोहिताड्ग, मनोजव, स्कन्द, सर्ग, सन्तान और बुध - ये क्रमशः उनके पुत्र हैं ॥११॥
ऐसे भगवान् रुद्रने प्रजापति दक्षकी अनिन्दिता पुत्रीं सतीको अपनी भार्यारूपसे ग्रहण किया ॥१२॥
हे द्विजसत्तम ! उस सतीने दक्षपर कुपित होनेके कारण अपना शरीर त्याग दिया था । फिर वह मेनाके गर्भसे हिमाचलकी पुत्री ( उमा ) हुई । भगवान् शंकरने उस अनन्यपरायणा उमासे फिर भी विवाह किया ॥१३-१४॥
भृगुके द्वारा ख्यातिने धाता और विधातानामक दो देवताओंको तथा लक्ष्मीजीको जन्म दिया जो भगवान विष्णुकी पत्नी हुई ॥१५॥
श्रीमैत्रेयजी बोले - भगवान् ! सुना जाता है कि लक्ष्मीजी तो अमृत मन्थनके समय क्षीर सागरसे उप्तन्न हुई थीं, फिर आप ऐसा कैसे कहते हैं कि वे भॄगुके द्वारा ख्यातिसे उप्तन्न हुई ॥१६॥
श्रीपराशरजी बोले -
हे द्विजोत्तम ! भगवानका कभी संग न छोड़नेवाली जगज्जननी लक्ष्मीजी तो नित्य ही है और जिस प्रकार श्रीविष्णुभगवान सर्वव्यापक है वैसे ही ये भी हैं ॥१७॥
विष्णु अर्थ हैं और ये वाणी हैं, हरि नियम हैं और ये नीति हैं, भगवान विष्णु बोध हैं और ये बुद्धि हैं तथा वे धर्म हैं और ये सत्क्रिया हैं ॥१८॥
हे मैत्रेय ! भगवान जगत्के स्त्रष्टा हैं और लक्ष्मीजी सृष्टि हैं, श्रीहरि भूधर ( पर्वत अथवा राजा ) हैं और लक्ष्मीजी भूमि हैं तथा भगवान सन्तोष हैं और लक्ष्मीजी नित्य-तुष्टि हैं ॥१९॥
भगवान काम हैं और लक्ष्मीजी इच्छा हैं, वे यज्ञ है और ये दक्षिणा हैं, श्रीजनार्दन पुरोडाश हैं और देवी लक्ष्मीजी आज्याहुति ( घृतकी आहुति ) है ॥२०॥
हे मुने ! मधुसूदन यजमानगृह हैं और लक्ष्मीजी पत्नीशाला हैं, श्रीहरि यूप हैं और लक्ष्मीजी चिति हैं तथा भगवान कुशा हैं और लक्ष्मीजी इध्मा हैं ॥२१॥
भगवान् सामस्वरूप हैं और श्रीकमलादेवी उद्गीति हैं, जगत्पति भगवान् वासुदेव हुताशन हैं और लक्ष्मीजी स्वाहा हैं ॥२२॥
हे द्विजोत्तम ! भगवान् विष्णु शंकर हैं और श्रीलक्ष्मीजी गौरी हैं तथा हे मैत्रेय ! श्रीकेशव सूर्य हैं और कमलवासिनी श्रीलक्ष्मीजी उनकी प्रभा हैं ॥२३॥
श्रीविष्णु पितृगण हैं और श्रीकमलका नित्य पुष्टिदायिनी स्वधा हैं, विष्णु अति विस्तीर्ण सर्वात्मक अवकाश हैं और लक्ष्मीजी स्वर्गलोग हैं ॥२४॥
भगवान श्रीधर चन्द्रमा हैं और श्रीलक्ष्मीजी उनकी अक्षय कान्ति हैं, हरि सर्वगामी वायु हैं और लक्ष्मीजी जगच्चेष्टा ( जगत्की गति ) और धृति ( आधार ) हैं ॥२५॥
हे महामुने ! श्रीगोविन्द समुद्र हैं और हे द्विज ! लक्ष्मीजी उसकी तरंग हैं, भगवान् मधुसूदन देवराज इन्द्र हैं और लक्ष्मीजे इन्द्राणी हैं ॥२६॥
चक्रपाणि भगवान् यम हैं और श्रीकमला यमपत्नी धूमोर्णा हैं, देवाधिदेव श्रीविष्णु कुबेर हैं और श्रीलक्ष्मीजी साक्षात् ऋद्धि हैं ॥२७॥
श्रीकेशव स्वयं वरूण हैं और महाभाग लक्ष्मीजी गौरी हैं, हे द्विजराज ! श्रीहरि देवसेनापति स्वामिकार्तिकेय हैं और श्रीलक्ष्मीजी देवसेना हैं ॥२८॥
हे द्विजोत्तम ! भगवान गदाधर आश्रय हैं और लक्ष्मीजी शक्ति हैं, भगवान निमेष हैं और लक्ष्मीजी काष्ठा हैं, वे मुहूर्त हैं और ये कला हैं ॥२९॥
सर्वेश्वर सर्वरूप श्रीहरि दीपक हैं और श्रीलक्ष्मीजी ज्योति हैं श्रीविष्णु वृक्षरूप हैं और जगन्माता श्रीलक्ष्मीजी लता हैं ॥३०॥
चक्रगदाधरदेव श्रीविष्णु दिन हैं और पद्मनिवासिनी रात्रि हैं, कमलनयन भगवान् ध्वजा हैं और पद्मानिवासिनी श्रीलक्ष्मीजी वधू हैं ॥३१॥
भगवान नद हैं और श्रीजी नदी हैं, कमलनयन भगवान् ध्वजा हैं और कमलालया लक्ष्मीजी पताका हैं ॥३२॥
जगदीश्वर परमात्मा नारायण लोभ हैं और लक्ष्मीजी तृष्णा हैं तथा हे मैत्रेय ! रति और राग भी साक्षात् श्रीलक्ष्मी और गोविन्दरूप ही है ॥३३॥
अधिक क्या कहा जाय ? संक्षेपमें, यह कहना चाहिये कि देव, तिर्यक और मनुष्य आदिमें पुरुषवाची भगवान् हरि हैं और स्त्रीवाची श्रीलक्ष्मीजी, इनके परे और कोई नहीं है ॥३४-३५॥
इति श्रीविष्णुपुराणे प्रथमेंऽशे अष्टमोऽध्यायः ॥८॥
श्रीपराशरजी बोले-
हे मैत्रेय ! तुमने इस समय मुझसे जिसके विषयमें पूछा है वह श्रीसम्बन्ध ( लक्ष्मीजीका इतिहास ) मैंने भी मरीचि ऋषिसे सुना था, वह मैं तुम्हें सुनाता हूँ, ( सावधान होकर ) सुनो ॥१॥
एक बार शंकरके अंशावतार श्रीदुर्वासाजी पृथिवीतलमें विचर रहे थे । घूमते घुमते उन्होंने एक विद्याधरीके हाथोंमें सन्तानक पुष्पोंकी एक दिव्य माला देखी । हे ब्रह्मन ! उसकी गन्धसे सुवासित होकर वह वन वनवासियोंके लिये अति सेवनीय हो रहा था ॥२-३॥
तब उन उन्मत्त वृत्तिवाले विप्रवरने वह सुन्दर माला देखकर उसे उस विद्याधर सुन्दरीसे माँगा ॥४॥
उनके माँगनेपर उस बडे-बडे़ नेत्रोंवाली कृशांगी विद्याधरीने उन्हें आदरपूर्वक प्रणाम कर वह माला दे दी ॥५॥
हे मैत्रेय ! उन उन्मत्तवेषधारी विप्रवरने उसे लेकर अपने मस्तकपर डाल लिया और पृथिवीपर विचरने लगे ॥६॥
