Friday, September 24, 2010

माँ दुर्गा के लोक कल्याणकारी सिद्ध मन्त्र

माँ दुर्गा के लोक कल्याणकारी सिद्ध मन्त्र 

१॰ बाधामुक्त होकर धन-पुत्रादि की प्राप्ति के लिये
"सर्वाबाधाविनिर्मुक्तो धनधान्यसुतान्वित:।
मनुष्यो मत्प्रसादेन भविष्यति न संशय:॥" (अ॰१२,श्लो॰१३)

अर्थ :- मनुष्य मेरे प्रसाद से सब बाधाओं से मुक्त तथा धन, धान्य एवं पुत्र से सम्पन्न होगा- इसमें तनिक भी संदेह नहीं है।
२॰ बन्दी को जेल से छुड़ाने हेतु
"राज्ञा क्रुद्धेन चाज्ञप्तो वध्यो बन्धगतोऽपि वा।
आघूर्णितो वा वातेन स्थितः पोते महार्णवे।।" (अ॰१२, श्लो॰२७)

३॰ सब प्रकार के कल्याण के लिये
"सर्वमङ्गलमङ्गल्ये शिवे सर्वार्थसाधिके।
शरण्ये त्र्यम्बके गौरि नारायणि नमोऽस्तु ते॥" (अ॰११, श्लो॰१०)

अर्थ :- नारायणी! तुम सब प्रकार का मङ्गल प्रदान करनेवाली मङ्गलमयी हो। कल्याणदायिनी शिवा हो। सब पुरुषार्थो को सिद्ध करनेवाली, शरणागतवत्सला, तीन नेत्रोंवाली एवं गौरी हो। तुम्हें नमस्कार है।
४॰ दारिद्र्य-दु:खादिनाश के लिये
"दुर्गे स्मृता हरसि भीतिमशेषजन्तो:
स्वस्थै: स्मृता मतिमतीव शुभां ददासि।
दारिद्र्यदु:खभयहारिणि का त्वदन्या
सर्वोपकारकरणाय सदाऽऽ‌र्द्रचित्ता॥" (अ॰४,श्लो॰१७)

अर्थ :- माँ दुर्गे! आप स्मरण करने पर सब प्राणियों का भय हर लेती हैं और स्वस्थ पुरषों द्वारा चिन्तन करने पर उन्हें परम कल्याणमयी बुद्धि प्रदान करती हैं। दु:ख, दरिद्रता और भय हरनेवाली देवि! आपके सिवा दूसरी कौन है, जिसका चित्त सबका उपकार करने के लिये सदा ही दया‌र्द्र रहता हो।
४॰ वित्त, समृद्धि, वैभव एवं दर्शन हेतु
"यदि चापि वरो देयस्त्वयास्माकं महेश्वरि।।
संस्मृता संस्मृता त्वं नो हिंसेथाः परमापदः।
यश्च मर्त्यः स्तवैरेभिस्त्वां स्तोष्यत्यमलानने।।
तस्य वित्तर्द्धिविभवैर्धनदारादिसम्पदाम्।
वृद्धयेऽस्मत्प्रसन्ना त्वं भवेथाः सर्वदाम्बिके।। (अ॰४, श्लो॰३५,३६,३७)

५॰ समस्त विद्याओं की और समस्त स्त्रियों में मातृभाव की प्राप्ति के लिये
"विद्या: समस्तास्तव देवि भेदा: स्त्रिय: समस्ता: सकला जगत्सु।
त्वयैकया पूरितमम्बयैतत् का ते स्तुति: स्तव्यपरा परोक्ति :॥" (अ॰११, श्लो॰६)

अर्थ :- देवि! सम्पूर्ण विद्याएँ तुम्हारे ही भिन्न-भिन्न स्वरूप हैं। जगत् में जितनी स्त्रियाँ हैं, वे सब तुम्हारी ही मूर्तियाँ हैं। जगदम्ब! एकमात्र तुमने ही इस विश्व को व्याप्त कर रखा है। तुम्हारी स्तुति क्या हो सकती है? तुम तो स्तवन करने योग्य पदार्थो से परे एवं परा वाणी हो।
६॰ शास्त्रार्थ विजय हेतु
"विद्यासु शास्त्रेषु विवेकदीपेष्वाद्येषु च का त्वदन्या।
ममत्वगर्तेऽति महान्धकारे, विभ्रामयत्येतदतीव विश्वम्।।" (अ॰११, श्लो॰ ३१)

७॰ संतान प्राप्ति हेतु
"नन्दगोपगृहे जाता यशोदागर्भ सम्भवा।
ततस्तौ नाशयिष्यामि विन्ध्याचलनिवासिनी" (अ॰११, श्लो॰४२)

८॰ अचानक आये हुए संकट को दूर करने हेतु
"ॐ इत्थं यदा यदा बाधा दानवोत्था भविष्यति।
तदा तदावतीर्याहं करिष्याम्यरिसंक्षयम्ॐ।।" (अ॰११, श्लो॰५५)

९॰ रक्षा पाने के लिये
शूलेन पाहि नो देवि पाहि खड्गेन चाम्बिके।
घण्टास्वनेन न: पाहि चापज्यानि:स्वनेन च॥

अर्थ :- देवि! आप शूल से हमारी रक्षा करें। अम्बिके! आप खड्ग से भी हमारी रक्षा करें तथा घण्टा की ध्वनि और धनुष की टंकार से भी हमलोगों की रक्षा करें।
१०॰ शक्ति प्राप्ति के लिये
सृष्टिस्थितिविनाशानां शक्ति भूते सनातनि।
गुणाश्रये गुणमये नारायणि नमोऽस्तु ते॥

अर्थ :- तुम सृष्टि, पालन और संहार की शक्ति भूता, सनातनी देवी, गुणों का आधार तथा सर्वगुणमयी हो। नारायणि! तुम्हें नमस्कार है।
११॰ प्रसन्नता की प्राप्ति के लिये
प्रणतानां प्रसीद त्वं देवि विश्वार्तिहारिणि।
त्रैलोक्यवासिनामीडये लोकानां वरदा भव॥

अर्थ :- विश्व की पीडा दूर करनेवाली देवि! हम तुम्हारे चरणों पर पडे हुए हैं, हमपर प्रसन्न होओ। त्रिलोकनिवासियों की पूजनीया परमेश्वरि! सब लोगों को वरदान दो।
१२॰ विविध उपद्रवों से बचने के लिये
रक्षांसि यत्रोग्रविषाश्च नागा यत्रारयो दस्युबलानि यत्र।
दावानलो यत्र तथाब्धिमध्ये तत्र स्थिता त्वं परिपासि विश्वम्॥

अर्थ :- जहाँ राक्षस, जहाँ भयंकर विषवाले सर्प, जहाँ शत्रु, जहाँ लुटेरों की सेना और जहाँ दावानल हो, वहाँ तथा समुद्र के बीच में भी साथ रहकर तुम विश्व की रक्षा करती हो।
१३॰ बाधा शान्ति के लिये
"सर्वाबाधाप्रशमनं त्रैलोक्यस्याखिलेश्वरि।
एवमेव त्वया कार्यमस्मद्वैरिविनाशनम्॥" (अ॰११, श्लो॰३८)

अर्थ :- सर्वेश्वरि! तुम इसी प्रकार तीनों लोकों की समस्त बाधाओं को शान्त करो और हमारे शत्रुओं का नाश करती रहो।
१४॰ सर्वविध अभ्युदय के लिये
ते सम्मता जनपदेषु धनानि तेषां तेषां यशांसि न च सीदति धर्मवर्ग:।
धन्यास्त एव निभृतात्मजभृत्यदारा येषां सदाभ्युदयदा भवती प्रसन्ना॥

अर्थ :- सदा अभ्युदय प्रदान करनेवाली आप जिन पर प्रसन्न रहती हैं, वे ही देश में सम्मानित हैं, उन्हीं को धन और यश की प्राप्ति होती है, उन्हीं का धर्म कभी शिथिल नहीं होता तथा वे ही अपने हृष्ट-पुष्ट स्त्री, पुत्र और भृत्यों के साथ धन्य माने जाते हैं।
१५॰ सुलक्षणा पत्‍‌नी की प्राप्ति के लिये
पत्‍‌नीं मनोरमां देहि मनोवृत्तानुसारिणीम्।
तारिणीं दुर्गसंसारसागरस्य कुलोद्भवाम्॥

अर्थ :- मन की इच्छा के अनुसार चलनेवाली मनोहर पत्‍‌नी प्रदान करो, जो दुर्गम संसारसागर से तारनेवाली तथा उत्तम कुल में उत्पन्न हुई हो।
१६॰ आरोग्य और सौभाग्य की प्राप्ति के लिये
देहि सौभाग्यमारोग्यं देहि मे परमं सुखम्।
रूपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि॥

अर्थ :- मुझे सौभाग्य और आरोग्य दो। परम सुख दो, रूप दो, जय दो, यश दो और काम-क्रोध आदि शत्रुओं का नाश करो।
१७॰ महामारी नाश के लिये
जयन्ती मङ्गला काली भद्रकाली कपालिनी।
दुर्गा क्षमा शिवा धात्री स्वाहा स्वधा नमोऽस्तु ते॥

अर्थ :- जयन्ती, मङ्गला, काली, भद्रकाली, कपालिनी, दुर्गा, क्षमा, शिवा, धात्री, स्वाहा और स्वधा- इन नामों से प्रसिद्ध जगदम्बिके! तुम्हें मेरा नमस्कार हो।
१८॰ रोग नाश के लिये
"रोगानशेषानपहंसि तुष्टा रुष्टा तु कामान् सकलानभीष्टान्।
त्वामाश्रितानां न विपन्नराणां त्वामाश्रिता ह्याश्रयतां प्रयान्ति॥" (अ॰११, श्लो॰ २९)

अर्थ :- देवि! तुम प्रसन्न होने पर सब रोगों को नष्ट कर देती हो और कुपित होने पर मनोवाञ्छित सभी कामनाओं का नाश कर देती हो। जो लोग तुम्हारी शरण में जा चुके हैं, उन पर विपत्ति तो आती ही नहीं। तुम्हारी शरण में गये हुए मनुष्य दूसरों को शरण देनेवाले हो जाते हैं।
१९॰ विपत्ति नाश के लिये
"शरणागतदीनार्तपरित्राणपरायणे।
सर्वस्यार्तिहरे देवि नारायणि नमोऽस्तु ते॥" (अ॰११, श्लो॰१२)

अर्थ :- शरण में आये हुए दीनों एवं पीडितों की रक्षा में संलग्न रहनेवाली तथा सबकी पीडा दूर करनेवाली नारायणी देवी! तुम्हें नमस्कार है।
२०॰ पाप नाश के लिये
हिनस्ति दैत्यतेजांसि स्वनेनापूर्य या जगत्।
सा घण्टा पातु नो देवि पापेभ्योऽन: सुतानिव॥

अर्थ :- देवि! जो अपनी ध्वनि से सम्पूर्ण जगत् को व्याप्त करके दैत्यों के तेज नष्ट किये देता है, वह तुम्हारा घण्टा हमलोगों की पापों से उसी प्रकार रक्षा करे, जैसे माता अपने पुत्रों की बुरे कर्मो से रक्षा करती है।
१७॰ भय नाश के लिये
"सर्वस्वरूपे सर्वेशे सर्वशक्ति समन्विते।
भयेभ्याहि नो देवि दुर्गे देवि नमोऽस्तु ते॥
एतत्ते वदनं सौम्यं लोचनत्रयभूषितम्।
पातु न: सर्वभीतिभ्य: कात्यायनि नमोऽस्तु ते॥
ज्वालाकरालमत्युग्रमशेषासुरसूदनम्।
त्रिशूलं पातु नो भीतेर्भद्रकालि नमोऽस्तु ते॥ " (अ॰११, श्लो॰ २४,२५,२६)

अर्थ :- सर्वस्वरूपा, सर्वेश्वरी तथा सब प्रकार की शक्ति यों से सम्पन्न दिव्यरूपा दुर्गे देवि! सब भयों से हमारी रक्षा करो; तुम्हें नमस्कार है। कात्यायनी! यह तीन लोचनों से विभूषित तुम्हारा सौम्य मुख सब प्रकार के भयों से हमारी रक्षा करे। तुम्हें नमस्कार है। भद्रकाली! ज्वालाओं के कारण विकराल प्रतीत होनेवाला, अत्यन्त भयंकर और समस्त असुरों का संहार करनेवाला तुम्हारा त्रिशूल भय से हमें बचाये। तुम्हें नमस्कार है।
२१॰ विपत्तिनाश और शुभ की प्राप्ति के लिये
करोतु सा न: शुभहेतुरीश्वरी
शुभानि भद्राण्यभिहन्तु चापद:।

अर्थ :- वह कल्याण की साधनभूता ईश्वरी हमारा कल्याण और मङ्गल करे तथा सारी आपत्तियों का नाश कर डाले।
२२॰ विश्व की रक्षा के लिये
या श्री: स्वयं सुकृतिनां भवनेष्वलक्ष्मी:
पापात्मनां कृतधियां हृदयेषु बुद्धि:।
श्रद्धा सतां कुलजनप्रभवस्य लज्जा
तां त्वां नता: स्म परिपालय देवि विश्वम्॥

अर्थ :- जो पुण्यात्माओं के घरों में स्वयं ही लक्ष्मीरूप से, पापियों के यहाँ दरिद्रतारूप से, शुद्ध अन्त:करणवाले पुरुषों के हृदय में बुद्धिरूप से, सत्पुरुषों में श्रद्धारूप से तथा कुलीन मनुष्य में लज्जारूप से निवास करती हैं, उन आप भगवती दुर्गा को हम नमस्कार करते हैं। देवि! आप सम्पूर्ण विश्व का पालन कीजिये।
२३॰ विश्व के अभ्युदय के लिये
विश्वेश्वरि त्वं परिपासि विश्वं
विश्वात्मिका धारयसीति विश्वम्।
विश्वेशवन्द्या भवती भवन्ति
विश्वाश्रया ये त्वयि भक्ति नम्रा:॥

अर्थ :- विश्वेश्वरि! तुम विश्व का पालन करती हो। विश्वरूपा हो, इसलिये सम्पूर्ण विश्व को धारण करती हो। तुम भगवान् विश्वनाथ की भी वन्दनीया हो। जो लोग भक्तिपूर्वक तुम्हारे सामने मस्तक झुकाते हैं, वे सम्पूर्ण विश्व को आश्रय देनेवाले होते हैं।
२४॰ विश्वव्यापी विपत्तियों के नाश के लिये
देवि प्रपन्नार्तिहरे प्रसीद
प्रसीद मातर्जगतोऽखिलस्य।
प्रसीद विश्वेश्वरि पाहि विश्वं
त्वमीश्वरी देवि चराचरस्य॥

अर्थ :- शरणागत की पीडा दूर करनेवाली देवि! हमपर प्रसन्न होओ। सम्पूर्ण जगत् की माता! प्रसन्न होओ। विश्वेश्वरि! विश्व की रक्षा करो। देवि! तुम्हीं चराचर जगत् की अधीश्वरी हो।
२५॰ विश्व के पाप-ताप निवारण के लिये
देवि प्रसीद परिपालय नोऽरिभीतेर्नित्यं यथासुरवधादधुनैव सद्य:।
पापानि सर्वजगतां प्रशमं नयाशु उत्पातपाकजनितांश्च महोपसर्गान्॥

अर्थ :- देवि! प्रसन्न होओ। जैसे इस समय असुरों का वध करके तुमने शीघ्र ही हमारी रक्षा की है, उसी प्रकार सदा हमें शत्रुओं के भय से बचाओ। सम्पूर्ण जगत् का पाप नष्ट कर दो और उत्पात एवं पापों के फलस्वरूप प्राप्त होनेवाले महामारी आदि बडे-बडे उपद्रवों को शीघ्र दूर करो।
२६॰ विश्व के अशुभ तथा भय का विनाश करने के लिये
यस्या: प्रभावमतुलं भगवाननन्तो
ब्रह्मा हरश्च न हि वक्तु मलं बलं च।
सा चण्डिकाखिलजगत्परिपालनाय
नाशाय चाशुभभयस्य मतिं करोतु॥

अर्थ :- जिनके अनुपम प्रभाव और बल का वर्णन करने में भगवान् शेषनाग, ब्रह्माजी तथा महादेवजी भी समर्थ नहीं हैं, वे भगवती चण्डिका सम्पूर्ण जगत् का पालन एवं अशुभ भय का नाश करने का विचार करें।
२७॰ सामूहिक कल्याण के लिये
देव्या यया ततमिदं जगदात्मशक्त्या
निश्शेषदेवगणशक्ति समूहमूत्र्या।
तामम्बिकामखिलदेवमहर्षिपूज्यां
भक्त्या नता: स्म विदधातु शुभानि सा न:॥

अर्थ :- सम्पूर्ण देवताओं की शक्ति का समुदाय ही जिनका स्वरूप है तथा जिन देवी ने अपनी शक्ति से सम्पूर्ण जगत् को व्याप्त कर रखा है, समस्त देवताओं और महर्षियों की पूजनीया उन जगदम्बा को हम भक्ति पूर्वक नमस्कार करते हैं। वे हमलोगों का कल्याण करें। 
२८॰ भुक्ति-मुक्ति की प्राप्ति के लिये
विधेहि देवि कल्याणं विधेहि परमां श्रियम्।
रुपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि॥

२९॰ पापनाश तथा भक्ति की प्राप्ति के लिये
नतेभ्यः सर्वदा भक्तया चण्डिके दुरितापहे।
रुपं देहि जयं देहि यशो देहि द्विषो जहि॥

३०॰ स्वर्ग और मोक्ष की प्राप्ति के लिये
सर्वभूता यदा देवि स्वर्गमुक्तिप्रदायिनी।
त्वं स्तुता स्तुतये का वा भवन्तु परमोक्तयः॥

३१॰ स्वर्ग और मुक्ति के लिये
"सर्वस्य बुद्धिरुपेण जनस्य ह्रदि संस्थिते।
स्वर्गापवर्गदे देवि नारायणि नमोस्तुऽते॥" (अ॰११, श्लो८)

३२॰ मोक्ष की प्राप्ति के लिये
त्वं वैष्णवी शक्तिरनन्तवीर्या
विश्वस्य बीजं परमासि माया।
सम्मोहितं देवि समस्तमेतत्
त्वं वै प्रसन्ना भुवि मुक्तिहेतुः॥

३३॰ स्वप्न में सिद्धि-असिद्धि जानने के लिये
दुर्गे देवि नमस्तुभ्यं सर्वकामार्थसाधिके।
मम सिद्धिमसिद्धिं वा स्वप्ने सर्वं प्रदर्शय॥

३४॰ प्रबल आकर्षण हेतु
"ॐ महामायां हरेश्चैषा तया संमोह्यते जगत्,
ज्ञानिनामपि चेतांसि देवि भगवती हि सा।
बलादाकृष्य मोहाय महामाया प्रयच्छति।।" (अ॰१, श्लो॰५५)


उपरोक्त मंत्रों को संपुट मंत्रों के उपयोग में लिया जा सकता है अथवा कार्य सिद्धि के लिये स्वतंत्र रुप से भी इनका पुरश्चरण किया जा सकता है।

Monday, September 13, 2010

॥ पंचश्लोकिगणेशपुराणम्‌ ॥

मोक्ष प्राप्ति के लिए पंचश्लोकिगणेशपुराणम्‌ 

                      ॥ पंचश्लोकिगणेशपुराणम्‌ ॥
श्रीविघ्नेशपुराणसारमुदितं व्यासाय धात्रा पुरातत्खण्डं प्रथमं महागणपतेश्चोपासनाख्यं यथा।
संहर्तुं त्रिपुरं शिवेन गणपस्यादौ कृतं पूजनंकर्तुं सृष्टिमिमां स्तुतः स विधिना व्यासेन बुद्धयाप्तये॥

संकष्टयाश्च विनायकस्य च मनोः स्थानस्य तीर्थस्य वैदूर्वाणां महिमेति भक्तिचरितंतत्पार्थिवस्यार्चनम्‌।
तेभ्यो यैर्यदभीप्सितं गणपतिस्तत्तत्प्रतुष्टो ददौताः सर्वा न समर्थ एव कथितुं ब्रह्मा कुतो मानवः॥

क्रीडाकाण्डमथो वदे कृतयुगे श्वेतच्छविः काश्यपः।सिंहांकः स विनायको दशभुजो भूत्वाथ काशीं ययौ।
हत्वा तत्र नरान्तकं तदनुजं देवान्तकं दानवंत्रेतायां शिवनन्दनो रसभुजो जातो मयूरध्वजः॥

हत्वा तं कमलासुरं च सगणं सिन्धु महादैत्यपंपश्चात्‌ सिद्धिमती सुते कमलजस्तस्मै च ज्ञानं ददौ।
द्वापारे तु गजाननो युगभुजो गौरीसुतः सिन्दुरंसम्मर्द्य स्वकरेण तं निजमुखे चाखुध्वजो लिप्तवान्‌॥
गीताया उपदेश एव हि कृतो राज्ञे वरेण्याय वैतुष्टायाथ च धूम्रकेतुरभिधो विप्रः सधर्मधिकः।
अश्वांको द्विभुजो सितो गणपतिर्म्लेच्छान्तकः स्वर्णदःक्रीडाकाण्डमिदं गणस्य हरिणा प्रोक्तं विधात्रे पुरा॥

एतच्छ्लोकसुपंचकं प्रतिदिनं भक्त्या पठेद्यः पुमान्‌निर्वाणं परमं व्रजेत्‌ स सकलान्‌ भुक्त्वा सुभोगानपि
।    

॥ इति श्रीपंचश्लोकिगणेशपुराणम्‌ ॥                                                          

पूर्वकाल में ब्रह्माजी ने व्यास को श्री विघ्नेश (गणेश) पुराण का सारतत्व बताया था। वह महागणपति का उपासनासंज्ञक प्रथम खण्ड है। भगवान शिव ने पहले त्रिपुर का संहार करने के लिए गणपति का पूजन किया। फिर ब्रह्माजी ने इस सृष्टि की रचना करने के लिए उनकी विधिवत स्तुति की। तत्पश्चात व्यास ने बुद्धि की प्राप्ति के लिए उनका स्तवन किया।संकष्टी देवी की, गणेश की, उनके मंत्र की, स्थान की, तीर्थ की और दूर्वा की महिमा यह भक्तिचरित है। उनके पार्थिव विग्रह का पूजन भी भक्तिचर्या ही है। उन भक्तिचर्या करने वाले पुरुषों में से जिन-जिन ने जिस-जिस वस्तु को पाने की इच्छा की, संतुष्ट हुए गणपति ने वह-वह वस्तु उन्हें दी। उन सबका वर्णन करने में ब्रह्माजी भी समर्थ नहीं हैं, फिर मनुष्य की तो बात ही क्या।'क्रीडाकाण्ड' का वर्णन- सत्ययुग में दस भुजाओं से युक्त श्वेत कान्तिमान कश्यप पुत्र सिंहध्वज महोत्कट विनायक काशी में गए। वहां नरान्तक और उसके छोटे भाई देवान्तक नामक दानव को मारकर त्रेता में वे षड्बाहु शिवनन्दन मयूर ध्वज के रूप में प्रकट हुए। उन्होंने कमलासुर को तथा महादैत्यपति सिन्धु को उसके गणों सहित मार डाला। तत्पश्चात ब्रह्माजी ने सिद्धि और बुद्धि नामक दो कन्याएं उन्हें दीं और ज्ञान भी प्रदान किया।द्वापर युग में गौरीपुत्र गजानन दो भुजाओं से युक्त हुए। उन्होंने अपने हाथ से सिन्दूरासुर का मर्दन करके उसे अपने मुख पर पोत लिया। उनकी ध्वजा में मूषक का चिह्न था। उन्होंने संतुष्ट राजा वरेण्य को गणेश गीता का उपदेश किया। फिर वे धूम्रकेतु नाम से प्रसिद्ध धर्मयुक्त धन वाले ब्राह्मण होंगे। उस समय उनके ध्वज का चिह्न अश्व होगा। उनके दो भुजाएं होंगी। वे गौरवर्ण के गणपति म्लेच्छों का अन्त करने वाले और सुवर्ण के दाता होंगे। गणपति के इस 'क्रीडाकाण्ड' का वर्णन पूर्वकाल में भगवान विष्णु ने ब्रह्माजी से किया था।जो मनुष्य प्रतिदिन भक्तिभाव से इन पांच श्लोकों का पाठ करेगा, वह समस्त उत्तम भोगों का उपभोग करके अन्त में परम निर्वाण (मोक्ष) को प्राप्त होगा।
॥ इस प्रकार 'पंचश्लोकी गणेशपुराण' पूरा हुआ ॥

" मां कामाख्या देवी कवच "


   आज हर व्यक्ति उन्नति, यश, वैभव, कीर्ति, धन-संपदा चाहता है वह भी बिना बाधाओं के। मां कामाख्या देवी का कवच पाठ करने से सभी बाधाओं से मुक्ति मिल जाती है। आप भी कवच का नित्य पाठ कर अपनी मनोवांछित अभिलाषा पूरी कर सकते हैं।नारद उवाचकवच कीदृशं देव्या महाभयनिवर्तकम।कामाख्यायास्तु तद्ब्रूहि साम्प्रतं मे महेश्वर।।नारद जी बोले-महेश्वर!महाभय को दूर करने वाला भगवती कामाख्या कवच कैसा है, वह अब हमें बताएं।
महादेव उवाचशृणुष्व परमं गुहयं महाभयनिवर्तकम्।कामाख्याया: सुरश्रेष्ठ कवचं सर्व मंगलम्।।यस्य स्मरणमात्रेण योगिनी डाकिनीगणा:।राक्षस्यो विघ्नकारिण्यो याश्चान्या विघ्नकारिका:।।क्षुत्पिपासा तथा निद्रा तथान्ये ये च विघ्नदा:।दूरादपि पलायन्ते कवचस्य प्रसादत:।।निर्भयो जायते मत्र्यस्तेजस्वी भैरवोयम:।समासक्तमनाश्चापि जपहोमादिकर्मसु।भवेच्च मन्त्रतन्त्राणां निर्वघ्नेन सुसिद्घये।। 30।।

महादेव जी बोले-सुरश्रेष्ठ! भगवती कामाख्या का परम गोपनीय महाभय को दूर करने वाला तथा सर्वमंगलदायक वह कवच सुनिये, जिसकी कृपा तथा स्मरण मात्र से सभी योगिनी, डाकिनीगण, विघ्नकारी राक्षसियां तथा बाधा उत्पन्न करने वाले अन्य उपद्रव, भूख, प्यास, निद्रा तथा उत्पन्न विघ्नदायक दूर से ही पलायन कर जाते हैं। इस कवच के प्रभाव से मनुष्य भय रहित, तेजस्वी तथा भैरवतुल्य हो जाता है। जप, होम आदि कर्मों में समासक्त मन वाले भक्त की मंत्र-तंत्रों में सिद्घि निर्विघ्न हो जाती है।। 30।।।। 