इसी समय उन्होंने उन्मत्त ऐरावतपर चढ़कर देवताओंके साथ आते हुए त्रैलोक्याधिपति शचीपति इन्द्रको देखा ॥७॥
उन्हें देखकर मुनिवर दुर्वासाने उन्मत्तके समान वह मतवाले भौंरोंसे गुत्र्जायमान माला अपने सिरपरसे उतारकर देवराज इन्द्रके ऊपर फेंक दी ॥८॥
देवराजने उसे लेकर ऐरावतके मस्तकपर डाल दी; उस समय वह ऐसी सुशोभित हूई मानो कैलास पर्वतके शिखरपर श्रीगंगाजी विराजमान हों ॥९॥
उस मदोन्मत हाथीने भी उसकी गन्धसे आकर्षित हो उसे सूँडसे सूँघकर पृथिवीपर फेंक दिया ॥१०॥
हे मैत्रेय ! यह देखकर मुनिश्रेष्ठ भगवान् दुर्वासाजी अति क्रोधित हुए और देवराज इन्द्रसे इस प्रकार बोले ॥११॥
दुर्वासाजीने कहा -अरे ऐश्वर्यके मदसे दूषितचित्त इन्द्र ! तू बड़ा ढीठ है, तुने मेरी दी हुई सम्पूर्ण शोभाकी धाम मालका कुछ भी आदर नहीं किया ! ॥१२॥
अरे ! तूने न तो प्रणाम करके 'बड़ी कृपा की' ऐसा ही कहा और न हर्षसे प्रसन्नवदन होकर उसे अपने सिरपर ही रखा ॥१३॥
रे मूढ़ ! तूने मेरी दी हूई मालाका कुछ भी मूल्य नहीं किया, इसलिये तेरा त्रिलोकीका वैभव नष्ट हो जायगा ॥१४॥
इन्द्र ! निश्चय ही तू मुझे और ब्राह्मणोंके समान ही समझता है, इसीलिये तुझ अति मानीने हमारा इस प्रकार अपमान किया है ॥१५॥
अच्छा, तुने मेरी दी हुई मालाको पृथिवीपर फेंका है इसलिये तेरा यह त्रिभुवन भी शीघ्र ही श्रीहीन हो जायगा ॥१६॥
रे देवराज ! जिसके क्रुद्ध होनेपर सम्पूर्ण चराचर जगत् भयभीत हो जाता है उस मेरा ही तूने अति गर्वसे इस प्रकार अपमान किया ! ॥१७॥
श्रीपराशरजी बोले - तब तो इन्द्रने तुरन्त ही ऐरावत हाथीसे उतरकर निष्पाप मुनिवर दुर्वासाजीको ( अनुनय विनय करके ) प्रसन्न किया ॥१८॥
तब उसके प्रणामादि करनेसे प्रसन्न होकर मुनिश्रेष्ठ दुर्वासाजी उससे इस प्रकार कहने लगे ॥१९॥
दुर्वासाजी बोले -
इन्द्र ! मैं कृपालु चित्त नहीं हूँ, मेरे अन्तः करणमें क्षमाको स्थान नहीं है । वे मुनिजन तो और ही हैं; तुम समझो, मै तो दुर्वासा हूँ न ? ॥२०॥
गौतमादि अन्य मुनिजनोंने व्यर्थ ही तुझे इतना मूँह लगा लिया है; पर याद रख, मुझ दुर्वासाका सर्वस्व तो क्षमा न करना ही है ॥२१॥
दयामूर्ति वसिष्ठ आदिके बढ़-बढ़कर स्तुति करनेसे तू इतना गर्वीला हो गया की आज मेरा भी अपमान करने चला है ॥२२॥
अरे ! आज त्रिलोकीमें ऐसा कौन है जो मेरे प्रज्वलित जटकलाप और टेढ़ी भृकुटिको देखकर भयभीत न हो जाय ? ॥२३॥
रे शतक्रतो ! तू बारम्बार अनुनय विनय करनेका ढोंग क्यों करता है ? तेरे इस कहने सुननेसे क्या होगा ? मैं क्षमा नहीं कर सकता ॥२४॥
श्रीपराशरजी बोले - हे ब्रह्मन ! इस प्रकार कह वे विप्रवर वहाँसे चल दिये और इन्द्र भी ऐरावतपर चढ़्कर अमरावतीको चले गये ॥२५॥
हे मैत्रेय ! तभीसे इन्द्रके सहित तीनों लोक वृक्ष लता आदिके क्षीण हो जानेसे श्रीहीन और नष्ट भ्रष्ट होने लगे ॥२६॥
तबसे यज्ञोंका होना बन्द हो गया, तपस्वियोंने तप करना छोड़ दिया तथा लोगोंका दान आदि धर्मोंमें चित्त नहीं रहा ॥२७॥
हे द्विजोत्तम ! सम्पूर्ण लोक लोभादिके वशीभूत हो जानेसे सत्त्वशून्य ( सामर्थ्यहीन ) हो गये और तुच्छ वस्तुओंके लिये भी लालायित रहने लगे ॥२८॥
जहाँ सत्त्व होता है वहीं लक्ष्मी रहती है और सत्त्व भी लक्ष्मीका ही साथी है । श्रीहीनोंमें भला सत्त्व कहाँ ? और बिना सत्त्वके गुण कैसे ठहर सकते हैं ? ॥२९॥
बिना गुणोंके पुरुषमें बल, शौर्य आदि सभीका अभाव हो जाता है और निर्बल तथा अशक्त पुरुष सभीसे अपमानित होता है ॥३०॥
अपमानित होनेपर प्रतिष्ठित बुद्धी बिगड़ जाती है ॥३१॥
इस प्रकार त्रिलोकीके श्रीहीन और सत्त्वरहित हो जानेपर दैत्य और दानवोंने देवताओंपर चढा़ई कर दी ॥३२॥
सत्त्व और वैभवसे शून्य होनेपर भी दैर्त्योने लोभवश निःसत्त्व और श्रीहीन देवताओंसे घोत युद्ध ठाना ॥३३॥
अन्तमें दैत्योंद्वारा देवतालोग परास्त हुए । तब इन्द्रादि समस्त देवगण अग्निदेवको आगे कर महाभाग पितामह श्रीब्रह्माजीकी शरण गये ॥३४॥
देवताओंसे सम्पूर्ण वृतान्त सुनकर श्रीब्रह्माजीने उनसे कहा, हे देवगण ! तुम दैत्य दलन परावरेश्वर भगवान् विष्णुकी शरण जाओ, जो ( आरोपसे ) संसारकी उप्तत्ति, स्थिति और संहारके कारण हैं किंन्तु ( वस्तवमें ) कारण भी नहीं हैं और जो चराचरके ईश्वर, प्रजापतियोंके स्वामी, सर्वव्यापक, अनन्त और अजेय हैं तथा जो अजन्मा किन्तु कार्यरूपमें परिणत हुए प्रधान ( मूलप्रकृति ) और पुरुषके कारण हैं एवं शरणागतवत्सल हैं । ( शरण जानेपर ) वे अवश्य तुम्हारा मंगल करेंगे ॥३५-३७॥
श्रीपराशरजी बोले- हे मैत्रेय ! सम्पुर्ण देवगणोंसे इस प्रकार कह लोकपितामह श्रीब्रह्माजी भी उनके साथ क्षीरसागरके उत्तरी तटपर गये ॥३८॥
वहाँ पहूँचकर पितामह ब्रह्माजीने समस्त देवताओंके साथ परावरनाथ श्रीविष्णुभगवान्की अति मंगलमय वाक्योंसे स्तुति की ॥३९॥