 " मां कामाख्या देवी कवच "


ओं प्राच्यां रक्षतु मे तारा कामरूपनिवासिनी।आग्नेय्यां षोडशी पातु याम्यां धूमावती स्वयम्।।नैर्ऋत्यां भैरवी पातु वारुण्यां भुवनेश्वरी।वायव्यां सततं पातु छिन्नमस्ता महेश्वरी।। 32।।
कौबेर्यां पातु मे देवी श्रीविद्या बगलामुखी।ऐशान्यां पातु मे नित्यं महात्रिपुरसुन्दरी।। 33।।
ऊध्र्वरक्षतु मे विद्या मातंगी पीठवासिनी।सर्वत: पातु मे नित्यं कामाख्या कलिकास्वयम्।। 34।।
ब्रह्मरूपा महाविद्या सर्वविद्यामयी स्वयम्।शीर्षे रक्षतु मे दुर्गा भालं श्री भवगेहिनी।। 35।।
त्रिपुरा भ्रूयुगे पातु शर्वाणी पातु नासिकाम।चक्षुषी चण्डिका पातु श्रोत्रे नीलसरस्वती।। 36।।
मुखं सौम्यमुखी पातु ग्रीवां रक्षतु पार्वती।जिव्हां रक्षतु मे देवी जिव्हाललनभीषणा।। 37।।
वाग्देवी वदनं पातु वक्ष: पातु महेश्वरी।बाहू महाभुजा पातु कराङ्गुली: सुरेश्वरी।। 38।।
पृष्ठत: पातु भीमास्या कट्यां देवी दिगम्बरी।उदरं पातु मे नित्यं महाविद्या महोदरी।। 39।।
उग्रतारा महादेवी जङ्घोरू परिरक्षतु।गुदं मुष्कं च मेदं च नाभिं च सुरसुंदरी।। 40।।
पादाङ्गुली: सदा पातु भवानी त्रिदशेश्वरी।रक्तमासास्थिमज्जादीनपातु देवी शवासना।। 41।
।महाभयेषु घोरेषु महाभयनिवारिणी।पातु देवी महामाया कामाख्यापीठवासिनी।। 42।।
भस्माचलगता दिव्यसिंहासनकृताश्रया।पातु श्री कालिकादेवी सर्वोत्पातेषु सर्वदा।। 43।।
रक्षाहीनं तु यत्स्थानं कवचेनापि वर्जितम्।तत्सर्वं सर्वदा पातु सर्वरक्षण कारिणी।। 44।।
इदं तु परमं गुह्यं कवचं मुनिसत्तम।कामाख्या भयोक्तं ते सर्वरक्षाकरं परम्।। 45।।
अनेन कृत्वा रक्षां तु निर्भय: साधको भवेत।न तं स्पृशेदभयं घोरं मन्त्रसिद्घि विरोधकम्।। 46।।
जायते च मन: सिद्घिर्निर्विघ्नेन महामते।इदं यो धारयेत्कण्ठे बाहौ वा कवचं महत्।। 47।।
अव्याहताज्ञ: स भवेत्सर्वविद्याविशारद:।सर्वत्र लभते सौख्यं मंगलं तु दिनेदिने।। 48।।
य: पठेत्प्रयतो भूत्वा कवचं चेदमद्भुतम्।स देव्या: पदवीं याति सत्यं सत्यं न संशय:।। 49।।

 अर्थ : कामरूप में निवास करने वाली भगवती तारा पूर्व दिशा में, पोडशी देवी अग्निकोण में तथा स्वयं धूमावती दक्षिण दिशा में रक्षा करें।। 31।। नैऋत्यकोण में भैरवी, पश्चिम दिशा में भुवनेश्वरी और वायव्यकोण में भगवती महेश्वरी छिन्नमस्ता निरंतर मेरी रक्षा करें।। 32।। उत्तरदिशा में श्रीविद्यादेवी बगलामुखी तथा ईशानकोण में महात्रिपुर सुंदरी सदा मेरी रक्षा करें।। 33।। भगवती कामाख्या के शक्तिपीठ में निवास करने वाली मातंगी विद्या ऊध्र्वभाग में और भगवती कालिका कामाख्या स्वयं सर्वत्र मेरी नित्य रक्षा करें।। 34।। ब्रह्मरूपा महाविद्या सर्व विद्यामयी स्वयं दुर्गा सिर की रक्षा करें और भगवती श्री भवगेहिनी मेरे ललाट की रक्षा करें।। 35।। त्रिपुरा दोनों भौंहों की, शर्वाणी नासिका की, देवी चंडिका आँखों की तथा नीलसरस्वती दोनों कानों की रक्षा करें।। 36।। भगवती सौम्यमुखी मुख की, देवी पार्वती ग्रीवा की और जिव्हाललन भीषणा देवी मेरी जिव्हा की रक्षा करें।। 37।। वाग्देवी वदन की, भगवती महेश्वरी वक्ष: स्थल की, महाभुजा दोनों बाहु की तथा सुरेश्वरी हाथ की, अंगुलियों की रक्षा करें।। 38।। भीमास्या पृष्ठ भाग की, भगवती दिगम्बरी कटि प्रदेश की और महाविद्या महोदरी सर्वदा मेरे उदर की रक्षा करें।। 39।। महादेवी उग्रतारा जंघा और ऊरुओं की एवं सुरसुन्दरी गुदा, अण्डकोश, लिंग तथा नाभि की रक्षा करें।। 40।। भवानी त्रिदशेश्वरी सदा पैर की, अंगुलियों की रक्षा करें और देवी शवासना रक्त, मांस, अस्थि, मज्जा आदि की रक्षा करें।। 41।। भगवती कामाख्या शक्तिपीठ में निवास करने वाली, महाभय का निवारण करने वाली देवी महामाया भयंकर महाभय से रक्षा करें। भस्माचल पर स्थित दिव्य सिंहासन विराजमान रहने वाली श्री कालिका देवी सदा सभी प्रकार के विघ्नों से रक्षा करें।। 43।। जो स्थान कवच में नहीं कहा गया है, अतएव रक्षा से रहित है उन सबकी रक्षा सर्वदा भगवती सर्वरक्षकारिणी करे।। 44।। मुनिश्रेष्ठ! मेरे द्वारा आप से महामाया सभी प्रकार की रक्षा करने वाला भगवती कामाख्या का जो यह उत्तम कवच है वह अत्यन्त गोपनीय एवं श्रेष्ठ है।। 45।। इस कवच से रहित होकर साधक निर्भय हो जाता है। मन्त्र सिद्घि का विरोध करने वाले भयंकर भय उसका कभी स्पर्श तक नहीं करते हैं।। 46।। महामते! जो व्यक्ति इस महान कवच को कंठ में अथवा बाहु में धारण करता है उसे निर्विघ्न मनोवांछित फल मिलता है।। 48।। वह अमोघ आज्ञावाला होकर सभी विद्याओं में प्रवीण हो जाता है तथा सभी जगह दिनोंदिन मंगल और सुख प्राप्त करता है। जो जितेन्द्रिय व्यक्ति इस अद्भुत कवच का पाठ करता है वह भगवती के दिव्य धाम को जाता है। यह सत्य है, इसमें संशय नहीं है।। 49।