ब्रह्माजी कहने लगे - जो समस्त अणुओंसे भी अणु और पृथिवी आदि समस्त गुरुओं ( भारी पदार्थों ) से भी गुरु ( भारी ) हैं उन निखिललोकविश्राम, पृथिवीके आधारस्वरूप , अप्रकाश्य, अभेद्य, सर्वरूप, सर्वेश्वर, अनन्त, अज और अव्यय नारायणको मैं नमस्कार करता हूँ ॥४०-४१॥
मेरेसहित सम्पूर्ण जगत् जिसमें स्थित है, जिससे उप्तन्न हुआ है और जो देव सर्वभूतमय है तथा जो पर ( प्रधानादि ) से भी पर है; जो पर पुरुषसे भी पर है,मुक्ति लाभके लिये मोक्षकामी मुनिजन जिसका ध्यान धरते हैं तथा जिस ईश्वरमें सत्त्वादि प्राकृतिक गुणोंका सर्वथा अभाव है वह समस्त शुद्ध पदार्थोंसे भी परम शुद्ध परमात्मस्वरूप आदिपुरुष हमपर प्रसन्न हों ॥४२-४४॥
जिस शुद्धस्वरूप भगवान्के शक्ति ( विभूति ) कला काष्ठा और मुहूर्त आदि काल- क्रमका विषय नहीं है, वे भगवान विष्णु हमपर प्रसन्न हों ॥४५॥
जो शुद्धस्वरूप होकर भी उपचारसे परमेश्वर ( परमा=महालक्ष्मी+ईश्वर = पति ) अर्थात लक्ष्मीपति कहलाते हैं और जो समस्त देहधारियोंके आत्मा हैं वे श्रीविष्णुभगवान् हमपर प्रसन्न हों ॥४६॥
जो कारण और कार्यरूप हैं तथा कारणके भी कारण और कार्यके भी कार्य हैं वे श्रीहरि हमपर प्रसन्न हों ॥४७॥
जो कार्य ( महत्तत्त्व ) के कार्य ( अहंकार ) का भी कार्य ( तन्मात्रापत्र्चक ) है उसके कार्य ( भूतपत्र्चक ) का भी कार्य ( ब्रह्माण्ड ) जो स्वयं है और जो उसके कार्य ( ब्रह्मा दक्षादि ) का भी कार्यभूत ( प्रजापतियोंके पुत्र पौत्रादि ) है उसे हम प्रणाम करते हैं ॥४८॥
तथा जो जगत्के कारण ( ब्रह्मादि ) का कारण ( ब्रह्माण्ड ) और उसके कारण ( भूतपत्र्चक ) के कारण ( पत्र्चतन्मात्रा ) के कारणों ( अहंकार - महत्तत्वादि ) का भी हेतु ( मूलप्रकृति ) है उस परमेश्वरको हम प्रणाम करते हैं ॥४९॥
जो भोक्ता और भोग्य, स्त्रष्टा और सृज्य तथा कर्त्ता और कार्यरूप स्वयं ही है उस परमपदको हम प्रणाम करते हैं ॥५०॥
जो विशुद्ध बोधस्वरूप, नित्य, अजन्मा, अक्षय, अव्यय, अव्यक्त और अविकारी है वही विष्णुका परमपद ( परस्वरूप ) है ॥५१॥
जो न स्थुल है न सूक्ष्म और न किसी अन्य विशेषणका विषय है वही भगवान विष्णुका नित्य-निर्मल परमपद है, हम उसको प्रणाम करते हैं ॥५२॥
जिसके अयुतांश ( दस हजारवें अंश ) के अयुतांशमें यह विश्वरचनाकी शक्ति स्थित है तथा जो परब्रह्मस्वरूप है उस अव्ययको हम प्रणाम करते हैं ॥५३॥
नित्य युक्त योगिगण अपने पुण्य पापदिका क्षय हो जानेपर ॐ कारद्वारा चिन्तनीय जिस अविनाशी पदका साक्षात्कार करते हैं वहीं भगवान विष्णूका परमपद है ॥५४॥
जिसको देवगण, मुनिगण, शंकर, और मैं कोई भी नहीं जान सकते वही परमेश्वर श्रीविष्णुका परमपद है ॥५५॥
जिस अभूतपूर्व देवकी ब्रह्मा, विष्णू और शिवरूप शक्तियाँ हैं वही भगवान् विष्णुका परमपद हैं ॥५६॥
हे सर्वेश्वर ! हे सर्वभूतात्मन ! हे सर्वरूप ! हे सर्वाधार ! हे अच्युत ! हे विष्णो ! हम भक्तोंपर प्रसन्न होकर हमें दर्शन दीजिये ॥५७॥
श्रीपराशरजी बोले-
ब्रह्माजीके इन उद्गारोंको सुनकर देवगण भी प्रणाम करके बोले- 'प्रभो ! हमपर प्रसन्न होकर हमें दर्शन दीजिय ॥५८॥
हे जगद्धाम सर्वगत अच्युत ! जिसे ये भगवान् ब्रह्माजी भी नहीं जानते, आपके उस परमपदको हम प्रणाम करते हैं' ॥५९॥
तदनन्तर ब्रह्मा और देवगणोंके बोल चुकनेपर बृहस्पति आदि समस्त देवर्षिगण कहने लगे - ॥६०॥
'जो परम स्तवनीय आद्य यज्ञ पुरुष हैं और पूर्वजोंके भी पूर्वपुरुष हैं उन जगत्के रचयिता निर्विशेष परमात्माको हम नमस्कार करते हैं ॥६१॥
हे भूत-भव्येश यज्ञमूर्तिधर भगवन ! हे अव्यय ! हम सब शरणागर्तोपर आप प्रसन्न होइये और दर्शन दीजिये ॥६२॥
हे नाथ ! हमारे सहित ये ब्रह्माजी, रुद्रोंके सहित भगवान शंकर, बारहों आदित्योंके सहित भगवान् पूषा, अग्नियोंके सहित पावक और ये दोनों अश्विनीकुमार, आठों वसु, समस्त पावक और ये दोनों अश्विणीकुमार, आठों वसु, समस्त मरुद्गण, साध्यगण, विश्वदेव तथा देवराज इन्द्र ये सभी देवगण दैत्य-सेनासे पराजित होकर अति प्रणत हो आपकी शरणमें आये हैं ॥६३-६५॥
श्रीपराशरजी बोले - हे मैत्रेय ! इस प्रकार स्तुति किये जानेपर शंख चक्रधारी भगवान ! परमेश्वर उनके सम्मुख प्रकट हुए ॥६६॥
तब उस शंख चक्रगदाधारी उत्कृष्ट तेजोराशिमय अपूर्व दिव्य मूर्तिको देखकर पितामह आदि समस्त देवगण अति विनयपूर्वक प्रणामकर क्षोभवश चकित नयन हो उन कमलनयन भगवान्की स्तुति करने लगे ॥६७-६८॥
देवगण बोले -
हे प्रभो ! आपको नमस्कार है, नमस्कार है ! आप निर्विशेष हैं तथापि आप ही ब्रह्मा है आप ही शंकर हैं तथा आप ही इन्द्र, अग्नि, पवन , वरूण, सूर्य और यमराज हैं ॥६९॥
हे देव ! वसुगण, मरुद्गण, साध्यगण और विश्वेदेवगण भी आप ही हैं तथा आपके सम्मुख जो यह देवसमुदाय है, हे जगत्स्त्रष्टा ! वह भी आप ही हैं क्योंकी आप सर्वत्र परिपूर्ण हैं ॥७०॥
आप ही यज्ञ हैं आप ही वषट्कार हैं तथा आप ही ओंकार और प्रजापति हैं । हे सर्वात्मन ! विद्या, वेद्य और सम्पूर्ण जगत् आपहीका स्वरूप तो है ॥७१॥
हे विष्णो ! दैत्योंसे परास्त हुए हम आतुर होकर आपकी शरणमें आये हैं; हे सर्वस्वरूप ! आप हमपर प्रसन्न होइये और अपने तेजसे हमें सशक्त कीजिय ॥७२॥
हे प्रभो ! जबतक जीव सम्पूर्ण पापोंको नष्ट करनेवाले आपकी शरणमें नहीं जाता तभीतक उसमें दीनता, इच्छा मोह और दुःख आदि रहते हैं ॥७३॥
हे प्रसन्नात्मन् ! हम शरणागतोंपर आप प्रसन्न होइये और हे नाथ ! अपनी शक्तिसे हम सब देवताओंके ( खोये हुए ) तेजको फिर बढाइये ॥७४॥
श्रीपराशरजी बोले -
विनीत देवताओद्वारा इस प्रकार स्तुति किये जानेपर विश्वकर्त्ता भगवान् हरि प्रसन्न होकर इस प्रकार बोले- ॥७५॥
हे देवगण ! मैं तुम्हारे तेजको फिर बढा़ऊँगा; तुम इस समय मैं जो कुछ कहता हूँ वह करो ॥७६॥
तुम दैत्योंके साथ सम्पूर्ण ओषधियाँ लाकर अमृतके लिये क्षीर सागरमें डालो और मन्दराचलको मथानी तथा वासुकि नागको नेती बनाकर उसे दैत्य और दानवोंके सहित मेरी सहायतासे मथकर अमृत निकालो ॥७७-७८॥
तुमलोग सामनीतिका अवलम्बन कर दैत्योंसे कहो कि 'इस काममें सहायता करनेसे आपलोग भी इसके फलमें समान भाग पायेंगें' ॥७९॥
समुद्रके मथनेपर उससे जो अमृत निकलेगा उसका पान करनेसे तुम सबल और अमर हो जाओगे ॥८०॥
हे देवगण ! तुम्हारे लिये मैं ऐसी युक्ति करूँगा जिससे तुह्मारे द्वेषी दैत्योंके अमृत न मिल सकेगा और उनके हिस्सेमें केवल समुद्र मन्थनका क्लेश ही आयेगा ॥८१॥
श्रीपराशरजी बोले - तब देवदेव भगवान् विष्णुके ऐसा कहनेपर सभी देवगण दैत्योंसे सन्धि करके अमृतप्राप्तिके लिये यत्न करने लगे ॥८२॥
हे मैत्रेय ! देव, दानव और दैत्योंनें नाना प्रकारकी औषधियाँ लाकर उन्हें शरद् ऋतुके आकाशकी सी निर्मल कान्तिवाले क्षीर सागरके जलमें डाला और मन्दाराचलको मथानी तथा वासुकि नागको नेती बनाकर बडे़ वेगसे अमृत मथना आरम्भा किया ॥८३-८४॥
भगवान्ने जिस ओर वासुकिकी पूँछ थी उस ओर देवताओंको तथा जिस ओर मुख था उधर दैत्योंको नियुक्त किया ॥८५॥
महातेजस्वी वासुकिके मुखसे निकलते हुए निःश्वासाग्निसे झुलसकर सभी दैत्यगण निस्तेज हो गये ॥८६॥
और उसी श्वास वायुसे विक्षिप्त हुए मेघोंके पूँछकी ओर बरसते रहनेसे देवताओंकी शक्ति बढ़ती गयी ॥८७॥
हे महामुने ! भगवान् भगवान् स्वयं कूर्मरूप धारण कर क्षीरसागरमें घूमते हुए मन्दराचलके आधार हुए ॥८८॥
और वे ही चक्र गदाधर भगवान अपने एक अन्य रूपसे देवताओंमें और एक रूपसे दैत्योंमें मिलकर नागराजको खींचनें लगे थे ॥८९॥
एक अन्य विशाल रूपसे जो देवता और दैत्योंको दिखायी नहीं देता था, श्रीकेशवने ऊपरसे पर्वतको दबा रखा था ॥९०॥
भगवान् श्रीहरि अपने तेजसे नागराज वासुकिमें बलका सत्र्चार करते थे और अपने अन्य तेजसे वे देवताओंका बल बढ़ा रहे थे ॥९१॥
इस प्रकार, देवता और दानवोंद्वारा क्षीर समुद्रके मथे जानेपर पहले हवि ( यज्ञ सामग्री ) की आश्रमरूपा सुरपूजिता कामधेनु उप्तन्न हुई ॥९२॥
हे महामुने ! उस समय देव और दानवगण अति आनन्दित हुए और उसकी ओर चित्त खिंच जानेसे उनकी टकटकी बँध गयी ॥९३॥
फिर स्वर्गलोकमें 'यह क्या है ? यह क्या है ? इस प्रकार चिन्ता करते हुए सिद्धोंके समक्ष मदसे घूमते हुए नत्रोंवाली वारुणीदेवी प्रकट हुई ॥९४॥
और पुनः मन्थन करनेपर उस क्षीर सागरसे, अपनी गन्धसे त्रिलोकीको सुगन्धित करनेवाला तथा सुर सुन्दरियोंका आनन्दवर्धक कल्पवृक्ष उत्पन्न हुआ ॥९५॥
हे मैत्रेय ! तत्पश्चात् क्षीर सागरसे रूफ और उदारता आदि गुणोंसे युक्त अति अद्भुत अप्सराएँ प्रकट हुई ॥९६॥
फिर चन्द्रमा प्रकट हुआ जिंसे महादेवजीने ग्रहण कर लिया । इसी प्रकार क्षीर सागरसे उप्तन्न हुए विषको नागोंने ग्रहण किया ॥९७॥
फिर श्वेतवस्त्रधारी साक्षात् भगवान् धन्वन्तरिजी अमृतसे भरा कमण्डलु लिये प्रकट हुए ॥९८॥
हे मैत्रेय ! उस समय मुनिगणके सहित समस्त दैत्य और दानवगण स्वस्थ चित्त होकर अति प्रसन्न हुए ॥९९॥
उसके पश्चात विकसित कमलपर विराजमान स्फुटकान्तिमयी श्रीलक्ष्मीदेवी हाथोंमें कमल पुष्प धारण किये क्षीर समुद्रसे प्रकट हुई ॥१००॥
उस समय महर्षिगण अति प्रसन्नतापूर्वक श्रीसूक्तद्वारा उनकी स्तुति करने लगे तथा विश्वावसु आदि गन्धर्वगण उनके स्तुति करने लगे तथा विश्वावसु आदि गन्धर्वगण उनके सम्मुख गान और घृताची आदि अप्सराएँ नृत्य करने लगीं ॥१०१-१०२॥
उन्हें अपने जलसे स्नान करानेसे लिये गंगा आदि नदियाँ स्वयं उपस्थित हूईं और दिग्गजोंने सुवर्ण कलशोंमें भरे हुए उनके निर्मल जलसे सर्वलोकमहेश्वरी श्रीलक्ष्मीदेवीको स्नान कराया ॥१०३॥
क्षीरसागरने मूर्तिमान् होकर उन्हें विकसित कमल पुष्पोंकी माला दी तथा विश्वकर्माने उनके अंग प्रत्यंगमें विविध आभूषण पहनाये ॥१०४॥