Saturday, September 04, 2010

कामाख्या, ' सर्वविद्यास्वरुपिणी और सर्वासिद्धिदायिनी

           योनिरुपा कामाख्या देवी का स्वरुप:- 
           श्रीदेवी ने कहा - हे भगवन् ! हे प्रभो ! आप सभी धर्मो के ज्ञाता, सभी विद्याओं के स्वामी, सभी आगमों के प्रकाशक और सदैव आनन्दमय हदयवाले हैं । देव ! मैंने सुना है कि आपकी ही कृपा से समस्त तन्त्रों, सभी प्रकार की साधनाओं और सब प्रकार की विद्याओं की उपासना का फल मिलता है । हे प्रभो ! श्रेष्ठ से भी श्रेष्ठ जो तंत्र आपको ज्ञात हो और अत्यंत श्रेष्ठ ब्रह्म प्रतिपादक जो अपौरुषेय ज्ञान आज भी गुप्त हो, उसे सुनने की मेरी इच्छा है।
         श्री शिव बोले - हे प्राणवल्लभे ! प्रश्न का उत्तर देता हूँ, सुनो !  वरदयिनी महामाया कामाख्या योनिरुपा हैं, वे नित्या हैं, वर और आनन्ददात्री हैं तथा महान ऐश्वर्य को बढ़ानेवाली हैं । वे सबकी जननी और रक्षाकारिणी हैं । वे सदैव स्थूल और सूक्ष्म सभी को मूलभूता, शक्तिस्वरुपा, कल्याणकारिणी हैं । मैं उन्हीं महाविद्या, विराट स्वरुपा '
कामाख्या ' का तन्त्र बताता हूँ । अत्यन्त सावधान चित्त से सुनो । सारे विश्व में जितने प्रकार की विद्याओं की साधना द्वारा साधक लोग जिन विविध सिद्धियों को प्राप्त करते हैं, उन सभी के क्षेत्र में एकमात्र ' कामाख्या ' ही वरदायिनी अर्थात् अभीष्ट फलदात्री हैं । साधकों के लिए ' कामाख्या ' सर्वविद्यास्वरुपिणी और सर्वासिद्धिदायिनी हैं । जो मनुष्य ' कामाख्या ' सर्वविद्यास्वरुपिणी और सर्वसिद्धिदायिनी हैं । जो मनुष्य 'कामाख्या ' के प्रति उदासीन रहता है, वह तीनों लोकों में निन्दित होता है । एकमात्र कामात्मिका महामाया ' कामाख्या ' को छोड़कर अन्य कोई भी सिद्धिरुपी सम्पदा देने में सक्षम नहीं है । ' कामाख्या ' सदैव धर्म और अर्थ - स्वरुपा हैं । ' कामाख्या ' काम और मोक्षस्वरुपा हैं । ' कामाख्या ' ही निर्वाण मुक्ति और ' कामाख्या ' ही  सायुज्य मुक्ति कही गई हैं । ' कामाख्या ' ही सालोक्य और सारुप्य  मुक्तिस्वरुपा हैं । ' कामाख्या ' ही श्रेष्ठ गति हैं । हे देवि ! ब्रह्मत्व, विष्णुत्व, शिवत्व, चन्द्रत्व या समस्त देवताओं का देवत्व जिस शक्ति में निहित है, वही काम - रुपिणी ' कामाख्या ' हैं । सभी  विद्याओं का जो कुछ लौकिक वाक्य है, वही ' कामाख्या ' हैं । सभी विद्याओं का जो कुछ लौकिक वाक्य है, वही ' कामाख्या ' हैं । सभी विद्याओं का जो कुछ लौकिक वाक्य है, वही ' कामाख्या ' हैं । महाविद्यारुपिणी सभी महादेवियाँ ' कामाख्या ' के ही स्वरुप हैं । हे प्रिय ! अपने हदय में उन सबका ध्यान कर स्वयं देख लो । तीनों लोकों में ' कामाख्या ' के अतिरिक्त अन्य कोई नही हैं । तन्त्रादि में लाखो – करोड़ो  महाविद्यालयें वर्णित हैं । हे देवी ! इन सबमें सबसे श्रेष्ठ षोडशी ही मानी गई हैं । हे देवि ! उनकी मूल कारण जगदम्बा ' कामाख्या ' ही हैं । हे देवि ! जिस प्रकार चन्द्रमा की कान्ति प्रकट होती है, फिर लुप्त हो जाती है और पुनः प्रकट होती है, उसी प्रकार स्थावर और जंगम् तथा नित्य और अनित्य - जो कुछ भी है, वह सब ' कामाख्या ' के बिना उत्पन्न नहीं होता,
वह सर्वथा सत्य है ।
         श्री शिव ने कहा - हे देवि ! मैं श्रेष्ठ से भी श्रेष्ठ ' मन्त्रोद्धार ' को कहूँगा, जिसे जानकर देवताओं को भी सिद्धि प्राप्त होती है । सुनो । देवि ! इसके प्रभाव से सारा जगत् मुग्ध हो जाता है । जिस प्रकार बालक को
माता मोहित करती है या राजा जिस प्रकार प्रजा को वशीभूत कर लेता है, उसी  प्रकार हे सुरेश्वरि ! देव, दानव, गन्धर्व, किन्नर आदि क्षण भर में वश में आ जाते हैं । इस मन्त्र के सामने, हे देवि ! राजा और मन्त्री आदि तथा अन्य सभी मनुष्य  भेड़ आदि पशुओं के समान वशीभूत हो जाते हैं । हाथी, घोडे, रथ आदि के रहित
सारी नगरी, राजा - रानी और उर्वशी आदि स्वर्ग की अप्सरायें भी इस मन्त्र के प्रभाव से क्षणभर में वशीभूत हो जाती हैं ॥ हे देवी, महेश्वरी ! श्रेष्ठ साधक इस मन्त्र से स्तम्भन, मोहन, क्षोभण, जृम्भण, द्रावण, त्रासन, विद्वेषण, उच्चाटन और विशेषकर स्त्रियों का आकर्षण तथा अन्य सबका वशीकरण करने में समर्थ होता है । कटाक्ष मात्र से साधक अग्नि, सूर्य, वायु और जल - राशि - सभी को स्तम्भित कर देता है, इसमें सन्देह नहीं । हे प्राणप्रिये ! इस मन्त्र का ज्ञाता कामदेव के समान जगत् को जीत लेता है । तीनों लोकों में उसके लिए कुछ भी असाध्य नहीं रहता । नाद - बिन्दु ( ँ  ) से युक्त ' जृम्भणान्त ' = ' ', ' यात्रा – वाराण ' = ' ', ' वाम - कर्ण ' = ' ' अर्थात् ' त्रीं ' - इस बीज को  त्रिगुणीकृत करे - ' त्री त्रीं त्रीं । कल्पवृक्ष के समान इस मन्त्र का  जप करें । बुद्धिमान् साधक एक, दो या चार बार इसका जप करें । सभी विद्याओं के साधकों को उक्त कामाख्या - मन्त्र की साधना करनी चाहिए, अन्यथा सिद्धि की हानि होती है और उनके पग - पग पर विघ्न होता है ।
शाक्त, वैष्णव, शैव और गाणपत्य - सभी देवताओं के उपासक महामाया द्वारा उसी प्रकार नियन्त्रित रहते है जिस प्रकार तेली का बैल । अतः हे देवी ! उक्त मन्त्र की साधना शाक्तों के लिए आवश्यक हैं । इस मन्त्र की साधना
में चक्रादि - शोधन या कालादि - शोधन की आवश्यकता नहीं है । जो इस मन्त्र  के संबंध में शोधन - विचार करता है, उसका सबकुछ नष्ट हो जाता है और वह नरक में जाता है । हे देवी ! इस मन्त्र की साधना में किसी प्रकार का कष्ट नहीं होता इसके द्वारा शीघ्र ही सिद्धि प्राप्त होती है ।
       श्री देवी ने कहा - काली - तारा का मन्त्र देने में जो चक्र - विचार करता  है, उसकी क्या दशा होती है ? उसके उद्धार का क्या कोई उपाय नहीं हैं ? श्री शिव ने कहा - हे देव - देवेशि ! हम ( ब्रह्मा - विष्णु - शिव ) और  अग्नि तथा काल भी एवं अन्य जो कुछ उत्पन्न हुआ है, वह सब महेश्वरी से ही उत्पन्न हुआ है । कालिका और तारिणी के मन्त्रों की महिमा मैं क्या बताऊँ ! हे प्रिये ! अज्ञान या मोहवश यदि कोई काली और तारा के मन्त्रसंबंध में चक्रादि गणना करता है, तो वह कुत्ते के मल में कीड़े का जन्म पाता है और हे महादेवी ! कल्प के अन्त में भी उसे मोक्ष नहीं मिलता । इन देवी की पूजा विधि कहूँगा, जो तीनों लोकों की सिद्धिदायिनी हैं । हे
देवेशि ! हठपूर्वक घोर साधना करने से जो - जो सिद्धि मिलती है, वह सब इस पूजा से क्षण मात्र में मिल जाती है, इसमें सन्देह नहीं । सिन्दूर से वृत्त ( मंडल ) बनाकर त्रिकोण की रचना करें । उसके मध्य में  स्वबीजों ( त्रीं त्रीं त्रीं ) को उत्तम साधक लिखें । तब चतुष्कोण बनाकर आठ वज्रों को अंकित कर न्यासों को कर आठ दिशाओं में उनकी पूजा करें । कामाख्या मन्त्र के ऋषि अक्षोभ्य, छन्द अनुष्टप्, देवता कामाख्या और  सर्वासिद्धि के लिए विनियोग है । स्व - बीज ( त्रीं ) में छः दीर्घ स्वर लगाकर ( त्रां, त्रीं, त्रूं, त्रैं, त्रौं त्रः ) कराङ्गन्यासादि करे । तब अभीष्टदायिनी कामाख्या देवी का ध्यान करें । लाल वस्त्रधारिणी, द्विभुजा, सिन्दूरतिलक लगाए, निर्मल चन्द्रवत्
उज्ज्वलं एवं कमल के समान सुन्दर मुखवाली, स्वर्णादि के बने मणिमाणिक्य - जटित आभूषणों से शोभित, विविध रत्नों से बने सिंहासन पर बैठी हुई, हँस -  मुखी, पदमराग मणि जैसी आभा वाली, पीनोन्नत - पयोधरा, कृष्णवर्णा, कान तक फैले बड़े - बड़े नेत्रोंवाली, कटाक्ष मात्र से महदैश्वर्यदायिनी, शंकर - मोहिनी, सर्वांग - सुन्दरी, नित्या, विद्याओं द्वारा घिरी हुई, डाकिनी, योगिनी, विद्याधारी समूहों द्वारा शोभायमाना, सुन्दर स्त्रियों से विभूषिता, विविध सुगन्धादि से सुवासित देहवाली, हाथों में ताम्बूलादि लिए  नायिकाओं द्वारा सुशोभिता और प्रति - नियत समस्त सिद्ध समूहों द्वारा  वन्दिता, त्रिनेत्रा, सम्मोहन करनेवाली, पुष्पधनधारिणी, भग - लिंग - समाख्यातां एवं किन्नरियों के समान नृत्यपरायणा देवी के अमृतमय वचनों को  सुनने के लिए उत्सुका सरस्वती और लक्ष्मी से युक्ता देवी कामाख्या समस्त गुणों से सम्पन्ना, असीम दयामयी एवं मंगलरुपिणी हैं । उक्त प्रकार ध्यान कर कामाख्या देवी का आह्वान करें । तब हे शिवप्रिये ! यथाशक्ति विधिपूर्वक उनकी पूजा करें । कुंकुम आदि लाल पुष्पों, सुगन्धित कुसुमों, जवा, यावक, सिन्दूर और विशेषकर करवीर पुष्पों से पूजन करें । हे देवेशि ! करवीर पुष्पों में कामाख्या देवी स्वयं निवास करती हैं । जवा और  मालती आदि सुगान्धित पुष्पों को भी वैसा ही समझें । करवीर पुष्प की महिमा कहना संभव नहीं हैं । जवा पुष्प को देने से साधक गणपतिस्वरुप बन जाता है
        अम्बिका की पूजा सदैव पंचतत्त्वों से करें । पंचतत्त्वों के बिना पूजा व्यर्थ होती है । पंचतत्त्वों के द्वारा देवी की प्रसन्नता क्षणभर में हो जाती हैं । हे महादेवी ! पंचमकारों से साधक शिव स्वरुप हो जाता है । कलियुग में पंचतत्त्वों के समान कुछ भी नहीं है । पंचतत्त्व परब्रह्म स्वरुप है और श्रेष्ठ गतिदायक हैं । हे महादेवी ! पंचतत्त्व स्वयं सदाशिव, ब्रह्मा और विष्णु स्वरुप हैं । पंचतत्त्वों से भोग और मोक्ष दोनों मिलने हैं, अतः उनका साधन ' महायोग ' कहा गया है । पंचतत्त्वों के बिना शाक्तों को सुखभोग और मोक्ष नहीं मिलता । हे देवेशि ! पंचतत्त्वों के प्रभाव से करोड़ो महापाप उसी प्रकार नष्ट हो जाते हैं, जिस प्रकार अग्नि रुई के ढेर को भस्म कर देती हैं । पंचतत्त्व जहाँ होते हैं, वहीं देवी निश्चय ही निवास करती हैं । पंचतत्त्व से रहित स्थान से जगदम्बिका दूर ही रहती हैं । ' मद्य ' से स्वर्ग का आनन्द मिलता है, ' मांस ' से राज्य प्राप्त होता  है, ' मत्स्य ' से भैरवी पुत्र की योग्यता मिलती है और ' मुद्रा ' से साधुता आती है । परम तत्त्व  ' पंचम ' से, हे महादेवी ! मनुष्य सायुज्य -
मुक्ति को प्राप्त करता है । भक्तिपूर्वक देवी का अर्चन करे, तो यह सब लाभ होता है । स्वयम्भू - कुसुमों और कुण्ड - गोलोदभव शुभ - पुष्पों से, कुंकुम आदि से  और आसव से देवी को ' अर्घ्य ' निवेदित करे । विविध उपहार, अन्नादि, खीर आदि नैवेद्यों से तथा वस्त्रों एवं आभूषणों आदि से देवी की पूजा कर आवरण - देवताओं का पूजन करें । वहीं इन्द्रादि दिकपालों और उनके अस्त्रों की पूजा कर हे शंकरि ! श्रेष्ठ साधक दोनों पार्श्वो में लक्ष्मी और सरस्वती की पूजा करें । हे देवी ! यन्त्र के मध्य में अन्नदा, धनदा, सुखदा, जयदा, रसदा, मोहदा, ऋद्धिया,
वृद्धिदा, शुद्धिदा, भुक्तिदा, मुक्तिदा, मोक्षदा, सुखदा, ज्ञानदा, कान्तिदा - इन सोलह महादेवियों की सदा पूजा करें । साथ ही हे शिवे ! यत्नपूर्वक डाकिनी आदि सिद्धियों की उसी प्रकार पूजा करें । तब देवी के षडंगों की पूजा कर पुष्पांजलियाँ प्रदान करें और शुद्ध भाव से साधक यथाशक्ति मन्त्र का जप करें । जप समर्पित कर घण्टाघड़ियाल बजाकर पर - देवता को प्रसन्न करें और स्तोत्र, कवच का पाठ कर विधि पूर्वक प्रणाम करें ।  इसके बाद हदयस्थ देवी को ' शेषिका ' के प्रति उन्मुख कर ईशान कोण में त्रिकोण की कल्पना कर उस पर निर्माल्य छोड़े । साधकों के साथ भक्तिपूर्वक निर्माल्य ग्रहण कर अपनी शक्ति के साथ पंचतत्त्वों से विहार करें । शक्ति ही साधना और जपादि का मूल है । शक्ति ही जीवन का मूल और वही इहलोक  एवं परलोक का मूल है । शक्ति ही तप का मूल है और हे प्रिये ! चारों वर्गों - धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष का भी मूल है । जड़ और जंगम - सभी का मूल शक्ति है । हे देवी ! इस तथ्य को न समझकर पापी लोग निश्चित रुप से भयानक नरक में जाते हैं । इसलिए भगवान् शिव की आज्ञा के अनुसार साधक प्रयत्न करके शक्ति का जूठा द्रव्य पीते हैं अन्यथा रौरव  नरक में जाते हैं । हे देवी ! शक्ति को जो कुछ दिया जाता है, वह देवता को ही अर्पित होता है । जिन उद्देश्यों से वह सब दिया जाता है, हे कुलेश्वरि ! वे सभी सफल होते हैं, यह सर्वथा सत्य है । शक्ति के बिना कलियुग में जो चक्रार्चन करता या