इस प्रकार दिव्य माला और वस्त्र धारण कर, दिव्य जलसें स्नान कर, दिव्य आभूषणोंसे विभूषित हो श्रीलक्ष्मीजी सम्पूर्ण देवताओंके देखते देखते श्रीविष्णुभगवन्के वक्षःस्थलमें विराजमान हुई ॥१०५॥
हे मैत्रेय ! श्रीहरिके वक्षःस्थलमें विराजमान श्रीलक्ष्मीजीका दर्शन कर देवताओंको अकस्मात् अत्यन्त प्रसन्नता प्राप्त हुई ॥१०६॥
और हे महाभाग ! लक्ष्मीजीसे परित्यक्त होनेके कारण भगवान विष्णूके विरोधी विप्रचित्ति आदि दैत्यगण परम उद्विग्र ( व्याकुल ) हुए ॥१०७॥
तब उन महाबलवान् दैत्योंने श्रीधन्वन्तरिजीके हाथसे वह कमंडलु छीन लिया जिसमें अति उत्तम अमृत भरा हुआ था ॥१०८॥
अतः स्त्री ( मोहिनी ) रूपधारी भगवान् विष्णुने अपनी मायासे दानवोंको मोहित कर उनसे वह कमंडलु लेकर देवताओंको दे दिया ॥१०९॥
तब इन्द्र आदि देवगण उस अमृतको पी गये; इससे दैत्यलोग अति तीखे खंग आदि शस्त्रोंसे सुसज्जित हो उनके ऊपर टूट पडे़ ॥११०॥
किन्तु अमृत पानके कारण बलवान् हुए देवताओंद्वारा मारी काटी जाकर दैत्योंकी सम्पूर्ण सेना दिशा विदिशाओंमें भाग गयी और कुछ पाताललोकमें भी चली गयी ॥१११॥
फिर देवगण प्रसन्नतापूर्वक शंख-चक्र-गदा-धारी भगवान्को प्रणाम कह पहलेहीके समान स्वर्गका शासन करने लगे ॥११२॥
हे मुनिश्रेष्ठ ! उस समयसे प्रखर तेजोयुक्त भगवान् सूर्य अपने मार्गसे तथा अन्य तारागण भी अपने अपने मार्गसे चलने लगे ॥११३॥
सुन्दर दीप्तिशाली भगवान् अग्निदेव अत्यन्त प्रज्वलित हो उठे और समयसे समस्त प्राणियोंकी धर्ममें प्रवृत्ति हो गयी ॥११४॥
हे द्विजोत्तम ! त्रिलोकी श्रीसम्पन्न हो गयी और देवताओंमें श्रेष्ठ इन्द्र भी पुनः श्रीमान हो गये ॥११५॥
तदनन्तर इन्दने सर्गलोकमें जाकर फिरसे देवराज्यपर अधिकार पाया और राजसिंहासनपर आरुढ़ हो पद्महस्ता श्रीलक्ष्मीजीकी इस प्रकार स्तुति की ॥११६॥
इन्द्र बोले - सम्पूर्ण लोकोंकी जननी, विकसिअ कमलके सदृश नेत्रोंवाली, भगवान विष्णुके वक्षःस्थलमें विराजमान कमलोद्भवा श्रीलक्ष्मीदेवीको मैम नमस्कार करता हूँ ॥११७॥
कमल ही जिनका निवासस्थान है, कमल ही जिनके कर-कमलोंमे सुशोभित है, तथा कमल द्लके समान ही जिनके नेत्र हैं उन कमलमुखी कमलनाभ प्रिया श्रीकमलादेवीकी मैं वन्दना करता हूँ ॥११८॥
हे देवि ! तुम सिद्धि हो, स्वधा हो, स्वाहा हो, सुधा हो और त्रिलोकीको पवित्र करनेवाली हो तथा तुम ही सन्ध्या, रात्रि, प्रभा, विभूति , मेधा, श्रद्धा और सरस्वती हो ॥११९॥
हे शोभने ! यज्ञ विद्या ( कर्म काण्ड ) महविद्या ( उपासना ) और गुह्याविद्या ( इन्द्रजाल ) तुम्ही हो तथा है देवी ! तुम्ही मुक्ति फल दायिनी आत्मविद्या हो॥१२०॥
हे देवि ! आन्वीक्षिकी ( तर्कविद्य ), वेदत्रयी, वार्ता ( शिल्पवाणिज्यादि ) और दण्डनीति ( राजनीति ) भी तुम्हीं हो ! तुम्होंने अपने शान्त और उग्र रूपोंसे यह समस्त संसार व्याप्त किया हुआ है ॥१२१॥
हे देवि ! तुम्हारे बिना और ऐसी कौन स्त्री है जो देवदेव भगवान् गदाधरके योगिजनचिन्तित सर्वयज्ञमय शरीरका आश्रय पा सके ॥१२२॥
हे देवि ! तुम्हारे छोड़ देनेपर सम्पूर्ण त्रिलोकी नष्टप्राय हो गयी थी; अब तुम्हीनें उसे पुनः जीवन-दान दिया है ॥१२३॥
हे महाभागे ! स्त्री, पुत्र, गृह, धन, धान्य तथा सुहृद ये सब सदा आपहीके दृष्टिपातसे मनुष्योंको मिलते हैं ॥१२४॥
हे देवि ! तुम्हारी कृपा-दृष्टिके पात्र पुरुषोंके लिये शारीरिक आरोग्य, ऐश्वर्य, शत्रु-पक्षका नाश और सुख आदि कुछ भी दुर्लभ नहीं हैं ॥१२५॥
तुम सम्पूर्ण लोकोंकी माता हो और देवदेव भगवान् हरि पिता हैं । हे मातः ! तुमसे और श्रीविष्णुभगवान्से यह सकल चराचर जगत् व्याप्त है ॥१२६॥
हे सर्वपावनि मातेश्वरि ! हमारे कोश ( खजाना ) , गोष्ठ ( पशू-शाला ) , गृह, भोगसामग्री, शरीर और स्त्री आदिको आप कभी न त्यागें अर्थात इनमें भरपूर रहें ॥१२७॥
अयि विष्णुवक्षः स्थल निवासिनि ! हमारे पुत्र, सुहृद्, पशु और भूषण आदिको आप कभी न छोड़े ॥१२८॥
हे अमले ! जिन मनुष्योंको तुम छोड़ देती हो उन्हें सत्त्व ( मानसिक बल ), सत्य, शौच और शील आदि गुण भी शीघ्र ही त्याग देते हैं ॥१२९॥
और तुम्हारी कृपा दृष्टि होनेपर तो गुणहीन पुरुष भी शीघ्र ही शील आदि सम्पूर्ण गुण और कुलीनता तथा ऐश्वर्य आदिसे सम्पन्न हो जाते हैं ॥१३०॥
हे देवि ! जिसपर तुम्हारी कृपादृष्टि है वही प्रशंसनीय है, वही गुणी है, वही धन्यभाग्य है, वही कुलीन और बुद्धिमान है तथा वही शूरवीर और पराक्रमी है ॥१३१॥
हे विष्णुप्रिये ! हे जगज्जननि ! तुम जिससे विमुख हो उसके तो शील आदि सभी गुण तुरन्त अवगुणरूप हो जाते हैं ॥१३२॥
हे देवि ! तुम्हारे गुणोंक वर्णन करनेमें तो श्रीब्रह्माजीकी रसना भी समर्थ नहीं है । ( फिर मैं क्या कर सकता हूँ ? ) अतः हे कमलनयने ! अब मुझपर प्रसन्न हो और मुझे कभी न छोड़े ॥१३३॥
श्रीपराशरजी बोले -
हे द्विज ! इस प्रकार सम्यक् स्तुति किये जानेपर सर्वभूतस्थिता श्रीलक्ष्मीजी सब देवताओंके सुनते हुए इन्द्रसे इस प्रकार बोलीं ॥१३४॥
श्रीलक्ष्मीजी बोलीं -
हे देवेश्वर इन्द्र ! मैं तेरे इस स्तोत्रसे अति प्रसन्न हूँ; तुझको जो अभीष्ट हो वही वर माँग ले । मैं तुझे वर देनेके लिये ही यहाँ आयी हूँ ॥१३५॥
इन्द्र बोले -
हे देवी ! यदि आप वर देना चाहती हैं और मैं भी यदि वर पानेयोग्य हूँ तो मुझको पहला वर तो यही दीजिये कि आप इस त्रिलोकीका कभी त्या न करें ॥१३६॥
और हे समुद्रसम्भवे ! दुसरा वर मुझे यह दीजिये कि जो कोई आपकी इस स्तोत्रसे स्तुति करे उसे आप कभी न त्यानें ॥१३७॥
श्रीलक्ष्मीजी बोलीं - हे देवश्रेष्ठ इन्द्र ! मैं अब इस त्रिलोकीको कभी न छोडूँगी । तेरे स्त्रोत्रसे प्रसन्न होकर मैं तुझे यह वर देती हूँ ॥१३८॥
तथा जो कोई मनुष्य प्रातःकाल और सायंकालके समय इस स्त्रोत्रसे मेरी स्तुति करेगा उससे भी मैं कभी विमुख न होऊँगी ॥१३९॥
श्रीपराशरजी बोले - हे मैत्रेय ! इस प्रकार पूर्वकालमें महाभागा श्रीलक्ष्मीजीने देवराजकी स्तोत्ररूप आराधनासे सन्तुष्ट होकर उन्हें ये वर दिये ॥१४०॥
लक्ष्मीजी पहले भॄगुजीके द्वारा ख्याति नामक स्त्रीसे उप्तन्न हुई थीं, फिर अमृत मन्थनके समय देव और दानवोंके प्रयत्नसे वे समुद्रसे प्रकट हूई ॥१४१॥
इस प्रकार संसारके स्वामी देवाधिदेव श्रीविष्णुभगवान जब-जब अवतार धारण करते हैं तभी लक्ष्मीजी उनके साथ रहती हैं ॥१४२॥
जब श्रीहरि आदित्यरूप हुए तो वे पद्मसे फिर उत्पन्न हुई ( और पद्मा कहलायीं ) । तथा जब वे परशुराम हूए तो ये पृथिवी हुई ॥१४३॥
श्रीहरिके राम होनेपर ये सीताजी हूईं और कृष्णावतारमें श्रीरूक्मिणीजी हुई । इसी प्रकार अन्य अवतारोंमें भी भगवान्से कभी पृथक नहीं होतीं ॥१४४॥
भगवानके देवरुप होनेपर ये दिव्य शरीर धारण करती हैं, और मनुष्य होनेपर मानवीरूपसे प्रकट होती हैं । विष्णुभगवानके शरीरके अनुरूप ही ये अपना शरीर भी बना लेती हैं ॥१४५॥
जो मनुष्य लक्ष्मीजीके जन्मकी इस कथाको सुनेगा अथवा पढे़गा उसके घरमें ( वर्तमान आगामी और भूत ) तीनों कुलोंके रहते हुए कभी लक्ष्मीका नाश न होगा ॥१४६॥
हे मुने ! जिन घरोंमें लक्ष्मीजीके इस स्तोत्रका पाठ होता है उनमें कलहकी आधारभूता दरिद्रता कभी नहीं ठहर सकती ॥१४७॥
हे ब्रह्मन ! तुमने जो मुझसे पूछा था कि पहले भृगुजीकी पुत्री होकर फिर लक्ष्मीजी क्षीर समुद्रसे कैसे उप्तन्न हूई सो मैंने तुमसे यह सब वृत्तान्त कह दिया ॥१४८॥
इस प्रकार इन्द्रके मुखसे प्रकट हुई यह लक्ष्मीजीकी स्तुति सकल विभूतियोंकी प्राप्तिका कारण है, जो लोग इसका नित्यप्रति पाठ करेंगे उनके घरमें निर्धनता कभी नहीं रह सकेगी ॥१४९॥
इति श्रीविष्णुपुराणे प्रथमेंऽशे नवमोऽध्यायः ॥९॥
श्रीमैत्रेयजी बोले -
हे मुने ! मैंने आपसे जो कुछ पूछा था वह सब आपने वर्णन कियाः अब भृगुजीकी सन्तानसे लेकर सम्पूर्ण सृष्टिका आप मुझसे फिर वर्णन कीजिये ॥१॥
श्रीपराशरजी बोले -
भृगुजीके द्वारा ख्यातिसे विष्णुपत्नी लक्ष्मीजी और धाता, विधाता नामक दो पुत्र उप्तन्न हुए ॥२॥
महात्मा मेरुकी आयति और नियतिनाम्री कन्याएँ धाता और विधाताकी स्त्रियाँ थीं; उनसे उनके प्राण और मृकण्ड नामक दो पुत्र हुए । मृकण्डुसे मार्कण्डेय और उनसे वेदशिराका जन्म हुआ । अब प्राणकी सन्तानका वर्णन सुनो ॥३-४॥
प्राणका पुत्र द्युतिमान् और उसका पुत्र राजवान् हुआ । हे महाभाग । उस राजवानसे फिर भृगुंवंशका बड़ा विस्तार हुआ ॥५॥
मरिचिकी पन्ती सम्भूतिने पौर्णमासको उप्तन्न किया । उस महात्माके विरजा और पर्वत दो पुत्र थे ॥६॥
हे द्विज ! उनके वंशका वर्णन करते समय मैं उन दोनोंकी सन्तानका वर्णन करुँगा । अंगिराकी नामकी कन्याएँ , हुई ॥७॥
अत्रिकी भार्या अनसूयाने चन्द्रमा, दुर्वासा और योगी दत्तात्रेय इन निष्पाप पुत्रोंको जन्म दिया ॥८॥
पुलस्त्यकी स्त्री प्रीतिसे दत्तोलिका जन्म हुआ जो अपने पूर्व जन्ममें स्वायम्भुव मन्वन्तरमें अगस्त्य कहा जाता था ॥९॥
प्रजापति पुलहकी पत्नी क्षमासे कर्दम, उर्वरीयान् और सहिष्णु ये तीन पुत्र हुए ॥१०॥
क्रतुकी सन्ताति नामकः भार्याने अँगूठेके पोरुओंके समान शरीरवाले तथा प्रखर सूर्यके समान तेजस्वी वालखिल्यादि साठ हजार ऊर्ध्वरेता मुनियोंको जन्म दिया ॥११॥
वसिष्ठकी ऊर्जा नामक स्त्रीसे रज, गोत्र, ऊर्ध्वबाहु, सवन , अनघ, सुतपा और शुक्र ये सात पुत्र उप्तन्न हुए । ये निर्मल स्वभाववाले समस्त मुनिगण ( तीसरे मन्वन्तरमें ) सप्तर्षि हुए ॥१२-१३॥
हे द्विज ! अग्निका अभिमानी देव, जो ब्रह्माजीका ज्येष्ठ पुत्र है, उसके द्वारा स्वाहा नामक पत्नीसे अति तेजस्वी पावक, पवमान और जलको भक्षण करनेवाला शूचि ये तीन पुत्र हुए ॥१४-१५॥
इन तीनोंके ( प्रत्येकके पन्द्रह पन्द्रह पुत्रके क्रमसे ) पैंतालीस सन्तान हुईं । पिता अग्नि और उसके तीन पुत्रोंको मिलाकर ये सब अग्नि ही कहलाते हैं । इस प्रकार कुल उनचास (४९) अग्नि कहे गये हैं ॥१६-१७॥