करवाता है, वह घोर नरक में जाता है, उसके मोक्ष का उपाय नहीं है । हे प्रिय ! जिस - जिस कामना के लिए उक्त प्रकार जो देवी की पूजा करता है, वह उस - उस कामना को हस्तगत कर निश्चय ही विजय प्राप्त करता है ।
पुरश्चरणकाल में बुद्धिमान् साधक को एक लाख ' जप ' करना चाहिए और उसका दशांश ' हवन ' घृत, शर्करा, मधु - युक्त खीर द्वारा करना चाहिए । उसका दशांश ' तर्पण ' चन्दनयुक्त जल से करना चाहिए । उसका दशांश गन्धादि द्वारा ' अभिषेक ' करना चाहिए । ' अभिषेक ' का दशांश उत्तम द्विजों को मिष्ठानों द्वारा और देवी - भक्तों को पंचतत्त्वों द्वारा भोजन कराना चाहिए । इस प्रकार पुरश्चरण की क्रिया कर साधक सिद्ध हो जाता है । हे
देवी ! तब वह प्रयोगों के करने में निश्चित रुप से सक्षम हो जाता है । हे कुलेश्वरि ! यह सारा पूजनादि कामाख्या को प्रसन्न करता है । ' त्रिकोण - यन्त्र ' में की गई पूजा से भगवती अत्याधिक प्रसन्न होती हैं । हे
प्रिये ! उसमें आवाहनादि सभी कर्म कर उस पर विविध प्रकार के गन्धादि का लेप करें । इससे देवी को अत्यन्त प्रसन्नता होती है और साधक शीघ्र ही सिद्ध हो जाता है । मेरे ज्ञान में ' त्रिकोण ' पूजा के समान अन्य कोई
पूजा नहीं हैं । 
       श्रीगुरु का रहस्य  :- श्री देवी बोलीं - हे प्रभो महादेव ! गुरुतत्त्व को विशेष रुप से बताइए । हे देव ! गुरुत्व को वहन करना बड़ा कठिन हैं । मनुष्य में यह कैसे आता है ? वहीं सदगुरु या श्रेष्ठ गुरु कौन है, यह भी हे प्रभो ! बताइए । हे महादेव ! मेरे इस घोर सन्देह को दूर करिए । देवी की बात सुनकर भगवान शंकर ने कहा -  सज्जनों के लिए हितकारक श्रेष्ठ सारपूर्ण ज्ञान सुनो । सदाशिव ही गुरु कहे गए हैं । वे आदिनाथ कहलाते हैं
। महाकाली से युक्त वे देव सच्चिदानन्द - स्वरुप हैं । हे महामाये ! उन्हीं के प्रसाद से मैं शिव अजर और अमर हूँ । वे आदिनाथ सनातन परब्रह्म हैं, वे श्री धर्म और तीनों गुणों के प्रभु हैं । अतः मनुष्य ' गुरु ' नहीं हैं, किन्तु उनकी भावना मात्र हैं । जैसे साधकों की दीक्षा में वृक्षादि में पूजन किया जाता है ।  अतएव महेश्वरि ! मनुष्य गुरु कहाँ है ? मनुष्य की ' गुरुता ' तो भावना ही है । हे देवी ! उसमें वास्तविकता नहीं हैं । मन्त्र देनेवाला अपने शिरस्थ कमल में गुरु का जो ध्यान करता है उसी ध्यान को वह शिष्य के सिर में उपदिष्ट करता है । अन्य कोई बात नहीं है । अखण्डमण्डलाकार चराचर जगत् जिसके द्वारा व्याप्त है, उस सचिदानन्द ब्रह्म के पद को जो दिखाता है, उस श्रीगुरु को नमस्कार है - यह जो वन्दना प्रसिद्ध है, उससे स्पष्ट है कि सच्चिदानन्द ब्रह्मपद को  खानेवाला
मनुष्य गुरु है, अतः हे देवी ! मनुष्य में ' गुरुता ' को कल्पना ही की जाती है । न तो गुरु और न स्वयं शिष्य - दोनों की यह मूर्खता ही है कि सदा वे यही निश्चयपूर्वक समझते हैं कि यह मनुष्य ' गुरु ' है और यह ' शिष्य '
वस्तुतः मनुष्य मात्र दिखानेवाला है, स्वयं ' गुरु ' नही हैं । इस प्रकार मनुष्य में गुरु की भावना रखने से मोक्ष नहीं मिलता है, यह सत्य है । हे देवी ! जैसे खानेवाला को भोजन स्वर्णादि - पात्र में दिया जाता है, वैसे ही मन्त्र द्वारा सबकुछ ब्रह्म को समर्पित किया जाता है । हे  कुलेश्वरी ! यदि उस पात्र को निन्दनीय या टूटा हुआ  पाया जाता है, तो उसे त्याग कर अन्य पात्र में भोजन देकर खानेवाले को सन्तुष्ट किया जाता है । उसी प्रकार लालची, दुष्ट मनुष्य शिष्य को पाकर उसे भी छोड़ देना चाहिए क्योंकि संसार में जो निन्दनीय है, उसे मन्त्र देने से सदाशिव रुष्ट होते हैं ।  राजा को जैसे राजत्व और प्रजाओं को मण्डलसमूह का दान जिस प्रकार कल्याणकारी होता है, उसी प्रकार शिष्य को मन्त्रदान श्रेयस्कर होता है । मण्डलादिदान के क्षेत्र में जैसे हिंस्र दान - ग्रहीता को छोड़कर अन्य  उपयुक्त पात्र को ही दान दिया जाता है, उसी प्रकार अन्य क्षेत्रों में - ज्ञान देते समय भी उसी नियम को माना जाता है ।सभी लोकों में सत्य ज्ञान की प्राप्ति के लिए ही गुरु की  सेवा की जाती है । ज्ञान से मोक्ष मिलता है, अतः ज्ञान ही सर्वश्रेष्ठ है । इसलिए जो ज्ञान देता है, उसी का आश्रय गुरु - रुप में लिया जाता है । अन्न का इच्छुक अन्नहीन को छोड़ देता है, वैसे ही ज्ञानेच्छु ज्ञानहीन का त्याग करना है । जिस व्यक्ति में ज्ञानत्रय का प्रकाश होता है, वही गुरु है, शिवस्वरुप ही है । अज्ञानी को छोड़कर ज्ञानियों को ही शरण लेनी  चाहिए । हे पार्वती ! ज्ञान से ही सदा ' धर्म ' होता है, ज्ञान से ' अर्थ ' मिलता है, ज्ञान से ' काम ' की प्राप्ति होती है और ज्ञान से ही निर्मल ' मोक्ष ' मिलता है । ज्ञान ही श्रेष्ठ वस्तु है । ज्ञान से श्रेष्ठ कुछ नहीं है । ज्ञान के
लिए ही देवता की उपासना की जाती है । ज्ञान ही तपस्या का फल है । जैसे मधु की इच्छा से भौंरा एक फूल से दूसरे फूल पर जाता है, वैसे ही ज्ञान के इच्छुक शिष्य को एक गुरु से दूसरे गुरु के पास जाना चाहिए ।
शिष्य का धन लेनेवाले गुरु बहुत हैं किन्तु हे देवी ! शिष्य के दुःख को  दूर करनेवाले सदगुरु दुर्लभ हैं । ज्ञानरुपी अञ्जन को सलाई से अज्ञान रुपी अन्धेपन को दूर कर जो आँखें खोल देते हैं अर्थात् ज्ञान प्रदान करते
हैं, उन श्रीगुरुदेव को नमस्कार है । उक्त बात को समझकर ही साधक को सदा ' गुरुता ' की भावना करनी चाहिए । हे शिव ! ज्ञानी लोगों में ही भक्त शिष्यों की ' गुरुत्व ' की कल्पना होती  है । शान्त, संयमी, कुलीन, सदा शुद्ध अन्तः करण और पंचतत्त्वों से अर्चन करनेवाला जो ज्ञानी है, वही ' सदगुरु ' कहा गया है । बहुत से शिष्यों को आश्रय देने से ' वह सिद्ध हैं '- ऐसी ख्याति प्राप्ति करते हैं । हे प्रिये ! दैवी शक्ति से चमत्कारपूर्ण ' सदगुरु ' कहलाते हैं । जो मनोहर, हितकारी, अभूतपूर्व, तर्कसम्मत बातें करते हैं और तन्त्र - मन्त्र से युक्त कथन करते हैं, वे ही ' सदगुरु ' हैं । जो सदैव शिष्य के उदबोधन और कल्याण के लिए उत्सुक रहते हैं तथा अनुशासन करने में एवं कृपा करने में समर्थ होते हैं, वे ही ' सदगुरु ' हैं । जिनकी दृष्टि सदा परमार्थ पर रहती है, गुरुचरणकमलों में जो सदैव आसक्त रहते हैं, वे ही ' सदगुरु ' माने जाते हैं । हे देवी ! असमर्थ मानव गुरु को छोड़कर, उक्त गुणों को देखकर शिष्य को योग्य ' गुरु ' के पास जाना चाहिए, इसमें कोई शंका की बात नहीं है । केवल शिष्ज्य की सम्पति के ग्राहक और माँगनेवाले बहुत से गुरु होते हैं, जो  लोगों द्वारा व्यंग्य से गुरु कहे जाते हैं तथा निन्दनीय होते हैं तथा निन्दनीय होते हैं । शरीर, मन और वाणी से यदि कोई शिष्य भक्तियुक्त है, तो उसे देखकर जो गुरु
उससे किसी वस्तु की कामना करता है और उसे सान्त्वना नहीं देता, तो वह निन्दित होता है । जो गर्हित कर्मो द्वारा शिष्य के धन आदि का नाश करता है और शिष्य के हितैषी लोगों की उपेक्षा करता है, वह गुरु नहीं - नीच
मनुष्य है । जो गुरु शिष्य को ' महाविद्या ' का मन्त्र बताकर ' वीराचार ' की शिक्षा नहीं देता, वह घोर नरक में जाता है और शिष्य का भी पतन होता है, वह सर्वथा निश्चित है । पशु - भाव में रहते हुए जो गुरु भगवती काली और भगवती तारा के मन्त्र की दीक्षा देकर उनका ' आचार ' नहीं बताता, वह नरक से कभी छुटकारा नहीं पाता । इसलिए हे प्रिये ! साधकों को ' पशु - गुरु ' का सदा त्याग करना चाहिए क्योंकि पशु - दीक्षा अधम कही गई है, जो चारों वर्ग ( धर्म - अर्थ – काम - मोक्ष ) की विशेष रुप से बाधक है । संयोग से यदि पशुदीक्षा कोई शक्ति उपासक पा जाए, तो उसे किसी कौल साधक से प्रार्थना कर उस मन्त्र की दीक्षा पुनः लेनी चाहिए । तब ( कौल साधक से पुनः दीक्षा लेने पर ) वह विद्या ( मन्त्र ) माँ के समान अभीष्ट फलदायिनी हो जाती है ।  अन्यथा देवी साधक से विमुख रहती हैं, जिससे साधक की सदगति नहीं होती । पूर्वोक्त दोष - युक्त चाहे कोई दिव्य साधक हो, या वीर साधक, उन दोनों ही के प्रति शिष्य को गुरु - भावना नहीं रखनी चाहिए । केवल उन्हें अपना हितैषी समझना चाहिए, गुरु मानना छोड़ देना चाहिए । ऐसा करने से कोई दोष नहीं होता । भगवान् शिव का ऐसा ही आदेश है । श्री देवी बोलीं - हे परमेशान ! बताइए कि ' दिव्य ', ' वीर ' और ' पशु ' - इन साधकों में क्या विशेषता है ? यह सुनने को मेरा मन उत्सुक है । श्रीशिव ने कहा - हे विश्ववन्दनीय देवी ! तुमने जो श्रेष्ठ सार की बात पूछी है, उसे सुनो । ' दिव्य ' साधक सबकिए लिए मनोहर, अल्पभाषी और स्थिर रहनेवाला होता है । वह गम्भीर, शिष्टता से बात करनेवाला, भावुक, ध्यानतत्पर, गुरुचरणकमलों को छोड़कर अन्य सबसे निर्भय, सब कुछ देखनेवाला, सब कुछ बतानेवाला, सभी प्रकार के दुष्टों को निवारण करनेवाला, सर्वगुणसम्पन्न और अधिक क्या कहूँ, साक्षात् मेरे समान ही तेजस्वी होता है । हे देवी ! वीर साधक भयहीन, अभयदाता, गुरुभक्त, वाकपटु, शक्तिशाली, सच्चरित्र, पञ्चतत्त्वप्रेमी, अतिउत्साही, अत्यन्त बुद्धिमान्, साहसी, महामना और सज्जनों का सदा पालन करने वाला होता है । तत्त्वों से युक्त वीरसाधक सदा नम्रता दिखाने को अति उत्सुक रहता है । हे प्रिये ! इस
प्रकार बहुत से गुणों से सम्पन्न वीर साधक रुद्र के ही समान सर्वसमर्थ होता है । हे महादेवी ! सभी देवों द्वारा बहिष्कृत पशुओं के सम्बन्ध में सुनो । पंचतत्त्वों की निन्दा करनेवाले, नीच, पापयुक्त मन वाले पशु साधकों में
कुछ तो छाग ( बकरे ) के समान कामुक, कुछ मेष ( भेंड़े ) के समान क्रोधी, कुछ गधे के समान मूर्ख और कुछ सुअर के समान दुराचारी होते हैं । हे देवी ! इस प्रकार के दुष्ट हीन मनुष्यों को ' पशु ' समझना चाहिए । इनका देवी - पूजन सिद्धिदायक नहीं होता । अतः पशु स्वभाव वाले साधकों को निराकरण करना चाहिए । वे परामर्थ के कार्यों से सर्वथा बाहर ही रखे जाने चाहिए । श्री दे वी बोलीं - हे नाथ ! आपने क्या ही विचित्र बात बताई है, इससे मेरा सन्देह और भी पुष्ट हो गया है । आपने स्वयं सदा बताया है कि ' पशु - भाव ' क्षुद्र भाव है, इसे ' साधारण भाव ' कहना अधिक उचित होगा किन्तु पशुभाव से की फल देवता को अर्पित न हो सके, तो उक्त क्षुद्र भाव को ' पशु - भाव ' या ' साधारण भाव ' कैसे कहा जा सकता है ? हे दयामय प्रभो ! मेरे इस सन्देह को शीघ्र नष्ट करें, जैसे सूर्य अँधेरे को क्षण भर में नष्ट कर देता है । श्री शिव ने कहा - विशेष जाननेवाली देवी ! तुमने ठीक कहा । शुद्ध सार की बात सुनो । जिसे ' पशुभाव ' कहते हैं, उसका पालन करनेवाला कलियुग में कौन