हे द्विज ! ब्रह्माजीद्वारा रचे गये जिन अनग्निक अग्निष्वात्ता और साग्निक बर्ह्माजीद्वारा रचे गये जिन अनाग्निक अग्निष्वात्ता और साग्निक बर्हिषद् आदि पतिरोंके विषयमें तुमसे कहा था । उनके द्वारा स्वधाने मेना और धारिणी नामक दो कन्याएँ उप्तन्न कीं । वे दोनों ही उत्तम ज्ञानसे सम्पन्न और सभी गुणोंसे युक्त ब्रह्मावादिनी तथा योगिनी थीं ॥१८-२०॥
इस प्रकार यह दक्षकन्याओंकी वंशपरम्पराका वर्णन किया । जो कोई श्रद्धापूर्वक इसका स्मरण करता है वह निःसन्तान नहीं रहता ॥२१॥
इति श्रीविष्णुपुराणे प्रथमेंऽशे दशमोऽध्यायः ॥१०॥
श्रीपराशरजी बोले -
हे मैत्रेय ! मैंने तुम्हें स्वायम्भूवमनुके प्रियव्रत एवं उत्तानपाद नामक दो महाबलवान् और धर्मज्ञ पुत्र बतलाये थे ॥१॥
हे ब्रह्मन ! उनमेंसे उत्तानपादकी प्रेयसी पत्नी सुरुचिसे पिताका अत्यन्त लाडका उत्तम नामक पुत्र हुआ ॥२॥
हे द्विज ! उस राजाकी जो सुनीति नामक राजमहिषी थी उसमें उसका विशेष प्रेम न था । उसका पुत्र ध्रुव हुआ ॥३॥
एक दिन राजसिंहासनपर बैठे हुए पिताकी गोंदमें अपने भाई उत्तमको बैठा देख ध्रुवकी इच्छा भी गोदमें बैठनेकी हुई ॥४॥
किन्तु राजाने अपनी प्रेयसी सुरुचिके सामने, गोदमें चढनेके लिये उत्कण्ठित होकर प्रेमवश आये हुए उस पुत्रका आदर नहीं किया ॥५॥
आपनी सौतके पुत्रको गोदमें चढनेके लिये उत्सुक और अपने पुत्रको गोदमेम बैठा देख सुरुचि इस प्रकार कहने लगी ॥६॥
"अरे लल्ला ! बिना मेरे पेटसे उत्पन्न हुए किसी अन्य स्त्रीका पुत्र होकर भी तु व्यर्थ क्यों ऐसा बड़ा मनोरथ करता है ? ॥७॥
तू अविवेकी है, इसीलिये ऐसी अलभ्य उत्तमोत्तम वस्तुकी इच्छा करता है । यह ठिक है कि तू भी इन्हीं राजाका पुत्र है, तथापि मैनें तो तुझे अपने गर्भमें धारण नहीं किया ! ॥८॥
समस्त चक्रवर्ती राजाओंका आश्रयरूप यह राजसिंहासन तो मेरे ही पुत्रके योग्य है; तू व्यर्थ क्यों अपने चित्तको सन्ताप देता है ? ॥९॥
मेरे पुत्रके समान तुझे वृथा ही यह ऊँचा मनोरथ क्यों होता है ? क्या तू नहीं जानता कि तेरा जन्म सुनीतिसे हुआ है ? " ॥१०॥
श्रीपराशरजी बोले -
हे द्विज ! विमाताका ऐसा कथन सुन वह बालक कुपित हो पिताको छोडकर अपनी माताके महलको चल दिया ॥११॥
हे मैत्रेय ! जिसके ओष्ठ कुछ- कुछ काँप रहे थे ऐसे अपने पुत्रको क्रोधयुक्त देख सुनीतिने उसे गोदमें बिठाकर पूछा ॥१२॥
"बेटा ! तेरे क्रोधका क्या कारण है ? तेरा किसने आदर नहीं किया ? तेरा अपराध करके कौन तेरे पिताजीका अपमान करने चला है ? " ॥१३॥
श्रीपराशरजी बोले - ऐसा पूछनेपर ध्रुवने अपनी मातासे वे सब बातें कह दीं जो अति गर्वीली सुरुचिने उससे पिताके सामने कही थीं ॥१४॥
अपने पुत्रके सिसक सिसककर ऐसा कहनेपर दुःखिनी सुनीतिने खिन्न चित्त और दीर्घ निःश्वासके कारण मलिननयाना होकर कहा ॥१५॥
सुनीति बोली - बेटा ! सुरुचिने ठिक ही कहा है, अवश्य ही तू मन्दभाग्य है । हे वत्स ! पुण्यवानोंसे उनके विपक्षी ऐसा नहीं कह सकते ॥१६॥
बच्चा ! तू व्याकुल मत हो, क्योंकी तुने पूर्व जन्मोमें जो कुछ किया है उसे दूर कौन कर सकता है ? और जो नहीं किया वह तुझें दे भी कौन सकता है ? इसलिये तुझे उसके वाक्योंसे खेद नहीं करना चाहिये ॥१७-१८॥
हे वत्स ! जिसका पुण्य होता है उसीको राजासन, राजच्छ्फ़त्र तथ उत्तम उत्तम घोडे़ और हाथी आदि मिलते हैं- ऐसा जानकर तू शान्त हो जा ॥१९॥
अन्य जन्मोमें किये हुए पुण्य कर्मोंकि कारण ही सुरुचिमें राजाकी सुरुचि ( प्रीति ) है और पुण्यहीना होनेसे ही मुझ जैसी स्त्री केवल भार्या ( भरण करने योग्य ) ही कही जाती है ॥२०॥
उसी प्रकर उसका पुत्र्फ़ उत्तम भी बड़ा पुण्य पुत्र्जसम्पन्न है और मेरा पुत्र तू ध्रूव मेरे समान भी बड़ा पुण्य पुत्र्जसम्पन्न है और मेरा पुत्र तू ध्रूव मेरे समान ही अल्प पुण्यवान् है ॥२१॥
तथापि बेटा ! तुझे दुःखी नहीं होना चाहिये, क्योंकि जिस मनुष्यको जितना मिलता है वह अपनी ही पूँजीमें मग्न रहता है ॥२२॥
और यदि सुरुचिके वाक्योंसे तुझे अत्यन्त दुःख ही हुआ है तो सर्वफलदायक पुण्यके संग्रह करनेका प्रयत्न कर ॥२३॥
तू सुशील, पुण्यात्मा, प्रेमी और समस्त प्राणियोंका हितैषी बन, क्योंकि जैसे नीची भुमिकी और ढलकता हुआ जल अपने-आप हे पात्रमें आ जाता है वैसे ही सत्पात्र मनुष्यके पास स्वतः ही समस्त सम्पत्तियाँ आ जाती हैं ॥२४॥
ध्रुव बोला -
माताजी ! तुमने मेरे चित्तको शान्त करनेके लिये जो वचन कहे हैं वे दुर्वाक्योंसे बिंधे हुए मेरे हृदयमें तनिक भी नहीं ठहरते ॥२५॥
इसलिये मैं तो अब वही प्रयत्न करुँगा जिससे सम्पूर्ण लोकोंसे आदरणीय सर्वश्रेष्ठ पदको प्राप्त कर सकूँ ॥२६॥
राजाकी प्रियसी तो अवश्य सुरुचि ही है और मैंने उसके उदरसे जन्म भी नहीं लिया है, तथापि हे माता ! अपने गर्भमें बढ़े हुए मेरा प्रभाव भी तुम देखना ॥२७॥
उत्तम, जिसको उसने अपने गर्भमें धारण किया है, मेरा भाई ही है । पिताका दिया हुआ राजासन वही प्राप्त करे । ( भगवान करें ) ऐसा ही हो ॥२८॥
माताजी ! मैं किसी दुसरेके दिये हुए पदका इच्छुक नहीं हूँ; मैं तो अपने पुरुषार्थसे ही उस पदकी इच्छा करता हूँ जिसको पिताजीने भी नहीं प्राप्त किया है ॥२९॥
श्रीपराशरजी बोले -
मातासे इस प्रकार कह ध्रुव उसके महलसे निकल पड़ा और फिर नगरसे बाहर आकर बाहरी उपवनमें पहँचा ॥३०॥
वहाँ ध्रुवने पहलेसे ही आये हुए सात मुनीश्वरोंको कृष्ण मृग चर्मके बिछौनोंसे युक्त आसनोंपर बैठे देखा ॥३१॥
उस राजकुमारने उन सबको प्रणाम कर अति नम्रता और समुचित अभिवादनादिपूर्वक उनसे कहा ॥३२॥
ध्रुवने कहा -
हे महात्माओ ! मुझे आप सुनीतिसे उप्तन्न हुआ राजा उत्तानपादका पुत्र जाने ! मैं आत्मग्लनिके कारण आपके निकट आया हूँ ॥३३॥
ऋषि बोले - राजकुमार ! अभी तो तू चार पाँच वर्षका ही बालक है । अभी तेरे निर्वेदका कोई कारण नहीं दिखायी पड़ता ॥३४॥
तुझे कोई चिन्ताका विषय भी नहीं है, क्योंकि अभी तेरा पिता राजा जीवित है और हे बालक ! तेरी कोई इष्ट वस्तु खो गयी हो ऐसा भी हमें दिखायी नहीं देता ॥३५॥
तथा हमें तेरे शरीरमें भी कोई व्याधि नहीं दीख पड़ती फिर बता, तेरी ग्लानिका क्या कारण है ? ॥३६॥
श्रीपराशरजी बोले -
तब सुरुचिने उससे जो कुछ कहा था वह सब उसने कह सुनाया । उसे सुनकर वे ऋषिगण आपसमें इस प्रकार कहने लगे ॥३७॥
'अहो ! क्षात्रतेज कैसा प्रबल है, जिससे बालकमें भी इतनी अक्षमा है कि अपनी विमाताका कथन उसके हृदयसें नहीं टलता ॥३८॥
हे क्षत्रियकुमार ! इस निर्वेदके कारण तुने जो कुछ करनेका निश्चय किया है, यदि तुझे रुचि तो , वह हमलोगोंसे कह दे ॥३९॥
और हे अतुलिततेजस्वी ! यह भी बता कि हम तेरी क्या सहायता करें, क्योंकी हमें ऐसा प्रतीत होता है कि तु कुछ कहना चाहता है ॥४०॥
ध्रुवने कहा -
हे द्विजश्रेष्ठ ! मुझे नतो धनकी इच्छा है और न राज्यकी; मैं तो केवल एक उसी स्थानको चाहता हूँ जिसको पहले कभी किसीने न भोगा हो ॥४१॥
हे मुनिश्रेष्ठ ! आपकी यही सहायता होगी कि आप मुझे भली प्रकार यह बता दें कि क्या करनेसे वह सबसे अग्रगण्य स्थान प्राप्त हो सकता है ॥४२॥
मरीचि बोले - हे राजपुत्र ! बिना गोविन्दकी आराधना किये मनुष्यको वह श्रेष्ठ स्थान नहीं मिल सकता; अत: तू श्रीअच्युतकी आराधना कर ॥४३॥
अत्रि बोले -
जो परा प्रकृति आदिसे भी परे हैं वे परमपुरुष जनार्दन जिससे सन्तुष्ट होते हैं उसीको वह अक्षयपद मिलता है यह मैं सत्य-सत्य कहता हूँ ॥४४॥
यदि तू अग्रयस्थानका इच्छुक है तो जिन अव्ययात्मा अच्युतमें यह सम्पूर्ण जगत् ओतप्रोत है उन गोविन्दकी ही आराधना कर ॥४५॥
पुलस्त्य बोले -
जो परब्रह्म परमधाम और परस्वरूप है उन हरिकी आराधना करनेसे मनुष्य अति दुर्लभ मोक्षपदको भी प्राप्त कर लेता है ॥४६॥
पुलह बोले -
हे सुव्रत ! जिन जगत्पतिकी आराधनासे इन्द्रने अत्युत्तम इन्द्रपद प्राप्त किया है तू उन यज्ञपति भगवान विष्णुकी अराधना कर ॥४७॥
क्रतु बोले -
जो परमपुरुष यज्ञपुरुष, यज्ञ और योगेश्वर हैं उन जनार्दनके सन्तुष्ट होनेपर कौन सी वस्तु दुर्लभ रह सकती है ? ॥४८॥
वसिष्ठ बोले -
हे वत्स ! विष्णुभगवान्की आराधना करनेपर तू अपने मनसे जो कुछ चाहेगा वही प्राप्त कर लेगा, फिर त्रिलोकीके उत्तमोत्तम स्थानकी तो बात ही क्या है ? ॥४९॥
ध्रुवने कहा -
हे महर्षिगण ! मुझे विनीतको आपने आराध्यदेव तो बता दिया ! अब उसको प्रसन्न करनेके लिये मुझे क्या जपना चाहिये - यह बताइये । उस महापुरुषकी मुझे जिस प्रकार आराधना करनी बताइये । उस महापुरुषकी मुझे जिस प्रकार आराधना करनी चाहिये, वह आपलोग मुझसे प्रसन्नतापूर्वक कहिये ॥५०-५१॥
ऋषिगण बोले -
हे राजकुमार ! विष्णुभगवानकी आराधनामें तप्तर पुरुषोंको जिस प्रकार उनकी उपासना करनी चाहिये वह तू हमसे यथावत् श्रवण कर ॥५२॥
मनुष्यको चाहिये कि पहले सम्पूर्ण बाह्य विषयोंसे चित्तको हटावे और उसे एकमात्र उन जगदाधारमें ही स्थिर कर दे ॥५३॥
हे राजकुमार ! इस प्रकार एकाग्रचित होकर तन्मय-भावसे जो कुछ जपना चाहिये, वह सुन - ॥५४॥
' ॐ हिरण्यगर्भ, पुरुष, प्रधान और अव्यक्तरूप शुद्धज्ञानस्वरूप वासुदेवको नमस्कार है' ॥५५॥
इस ( ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ) मन्तको पूर्वकालमें तेरे पितामह भगवान् स्वायम्भुवमनुने जपा था । तब उनसे सन्तुष्ट होकर श्रीजनार्दनने उन्हें त्रिलोकीमें दुर्लभ मनोवात्र्छित सिद्धि दी थी । उसी प्रकार तू भी इसका निरन्तर जप करता हुआ श्रीगोविन्दको प्रसन्न कर ॥५६-५७॥
इति श्रीविष्णुपुराणे प्रथमेंऽशे एकादशोऽध्यायः ॥११॥
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