हैं ? जो पंचतत्त्व को ग्रहण नहीं करता किन्तु उसकी निन्दा नहीं करता । शिव ने जो कुच कहा है, वह सत्य है - यही वह सोचता है । निन्दा करना वह पाप समझता है । वही ' पाशव ' या ' पशुभाव ' का पालन करनेवाला है । उसके ' आचार ' को मैं बताता हूँ, जो सन्देह को नष्ट कर देता है, उसे सुनो । ' पशुभाव ' का पालन करनेवाला नित्य हविष्यान्न खाए, ताम्बूल को छुए भी नहीं । ऋतुस्नान की हुई नारी के सिवा किसी नारी को काम से स्पर्श न करे । पराई स्त्री को यदि कामभाव से देखे तो तत्काल स्वर्ण दान कर प्रायश्चित करे । पशुभाव के साधक को मत्स्य, मांस आदि का सदा त्याग करना चाहिए । सुगन्ध, पुष्पमाला, रेशमी वस्त्रादि धारण न करें । सदा मन्दिर में रहे, भोजन के लिए ही घर में जाए । पुत्र - पुत्री आदि से सदा स्नेह करे । सदैव ऐश्वर्य प्राप्ति के लिए प्रार्थना करता रहे और जो कुछ पास में हो, उसका त्याग न करे । यदि पास में धन हो, तो सदा दान - पुण्य करता रहे । यदि अपना भला चाहता हो, तो कभी कंजूसी न करे । हे महादेवी ! कर्म में डालनेवाले अहंकार आदि सभी को दूर करें । विशेष कर क्रोध को दूर रखें । प्रतिदिन माता - पिता की सेवा मन लगाकर करता रहें । दूसरों की निन्दा, दूसरों से शत्रुता और अहंकार से दूर रहें । हे परमेश्वरी ! पशु स्वभाव वाले को कभी दीक्षा न दें । यह अत्यन्त सत्य बात है, इसकी उपेक्षा कभी न करें । अज्ञान या लोभ वश यदि कोई मन्त्र देता है, तो हे महादेवी ! उसे देवी का शाप लगता है, वह सर्वथा सत्य है । इस प्रकार ' पशु साधक ' के बहुत से आचार मैंने बताए हैं, तथापि इनसे न मोक्ष मिलता है और न ही कभी सिद्धि मिलती है । यदि किसी मनुष्य को खङ्ग की धार पर चलने की क्षमता हो, तो वह पश्वाचार का सदा पालन करे, किन्तु उसे सिद्धि नहीं मिलेगी । हे देवी ! कलियुग में जम्बूद्वीप का कोई ब्राह्मण कभी पशुसाधक न बने, ऐसी शिव की आज्ञा है । हे देवी ! सत्ययुग में चारो वर्ण क्रमशः दूध, घी, मधु और पिष्टक द्वारा और त्रेतायुग में सभी जातियाँ घी द्वारा पूजा करें । द्वापरयुग में सभी वर्ण मधु द्वारा और हे देवी ! कलियुग में केवल आसव द्वारा ही देवी पूजनीया हैं । हे दुर्गे ! कलियुग में अनुकल्प का विधान नहीं है । कलियुग में ब्राह्मणों और शूद्र आदि के लिए अनुकल्प नहीं हैं । शिव द्वारा कथित यह सर्वथा सत्य है । सदगुरु की शरण लेकर व्यक्ति को कुलाचार का पालन करना चाहिए । हे कल्याणी !  दिव्यभाव को प्राप्त करे, चाहे वीरभाव को । वीर साधक पृथ्वी पर अनायास ही असाध्य को भी सिद्ध कर लेता है । हे देवी ! इस संसार में वीरभाव कठिनाई से प्राप्त होता है, इसमें सन्देह नहीं । सैकड़ों पशुकल्पों से भी वैसी सिद्धि पाने में कोई समर्थ नहीं होता, जैसे कोई पशु कभी पर्वत को पार नहीं कर सकता । हे सुन्दरी ! यह अत्यन्त गुप्त रहस्य तुमसे कहा है । इसे हे अनघे ! सदा गोपनीय रखना चाहिए ।
  काम - कला का साधन :-   श्री देवी बोलीं - हे परमेश्वर ! पंचतत्त्वों से जो साधक देवी का पूजन नहीं करते, उनमें किन देवियों के साधक और कौन सब से अधिक निन्दनीय हैं ? श्रीशिव ने कहा - हे परमेश्वरी ! कलियुग में पंचतत्त्वविहीन सभी शाक्तों में विशेषतया ब्राह्मण साधक निन्दनीय हैं । उनमें भी हे कुलेश्वरी ! कालिका और तारा के साधकों की मद्य बिना साधना अति हास्यास्पद है । हे देवी ! जैसे दीक्षा के बिना साधना करना   हास्यास्पद है, उसी प्रकार इन दोनों महादेवियों के साधकों की तत्त्वरहित साधना समझनी चाहिए । हे देवी ! जैसे शिला में बोया हुआ बीज अंकुरित नहीं होता, वर्षा के बिना भूमि जोती नहीं जा सकती, ऋतु के बिना सन्तान नहीं होती और बिना चले किसी गाँव तक पहुँचा नहीं जा सकता, उसी प्रकार पंचतत्त्वों के बिना देवी की साधना सफल नहीं होती । अतः दोनों महाविद्याओं के साधकों को प्रसन्न मन से विधिपूर्वक पंचतत्त्वों पंचतत्त्वों से पूजन करना चाहिए । मद्य, मांस, मत्स्य, मुद्रा और स्त्रियों के सम्पर्क में सदैव जगदम्बा का उत्तम अर्चन करना चाहिए । अन्यथा विद्वानों और देवताओं द्वारा निन्दा की जाती है । अतः मन, वचन और शरीर से तत्त्व - परायण होना चाहिए । कालिका और तारिणी की दीक्षा लेकर जो मनुष्य मद्य - सेवन नहीं करता, वह कलियुग में पतित होता है । वैदिकी और तान्त्रिकी सन्ध्या तथा जप - होम से बहिष्कृत होकर वह अब्राह्मण कहा जाता है तथा वह मूर्ख नष्ट होता है । पितरों के लिए वह जो तर्पण करता है, वह भी स्वीकृत नहीं होता । अतः ऐसे व्यक्ति को यदि अपने कल्याण की इच्छा हो, तो पितरों का तर्पण न करें । काली और तारा के मन्त्र को पाकर जो ' वीराचार ' का पालन नहीं करता, उसके शरीर में शूद्रता आ जाती हैं । ऐसे क्षत्रिय की भी वही दशा होती है । वैश्य चाण्डाल के समान और शूद्र शूकर के समान पापग्रस्त हो जाता है । अतः ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र सभी को सदा पंचतत्त्वों से देवी की पूजा करनी चाहिए, इसमें कुछ भी शंका न करें । हे देवी ! कलियुग में जो कुलेश्वरी की पूजा पंचतत्त्वों से करता है, उसके लिए तीनों लोकों में कोई भी कार्य असाध्य नहीं रह जाता । वही व्यक्ति ब्रह्मज्ञानी, विष्णुभक्त, शक्तिउपासक, गणेशोपासक, सूर्योपासक, परमार्थी और पूर्ण दीक्षित माना जाता है । वही वास्त\व में
धार्मिक साधु, ज्ञानी, अत्यन्त पुण्यात्मा, यज्ञकर्ता, सभी कार्यों में योग्य और देवस्वरुप होता है । हे गिरिजे ! सभी का मत है कि तीर्थ पवित्र होते हैं । इन तीर्थो से भी पवित्र ' कौल ' साधक होता है, इससे अधिक क्या कहें । उसकी माँ धन्य है और उसका पिता धन्य है, उसकी जाति और परिवारवाले धन्य हैं, उससे बात करनेवाले
धन्य हैं । हे परमेश्वरि ! समस्त पितर लोग नाचते गाते हुए आनन्द से कहते हैं कि कोई भी हमारे कुल में कुलज्ञानी होगा, जिससे हम कुलीनों की सभा में सम्मिलित हो सकेंगे । यह जानकार अन्य पितर भी उत्सक हो उठते हैं । हे देवेशि !  पंचमुखों से कुलाचार की महिमा और फलों का वर्णन कहाँ तक करुँ ! श्री देवी बोली - हे कौलेश !साधकों को सुखदायक साधन बताइए, जो दिव्य, सुन्दर, मनोहर और सभी वांछित फलों को देनेवाला हो
       श्रीशिव ने कहा - हे कान्ते ! सुखदायक ' कामकला ' के साधन को सुनो । जो कुछ मैंने पहले बताया था, वह विस्मृत हो गया है । उसी को फिर बताता हूँ । कुल - ज्ञानी साधक अत्यन्त सुन्दर और दिव्य स्थान को देखकर भक्तिपूर्वक और हदय में परमा देवी का एकाग्र चित्त से ध्यान का सुन्दर सुगन्धित पुष्पों से उस स्थान को सज्जित कर उस पर बैठें ।
शत्रुनाशउपाय :-    श्री देवी बोलीं - हे देवेश, महेश्वर ! कामाख्या के रहस्य को मैंने सुना । हे प्रभो ! बताइए कि महान् शत्रु के विनाश का क्या उपाय ? श्री शिव ने कहा - हे देवी ! और भी अधिक गुप्त बात तुम्हारे स्नेह से
बताता हूँ । महावीर श्रेष्ठ साधक को इस प्रयोग को करना चाहिए । महादेवी का पंचतत्त्वो से पूजन कर अत्यन्त आनन्दमय होकर इस महान् उपाय को करें । अपने मूत्र को लेकर कूर्च - बीज ( हूँ ) से शुद्ध करें । घोर – स्वरुपा  भैरवीं का तर्पण करें और शत्रु का नाम लेकर उसे स्वयं पी जाएँ । दस दिशाओं में, महापीठ पर और मुख पर उसे छिड़ककर और नग्न होकर वहाँ भ्रमण करें । इस प्रयोग से निश्चय ही शत्रु का नाश हो जाएगा ।
वीर्य, रक्त और मूत्र - इन सबके प्रति यदि वीरसाधक को घृणा हो, तो भैरवी उससे क्रोधित होती है, यह मैं सर्वथा सत्य कहता हूँ । हे महेशानि ! देख  या सुनकर जो मनुष्य निन्दा करता है, वह चन्द्र और सूर्य जब तक हैं, तब तक हैं, तब तक भयंकर नरक में रहता है । हे महेशानि ! ' वीराचार ' की निन्दा मन से भी न करनी चाहिए । हे महादेवी ! जो ' वीर ' है, वह सदा स्वेच्छाचारी होकर भी सदा पवित्र रहता है । हे शिवे ! मिट्टी का पात्र लेकर ' साध्य ' का नाम लिखे । वायु - बीज ( यं ) से उसे पुटित कर उस पर अपना मूत्र छिड़कें और माया - बीज ( ह्रीं ) का १०८ बार जप करें । इससे हे महेश्वरी ! शत्रु का उन्माद होता है या वह मर जाता है । हे देवी, शंकरी ! बाएँ हाथ से अपने मूत्र को लेकर भैरवी को तर्पण करें, तो मारण और उच्चाटन होते हैं । भैरवी - मन्त्र ( ह्स्रैं ) से शोधित स्वमूत्र को श्रेष्ठ साधक फेंके, तो हे महेश्वर ! शत्रु को उन्माद होता है, या वह मुग्ध अथवा क्षुब्ध या वशीभूत होता है, यह निश्चित है । वीर साधक केवल मूत्र - साधन द्वारा इन्द्र के समान शत्रु का नाश कर देता
है, इसमें कोई सन्देह नहीं है । श्री देवी बोलीं - हे प्रभो, महेशान ! वीर्य, रक्त और मूत्र पर संसार में शुद्ध कैसे हैं ? यह बताइए और मेरे सन्देह को नष्ट करें । श्री शिव ने कहा - हे देवी ! रहस्य को सुनो । महान् ज्ञान को मैं बताता हूँ । वीर्य मैं हूँ, रक्त तुम हो । इन दोनों ही से सारा विश्व है । समस्त शरीर ही शुद्ध है क्योंकि यह वीर्य और रक्त से उत्पन्न होता है । इस प्रकार के शरीर में जो - जो वस्तु होती हैं, वह हे देवी ! अशुद्ध कैसे हैं ? पापी ही निन्दा करता है, यह निश्चित है । हे देवी ! यह ब्रह्मज्ञान है, जिसे मैंने तुमसे कहा है । हे देवी ! इस प्रकार सारा संसार ही शुद्ध है । फिर अपने शरीर में विद्यमान वस्तुओं का क्या कहना । ब्रह्मज्ञान के बिना मोक्ष नहीं होता । हे पार्वती ! ब्रह्मज्ञानी साक्षात् ब्रह्मा, विष्णु और महेश ही होता है । वही दीक्षाप्राप्त साधक हैं, शुद्ध, वेदज्ञ ब्राह्मण है । उसकी गोद में समस्त तीर्थ निश्चित रुप से निवास करते हैं ।
     पूर्णाभिषेक तत्त्व एवं गुरु लक्षण :-  श्री देवी बोलीं - हे विश्व - वन्दनीय महादेव ! दयासागर भगवन् ! कौलों के  ' पूर्णाभिषेक ' के सम्बन्ध में मुझे बताइए, जो सुखप्रद और मोक्षदायक होता है । श्री शिव ने कहा - हे मेरी प्राणप्रिये देवी ! अत्यन्त विलक्षण ' पूर्णाभीषेक ' के सम्बन्ध में सुनो, जो सभी आशाओं की पूर्ति करनेवाला और
शिवत्व को देनेवाला है । मन्त्र - तन्त्र में पारङ्गत, सिद्ध और सभी में श्रेष्ठ कौल सदगुरु के पास आंकर '   अभिषेक ' की विधि को करें । अत्यन्त गुप्त और शुद्ध तथा सुन्दर गृह में, जो कौलिक द्वारा समर्थित हो, वेश्यांगनाओं और तत्त्वों को सुन्दर प्रयत्न के साथ एकत्रित करें । फिर वहीं विशिष्ट कौलों को बुलाकर भक्तिपूर्वक बिठाये । तब ' अभिषेक ' के वस्त्रादि आभूषणों से गुरु की पूजा करें । विधिवत्, भक्तिपूर्वक गुरु को प्रणाम करें, स्तुति, वचनों से उन्हें प्रसन्न करें । फिर शुद्ध भाव से प्रार्थना करें कि ' हे नाथ ! कुलधर्म को बताएँ और मुझे कृतार्थ करें । हे दयासागर, श्री गुरुदेव ! मैं अभिषिक्त साधकों के साथ आपकी शरण में आया हूँ ।' हे प्रिय ! तब शक्तिमान् गुरु प्रसन्न होकर तत्त्वों का शोधन करें और मन्त्रों एवं मुद्राओं द्वारा अपने सम्मुख कलश की स्थापना कर धूप – दीप आदि के द्वारा वातावरण को प्रफुल्लित कर विविध पुष्पों, सुगन्धियों और  सभी प्रकार की सामग्रियों से पूजन करें । महापूजा को समाप्त कर और तत्त्वों को अर्पित कर चुकने पर पहले स्त्रियों को देकर तब थोड़ा प्रसाद स्वयं ग्रहण करें । तन्त्रोक्त विधि से चक्र की रचना कर साधकों का अभिषेक कर उन्हें पान कराएँ और स्वयं पान करें । मत्स्य, मांसादि चर्व्य और चोष्य भोजन करते हुए यथासुख वेश्याओं के साथ परमानन्द के साथ विहार करें और कहें कि ' कर्म करानेवाले को अटल सिद्धि प्राप्त हो । ' इस प्रकार ' अभिषेक ' कर्म निश्चय ही शीघ्र और निर्विघ्न सम्पन्न होता है । हे शंकरी ! चक्रालय से एक भी व्यक्ति बाहर न निकले । प्रत्येक साधक को वहीं प्रातः कृत्यादि समस्त कार्य करने चाहिए । इस प्रकार तीन दिनों तक शिष्य रात - दिन भक्तिपूर्वक उन सबका अर्चन करें । तब वह ' अभिषिक्त ' होता है । हे पार्वती ! अनुष्ठान की विधि बताता हूँ, सादर सुनो । न बहुत बड़ा और न बहुत छोटा - उचित रुप का ' घट ' लाएँ । चाहे ताँबे का बना हो या सोने का  अथवा हीरे - मोती - मूंगे या सोने - चाँदी को हो । विविध प्रकार के आभूषण और वस्त्र, विविध प्रकार के द्रव्य पर्याप्त मात्रा में, कस्तूरी, कुंकुम और विविध प्रकार के सुगन्धित पदार्थ एकत्र  करें । विविध प्रकार के पुष्प और मालाएँ, यत्नपूर्वक पाँचों तत्त्व और धूप तथा घृत - दीप प्रयत्न करके लाएँ । तब हे प्रिये ! गुरुदेव शिष्य को शुद्ध गृह में लाएँ और वेश्याओं तथा साधकों के साथ पूजन करें । ' पटल ' में बताई विधि से भक्तिपूर्वक देवी की पूजा समाप्त करें और आनन्द के साथ स्तुतियों द्वारा प्रणाम करें । तदनन्तर हे कुलेश्वरी १ शिवशक्तियों को गन्ध, पुष्प - मालादि से सुशोभित करें । प्रत्येक को आसन, वस्त्र और आभूषण प्रदान करें । तब शंखादि वाद्य बजाते हुए, मंगलाचरण का गान करते हुए, ' घट ' की स्थापना करें । हे प्रिये ! उसकी विधि सुनो । काम - बीज ( क्लीं ) से ' घट ' का प्रोक्षण कर, वाग् - भव ( ऐं ) से उसे शुद्ध करें । शक्ति ( सौः ) से ' कलश ' को स्थापित कर माया ( ह्रीं ) द्वारा उसे जल से भरें । उसमें यत्न - पूर्व प्रवाल ( मूंगा ) आदि पाँच रत्न डालें और निम्न मन्त्र से तीर्थो का आह्वान करें । गंगा आदि सभी नदियाँ और समुद्र तथा सरोवर, सभी सागर एवं धाराएँ, तालाब, नद और जलाशय, पवित्र झरने आदि जो समस्त पवित्र तीर्थ स्वर्ग, पाताल और पृथ्वी में हैं, वे सब इस ' घट ' में प्रविष्ट हो जाएँ । रमा - बीज ( श्रीं ) से घट के ऊपर अभिमन्त्रित पल्लव रखें । कूर्च ( हूं ) से फल दे और हद ( नमः ) से गन्ध एवं वस्त्र प्रदान करें । ललना ( स्त्रीं ) से सिन्दूर और काम - बीज ( क्लीं ) से पुष्प चढ़ाएँ । मूल -
मन्त्र का उच्चारण करते हुए दूर्वा चढ़ाकर प्रणव ( ॐ ) से घट का अभ्युक्षण करें । ' हूं फट् स्वाहा ' के कुशों द्वारा घट का ताड़न करें । तब घट में योनि - पीठ का ध्यान कर उसका पूजन करें । इसके बाद उस घट के
ऊपर अपने तन्त्रोक्त विधान से हाथ रखकर गुरुदेव शिष्य को देखते हुए निम्न मन्त्र द्वारा घट से प्रार्थना करें ।
अर्थात् समस्त तीर्थो के जल से पूर्ण एवं देवता के अभीष्ट फल को देनेवाले  हे ब्रह्मकलश ! उठो और हमारे मनोरथ को पूर्ण करो । हे पार्वती ! परमानन्दपूर्वक गुरुदेव मन्त्रों का उच्चारण करते हुए आम्रपल्लव द्वारा पहले शिष्य का अभिषेक करें । फिर उपस्थित सभी साधकों और शक्तियों सहित समस्त मण्डल पर जल छिड़कें । इससे सभी भक्तों का कल्याण होता है । अन्त में शिष्य को आनन्दपूर्वक भगवती एवं गुरुदेव के श्रीचरणों में
बारम्बार प्रणाम करना चाहिए और स्वर्ण - मूल्य के अनुसार यथाशक्ति दक्षिणा गुरु को देनी चाहिए । विविध प्रकार के वस्त्रों, अलंकारों, सुगन्धित पदार्थो एवं पुष्प - माला आदि से तथा स्तुति - प्रार्थना - वचनों द्वारा उन्हें प्रसन्न करना चाहिए और पुनः प्रणाम करना चाहिए । गुरुदेव मनसा, वाचा और शरीर से शिष्य को आशीर्वाद दें । विविध उपदेशों से शिष्य को उत्तम तत्त्व समझाएँ । तब साधकों और शक्तियों के साथ गुरुदेव आनन्द से विहार करें । साधक एवं शक्तियाँ भी यत्नपूर्वक शिष्य को आशीर्वाद प्रदान करें । इस प्रकार बुद्धिमान् व्यक्ति तीन दिनों तक साधकों को भोजन कराएँ । आठवें दिन शिष्य पुनः अभिषेक कराएँ । उस समय हे प्रिये ! सम्पत्ति - ली के लिए सात कुम्भ स्थापित कर ताम्र - पात्रस्थ जल द्वारा श्रेष्ठ मन्त्र का जप करें । अन्त में शक्तियों और साधकों को भी प्रयत्नपूर्वक वस्त्राभूषण प्रदान करें ।
      गुरुलक्षण :-  श्री देवी बोलीं - हे देवेश ! अभिषेक कर्म का रहस्य मैनें सुन लिया । इस कर्म करने के  अधिकारी गुरुदेव अथवा कौन व्यक्ति हैं ? हे प्रभू ! मुझे यह बतलाइये । श्री शिव ने कहा - महान् ज्ञानी, विशुद्धाचारी एवं गुरुभक्त श्रेष्ठ कौलिक जो अनुशासन करने में और कृपा करने में समर्थ है तथा जो शिष्यों का
पालन करता रहता हैं, पत्नी - पुत्रादि से मुक्त रहता हुआ अपने कुटुम्बियों से सम्मानित होता हुआ सदा आगम - शास्त्र में श्रद्धा रखता है, वही इस ' अभिषेक - कर्म ' के करने का अधिकारी है, अन्य कोई नहीं । हे वरदायिनि ! अन्धे, लूले, रोगी और अल्प - ज्ञानी साधारण कौल साधक को बुद्धिमान् सदा छोड़ दें । सिद्धि की कामना रखनेवाला विशेषकर विरक्त साधक का सहयोग न लें क्योंकि हे प्रिये ! विरक्त के मुख से ली गई दीक्षा उसी
प्रकार निष्फल होती है, जिस प्रकार बाँझ स्त्री । हे देवी ! अज्ञानवश या मोह में पड़कर जो विरक्त साधक से अभिषिक्त होता है, उसके मार्ग में पग - पग पर बाधाएँ आती हैं । उसके जप - पूजन, ध्यान और भक्ति सभी निष्फल होते हैं और अन्त में वह नरक में जाता है । हे देवी ! करोड़ों - सैकड़ों कल्पों तक वह सदा नरकभोग करता है । तब अनेक जन्मों के बाद देवी का मन्त्र प्राप्त करता है । अतः विधिसम्मत शुद्ध गृहस्थ गुरुदेव को प्राप्त करना चाहिए । फिर प्रयत्न करके अभिषेक - कर्म कराना चाहिए । तब उसके कर्म निश्चय ही सदा सफल होंगे । हे प्रिये ! विद्या अर्थात् कुलसाधना भी माँ के समान है । उसका पालन - पोषण निरन्तर करना चाहिए ।
जिस प्रकार पशु - साधक का त्याग कर कौलिक गुरु को प्राप्त करना चाहिए, उसी प्रकार विरक्त साधक को छोड़कर लोकहित में तत्पर कौल साधक से अभिषेक कराना ही विधि - सम्मत है । अभिषिकित साधक साक्षात् शिवस्वरुप होता है ।दीक्षा - प्राप्त ही अभिषिक्त होता है तथा वही देवी और देवीक्त ब्राह्मण धन्य कहा जाता है ।
हे पार्वति ! सुनो उसी अभिषिक्त साधक का धर्म सफल होता है । उसी की कामनाएँ पूर्ण होती हैं और उसका मन्त्र फलदायक होता है । हे देवी ! उसी की दीक्षा सफल होती है और तब उसकी क्रिया भी फलवती होती है ।
हे गिरिजे ! अधिक कहने से क्या, उसके सभी कार्य सफल होते हैं । जिस स्थान में वह निवास करता हैं, वह वाराणसी के समान तीर्थ बन जाता है । निश्चय ही यहाँ उसकी गोद में सभी तीर्थ रहते हैं । हे महामाये ! यह कथन सर्वथा सत्य है । हे पार्वति ! यहाँ जो - जो अभिषेक - वचन कहे हैं, सभी तन्त्रों में वे सब पूर्णाभिषेक के हैं और उनके बिना सोलह कलाओं में से एक भी कला का ज्ञान नहीं हो पाता । इस पद्धति के बिना योग्य गुरु और वैसे ही शिष्य का होना सम्भव नहीं होता । हे देव - देवेशि ! मेरे यह कथन सर्वथा सत्य हैं । हे देवी ! यह अभिषेक विधि तीनों लोकों में दुर्लभ है । हे पार्वती ! गणेश और कार्तिकेय जैसे व्यक्ति की पात्रता इसमें है । मेरे समान, या ब्रह्मा और विष्णु के समान व्यक्ति की इसमें योग्यता है । हे परमेश्वरी ! पाँच मुखों से भी इसकी महिमा का वर्णन करना सम्भव नहीं है । इस प्रकार मैंने अत्यन्त महत्त्वपूर्ण गुप्त अभिषेक का वर्णन तुमसे किया है । इसे प्रयत्नपूर्वक गुप्त रखना चाहिए । जिस प्रकार रतिक्रीड़ा और योनि गोपनीया हैं, उसी प्रकार श्रेष्ठ अभिषेक को गुप्त रखना चाहिए । जैसे भूगर्भ में धन रखकर उसे अति गुप्त रखा जाता है, उसी प्रकार हे महामाये ! इसे मेरी आज्ञा से गुप्त रखना चाहिए ।
        श्री देवी ने कहा - हे दयासागर महादेव ! मुझे मुक्तितत्त्व बताइए, जिसके समक्ष छः दर्शनों का ज्ञान भी इस संसार में हँसी की बात बन जाता हैं । श्री शिव ने कहा - हे कल्याणि, विशेष जाननेवाली देवी ! श्रेष्ठतत्त्व को
सुनो । इस रहस्य को तुम जानती हो  या मैं और विष्णु ही जानते हैं । जिस प्रकार लोग लङ्डू देकर बच्चों को बहलाते हैं या जैसे हे देवी ! दुष्ट को  रस्सी से बाँधते हैं, उसी प्रकार दुष्ट को ' मुक्ति ' में ही शंका होती है, अतः दर्शनशास्त्रों द्वारा मैं संसार में बर्बर ( अहंकारी ) को मोह में डाल देता हूँ । छः दर्शनरुपी भयंकर कुएँ में पशु - भावापन्न लोग गिर जाते हैं और वे परमार्थ को नहीं समझ पाते, जैसे चमचा रसीले पदार्थ को परोसता है, किन्तु
वह उसके स्वाद को जड़ होने के कारण नहीं जानता । हे कल्याणमुखि ! जैसे केले या रेड़ी के पेड़ में कोई तत्त्व नहीं होता, उसी प्रकार हे देवी ! ' दर्शन ' के ज्ञान से मुक्ति नहीं होती । जिस प्रकार मिर्च के पास जाकर पशु पुनः लौट जाते हैं, वैसे ही मोक्ष चाहनेवाले दर्शनशास्त्र का अध्ययन कर उससे विमुख हो जाते हैं । श्रीगुरुदेव की प्रसन्नता से ही सदैव मुक्ति मिलती है । अतः बुद्धिमान् को उनकी कृपा प्राप्त करने के बाद ही अपनी जिज्ञासा को शान्त करने के लिए सभी शास्त्रों का अध्ययन करना चाहिए । हे पार्वती ! मैं ' मुक्ति ' के तत्त्व को कहूँगा, आदरसहित सुनो । जो इस संसार में बारम्बार जन्म लेते हैं, उन्हें पहले देवी का, तब श्री गुरुदेव का अनुग्रह पाना चाहिए । तब उनके मुख से दीक्षा ग्रहण करें, जिससे भक्ति उत्पन्न होती है । तदनन्तर पवित्र साधनों से साधना करनी चाहिए । उससे निर्मल ज्ञान उत्पन्न होता है और उस ज्ञान से मोक्ष होता है, यह सत्य है - ऐसा शास्त्र का निर्णय है । हे कल्याणमुखी ! ' मुक्ति ' चार प्रकार की कही गई है - १. सालोक्य, २. सारोप्य, ३. सह - योज्य और ४. श्रेष्ठ निर्वाण । ' सालोक्य मुक्ति ' में इष्टदेवता के लोक में निवास करने का सौभाग्य मिलता है, ' सारुप्य ' में
साधक इष्ट - देवता जैसा ही स्वरुपवान बन जाता है, ' सायुज्य ' में वह इष्टदेव की ' कला ' से युक्त हो जाता है और ' निर्वाण मुक्ति ' में मन का इष्ट में लय हो जाता है । श्री देवी ने कहा - हे महादेव ! जीव का लय समुचित रुप से जिस ' मुक्ति ' द्वारा होता है, जिसे ' निर्वाण ' तत्त्व कहते हैं, वह क्या है, उसे बताइए और सन्देह दूर कीजिए । श्री शिव ने कहा - हे दयानिधे ! आसुरी व्यक्तित्व का लोप होना ही ' मुक्ति ' है । दुर्जनता का नाश करके मैं देवताओं को प्रसन्न करता हूँ । हे शंकरी ! मनोलयात्मिका ' मुक्ति ' को मैंने, विष्णु ने, ब्रह्मा ने और नारद आदि मुनियों ने प्राप्त किया है । ' सालोक्य ' भी मुक्ति है, ' सालोक्य ' और ' सारुप्य ' दोनों मुक्ति है और ' सालोक्य ', ' सारुप्य ' और ' सायुज्य ' - ये तीनों ही ' निर्वाण ' हैं । दो दलवाले कमल के मध्य में निवास करनेवाली, नीलकमल की पंखुड़ियों के समान श्याम वर्णवाली मुक्ति देवी मुक्त जीव के समक्ष प्रकट होकर उसे निरन्तर आनन्दित करती रहती है । वह ' मुक्ति देवी ' सनातनी है, विश्ववन्द्या है, सच्चिदानन्द – रुपिणी परोऽम्बा है और सभी अभीष्ट कामनाओं की पूर्ति करती है । इष्टदेव के साथ स्थिर सम्बन्ध होना ' निर्वाण - मुक्ति ' है । हे देवेश्वरी ! सभी साधुजनों को यही मुक्ति निश्चित रुप से मिलती है । हे कुलेश्वरी ! कुल - धर्म के ज्ञाता साधक ' मुक्ति ' का यह ज्ञान अवश्य रखते हैं, अन्य ज्ञान को वे महत्त्व नहीं देते । साथ ही मुक्तिदायक पंचतत्त्वों द्वारा साधना को जानते हैं । देवी का अनुग्रह ही कुलमार्ग का प्रदर्शक है । हे देवी ! कुलान्तिका दीक्षा श्री गुरुदेव के मुख - कमल से मिलती है । कुलद्रव्यों में जो भक्ति होती है, वही मोक्षदायिनी मानी गई है । प्रयत्नपूर्वक ऐसा जानकर बुद्धिमान् को कुल, धर्म का ज्ञान प्राप्त करना चाहिए । भाग्यवश यदि इस प्रकार की मन्त्रदीक्षा किसी को मिलती है, तो उसकी मुक्ति का मार्ग स्वयं खुल जाता है, इसमें सन्देह नहीं । हे महेश्वरी ! अब तक न सुने गए मुक्तितत्त्व को मैंने तुमसे कहा । हे देवी ! इसे मेरी आज्ञा से अपनी योनि के समान गुप्त रखना चाहिए ।

          श्री देवी ने कहा - हे जगन्नाथ ! जो महादेवी कामाख्या सर्वरुपिणी कही गई  हैं, वे कौन हैं ? हे प्रभो ! बताइए, कपट न करें । हे नाथ ! यदि बताने में कपट करें, तो आपको मेरी सौगन्ध । रतिकाल में पति को किसी कामिनी की योनि का स्पष्ट दर्शन न कराना चाहिए ? पार्वती के उक्त कथन को सुनकर शङ्कर ने हँसकर कहा - हे मेरी प्राणप्रिये देवी सुनो ! तुम्हें बताता हूँ । जो माता कालिका देवी सर्वविद्यास्वरुपिणी हैं, वे ही ' कामाख्या ' नाम से प्रसिद्ध हैं । हे देवी ! यह सत्य है, अन्य कोई बात नहीं है । वे ही ' कामाख्या ' रुप से
विख्यात हैं, यह निःसन्देह सत्य है । यज्ञ और दर्शन - शास्त्र के लिए वे ही ' ब्रह्म ' हैं, ऐसा जानो ।जैसे चन्द्रमा को देखकर बौने लोग उसके सम्बन्ध्य में उत्सुक होकर भटकते फिरते हैं, वैसे ही उस महादेवी से ही चराचर, जगत् उत्पन्न होता और पुनः उसी में लय होता है । इसमें हे प्रिये ! कोई सन्देह न करो । वे असीमित
शक्ति की आधार हैं और अपार दयामयी माँ हैं । वे मुक्तिदायिनी, जगद्धात्री और सदा परमानन्दमयी हैं ।आगम या तन्त्रशास्त्र का निर्णय है कि काली सदा कृष्णवर्णा हैं । सभी तन्त्रों में ऐसा ही कहा है, अन्य बात नहीं, यही निर्णय है । संकल्प कर जो बुद्धिमान काम्य कर्म के लिए इस तन्त्र का पाठ करता या करवाता है अथवा
सुनता या सुनवाता है, वह श्री काली की कृपा से उन - उन कामनाओं को प्राप्त करता है । हे देवी ! स्पर्शमणि के समान यह तन्त्र उत्तम फलदायक है । जिस प्रकार ' कल्पवृक्ष ' सभी फलों को प्रदान करता है, वैसा ही इस तन्त्र
को मनीषियों को जानना चाहिए । जैसे सभी प्रकार के रत्न समुद्र में रहते हैं, वैसे ही, हे सुमुखि ! सभी सिद्धियाँ - भुक्ति और मुक्ति इससे मिलती हैं । सब देवों का आश्रय जैसे मेरु पर्वत है, वैसे ही यह तन्त्र सभी सिद्धियों का आश्रय है । हे देवी ! मैं सत्य कहता हूँ, विद्याओं से युक्त यह मन्त्र है । जिसके घर में भय को दूर करनेवाला यह तन्त्र विद्यमा न है, उसके यहाँ रोग, शोक और पापों का लेश मात्र कभी नहीं रहता । न वहाँ चोरों का भय रहता है, ग्रहों या राजदण्ड का भय । उस घर के रहनेवालों को न उत्पातों का भय रहता है, न महामारी का । उनकी
कभी पराजय नहीं होती, न किसी अन्य प्रकार का भय रहता है । भूत - प्रेत, पिशाच और दानवों या राक्षसों का न व्याघ्र आदि हिंसक पशुओं का भय कहीं उन्हें होता है । यह मेरा वचन है । कूष्माण्डों का भय नहीं होता, न यक्ष आदि का । सभी विनायकों और गन्धर्वो का भी भय नहीं होता । हे ईश्वरी ! स्वर्ग, मृत्युलोक और पाताल में जो - जो भयानक और विघ्नकारक जीव हैं, उन सबका भय भी उन्हें नहीं होता । साथ ही देवी कामाख्या की कृपा से सरस्वती भी उस घर में उतने ही समय तक बनी रहती है । हे प्रिये ! यह सब मैंने तुम्हारे स्नेहवश बताया है । इसे कभी प्रकट न करें । सदा इसे गुप्त ही रखें । विशेष कर पशु भाववाले लोगों से इसे प्रयत्न करके छिपा रखना चाहिए । भ्रष्ट साधकों के समक्ष भी इसकी चर्चा न करनी चाहिए । मेरी आज्ञा है कि इस तन्त्र को काने, लूले, कुलाचार - त्यागी और विरक्त लोगों को न बताएँ । विशेषकर अहंकारी, मूर्ख, भाव - शून्य, दरिद्र और
भक्तिहीन लोगों को इसे न देना चाहिए । हे महेश्वरी ! अद्वैतभाव से युक्त, शान्त, शुद्ध, कालीभक्त, शैव, वैष्णव
महाकाल के उपासक और कुलस्त्रियों द्वारा वन्दित, विनम्र, शिव – स्वरुप साधक को ही इसे देना चाहिए । यही शिवाज्ञा है ।
        हे देवेशि ! अनन्त फल देनेवाले महापीठ ये हैं - १. नेपाल, २. पौगण्ड, ३. वर्द्धमान, ४. पुर - स्थिर, ५. चर - स्थिर, ६. काश्मीर, ७. कान्यकुब्ज, ८. दारुकेश और ९ एकाम्र । इनके बार अत्यन्त उत्कृष्ट पीठ हैं - १. त्रि - स्रोत ( त्रिवेणी - संगम ), २. कामकोट, ३. कैलाश पर्वत, ४. भृगु पर्वत और ५. केदार । अन्य पीठ ये हैं - १. ॐ कार, २. जालन्धर, ३. मालव, ४. कुलाब्ज, ५. देव - मातृका, ६. गोकर्ण, ७. मारुतेश्वर, ८. अष्टहास, ९. वीरज, १०. राजगृह । पुनः महापीठ ये हैं - १. कोलगिरि, २. एलापुर, ३. कोलेश्वर प्रणव और ४. जयन्तिका । इनके अतिरिक्त पीठ ये हैं - १. उज्जयिनी, २. क्षीरिका, ३. हस्तिनापुर और ४. उड्डीश । पुनः महापीठ ये है - १. प्रयाग, २. षष्ठीश, ३. मायापुर, ४. कुलेश्वरी ( जनेश्वरी ), ५. मलय पर्वत, ६. श्रीशैल पर्वत, ७. मेरु पर्वत, ८. महेन्द्र पर्वत, ९. वामन पर्वत, १०. हिरण्यपुर, ११. महालक्ष्मीपुर और १२. उड्डीयान । इन सभी पीठस्थानों में साधना अनन्त फल देती हैं ।
हे देवेशि ! यदि किसी निर्जन स्थान में, वन के बीच या किसी बिल्वादिवन में या किसी दुर्गम घने वन के बीच काली की कोई मूर्ति हो, तो ऐसे किसी स्थान में बैठकर शनिवार या मंगलवारयुक्त कृष्णाऽष्टमी या कृष्णा चतुर्दशी तिथि में महानिशाकाल में कालिका देवी की साधना करने से अति उत्तम सिद्धि प्राप्त होती है ।
अन्य भी पीठ संसार में हैं, इसमें सन्देह नहीं । वहाँ देव - दानव - गन्धर्व, किन्नर, प्रमथ, यक्ष, सभी नायिकाएँ, किन्नरियाँ और देव - स्त्रियाँ पंचतत्त्वों आदि से परा देवी की पूजा करती हैं । वाराणसी में देवी कामाख्या सदा पूजनीया हैं, शीघ्र ही फल देती हैं । उससे दूना फल पुरुषोत्तम तीर्थ में मिलता है । विशेष कर द्वारावती में उससे भी दूना फल मिलता है । द्वारावती के समान फलदायिनी पूजा अन्य किसी क्षेत्र, तीर्थ में नहीं होती । विन्ध्याचल और गंगा किनारे पूजा करने से छः गुना फल होता है और आर्यावर्त, मध्य - देश एवं ब्रह्मावर्त में भी वैसा ही फल मिलता है । प्रयाग और पुष्कर विन्ध्याचल के समान ही फलप्रद हैं । करतोया नदी के जल - मध्य में उसका दूना फल मिलता है । नदी - कुण्ड और भैरव - कुण्ड में पूजा का चौगुना फल होता है । उससे चौगुना फल वल्मीकेश्वर के निकट मिलता है । जहाँ सिद्धेश्वरी योनि विद्यमान है, वहाँ दुगुना फल होता है । उससे चौगुना फल लोहित नद के जल में बताया गया है । काम - रुप में जल और स्थल सभी स्थानों में की गई पूजा का फल वैसा ही होता है । काम - रुप और देवालय में महाशक्ति की पूजा प्रशस्त है । देवी - क्षेत्र में काम - रुप विद्यमान रहता है९, उसके समान कुछ भी नहीं है । इस प्रकार देवी काम - रुप में घर - घर में विराजमाना हैं । कामाख्या - योनि - मण्डल चौगुना फलदायक है । कामाख्या में महामाया सदैव निश्चित रुप से विद्यमान रहती हैं । हे देवेशि ! उक्त स्थान में यदि दैवयोग से पहुँच जाए, तो जप - पूजा आदि करके देवी को प्रणाम कर सहर्ष अभीष्ट स्थान को जाना चाहिए ।
हे वरानने ! स्त्री के पास की गई पूजा और जप का फल ' काम - रुप ' के प्रभाव से सौ गुना अधिक होता है । अतः हे महेशानि ! रक्तवस्त्रा स्त्रियों का सहयोग लेना चाहिए । दुष्ट स्वभाववाली स्त्रियों से भक्त साधकों को दूर रहना चाहिए ।  हे प्रिय सुन्दरी ! एक नित्या आदि पीठ में या श्मशान में या अन्य पीठों में भी स्त्री - रुप में देवी सदैव विराजमान रहती हैं । हे शिवे ! स्त्री के अंगों में महामाया निरन्तर जाग्रत रहती हैं । देहपीठ ही महापीठ है, वहाँ देवीरुप प्रत्यक्ष दिखाई देता है । भ्रान्तिवश जो मनुष्य देश - देश में भटकते फिरते हैं, हे पवित्रे ! वे पशु के समान ही हैं । निर्जन स्थान में, वन या घने जंगल में, जहाँ भी काली की मूर्ति स्थापित हो, वहाँ कृष्णाऽष्टमी के रात्रिकाल में पंचतत्त्वों से काली की पूजा करें, तो गुटिका - सिद्धि, खेचरी - सिद्धि, यक्ष - गन्धर्व - नाग - भूत - वेताल - देवों की नायिकाओं और कन्याओं की सिद्धि प्राप्त होती है । हे परमेश्वरी ! इससे अधिक क्या कहूँ । हाँ, पंचतत्त्वों से विहीन लोगों के सभी कर्म निष्फल होते हैं ।