Monday, December 13, 2010

श्री विष्णुमहापुराण प्रथम अंश:- II

श्रीपराशरजी बोले -
हे मैत्रेय ! यह सब सुनकर राजपुत्र ध्रुव उन ऋषियोंको प्रणामकर उस वनसे चल दिया ॥१॥
और हे द्विज ! अपनेको कृतकृत्य सा मानकर वह यमुनातटवर्ती अति पवित्र मधु नमक वनमें आया । आगे चलकर उस वनमें मधु नामक दैत्य रहने लगा था, इसलिये वह इस पृथ्वीतलमें मधुवन नामसे विख्यात हुआ ॥२-३॥
वहीं मधुके पुत्र लवण नामक महाबली राक्षसको मारकर शत्रुघ्नने मधुरा ( मन्थर ) नामके पुरी बसायी ॥४॥
जिस ( मधुवन ) में निरन्तर देवदेव श्रीहरिकी सन्निधि रहती है उसी सर्व्सपापापहारी तीर्थमें ध्रुवने तपस्या की ॥५॥
मरीचि आदि मुनीश्वरोनें उसे जिस प्रकार उपदेश किया था उसने उसी प्रकार अपने हृदयमें विराजमान निखिलदेवेश्वर श्रीविष्णुभगवानका ध्यान करना आरम्भ किया ॥६॥
इस प्रकार हे विप्र ! अनन्य चित्त होकर ध्यान करते रहनेसे उसके हृदयमें सर्वभूतान्तर्यामी भगवान हरि सर्वतोभावसे प्रकट हुए ॥७॥
हे मैत्रेय ! योगी धुवके चित्तमें भगवान विष्णुके स्थित हो जानेपर सर्वभुतोंको धारण करनेवाली पृथिवी उसका भार न सँभल सकी ॥८॥
उसके बायें चरणपर खडे़ होनेसे पृथ्विवीका बायाँ आधा भाग झुक गया और फिर दाँगे चरणपर खडे़ होनेसे दायाँ भाग झुक गया ॥९॥
और जिस समय वह पैरके अँगूठेसे पृथिवीको ( बीचसे ) दबाकर खड़ा हुआ तो पर्वतोंके सहित समस्त भूमण्डल विचलित खड़ा हुआ तो पर्वतोंके सहित समस्त भूमण्डल विचलित हो गया ॥१०॥
हे महामुने ! उस समय नदी, नद और समुद्र आदि सभी अत्यन्त क्षुब्ध हो गये और उनके क्षोभसे देवताओंमें भी बडी़ हलचल मची ॥११॥
है मैत्रेय । तब याम नामक देवताओंने अत्यन्त व्याकुल हो इन्द्रके साथ परामर्श कर उसके ध्यानको भंग करनेका आयोजन किया ॥१२॥
हे महामुने ! इन्द्रके साथ अति आतुर कूष्माण्ड नामक उपदेवताओंने नानारूप धारणकर उसकी समाधि भंग करना आरम्भ किया ॥१३॥
उस समय मायाहीसे रची हुई उनकी माता सुनीति नेत्रोंमे आँसू भरे ऊसके सामने प्रकट हूई और हे पुत्र ! हे पुत्र ! ऐसा कहकर करुणायुक्त वचन बोलने लगी ( उसने कहा ) बेटा ! तू शरीरको घुलानेवाले इस भयंकर तपका आग्रह छोड़ दे । मैने बडी़ बड़ी कामना ओंद्वारा तुझे प्राप्त किया है ॥१४-१५॥
अरे ! मुझ अकेली, अनाथा, दुखियाको सौतके कटु वाक्योंसे छोड़ देना तुझे उचित नहीं है । बेटा ! मुझ आश्रयहीनाका तो एकमात्र तू ही सहारा है ॥१६॥
कहाँ तो पाँच वर्षका तू और कहाँ तेरा यह अति उग्र तप ? अरे ! इस निष्फल क्लेषकारी आग्रहसे अपना मन मोड़ ले ॥१७॥
अभी ती तेरे खेलने कूदनेका समय है, फिर अध्ययनका समय आयेगा, तदनन्तर समस्त भोगोंके भोगनेका और फिर अन्तमें तपस्या करना भी ठिक होगा ॥१८॥
बेटा ! तुझ सुकुमार बालकका जो खेल कूदका समय है उसीमें तू तपस्या करना चाहता है । तू इस प्रकार क्यों अपनें सर्वनाशमें तप्तर हुआ है ? ॥१९॥
तेरा परम धर्म तो मुझको प्रसन्न रखना ही है, अतः तू अपनी आयु और अवस्थाके अनुकूल कर्मोमें ही लगे, मोहका अनुवर्तन न कर और इस तपरूपी अधर्मसे निवृत्त हो ॥२०॥
बेटा ! यदि आज तू इस तपस्याको च छोड़ेगा तो देख तेरे सामने ही मैं अपने प्राण छोड़ दूँगी ॥२१॥
श्रीपराशरजी बोले -
हे मैत्रेय ! भगवान विष्णुमें चित्त स्थिर रहनेके कारण ध्रुवने उसे आँखोमें आँसू भरकर इस प्रकार विलाप करती देखकर भी नहीं देखा ॥२२॥
तब, अरे बेटा ! यहाँसे भाग-भाग ! देख, इस महाभंयकर वनमें ये कैस घोर राक्षस अस्त्र शस्त्र उठाये आ रहे हैं ऐसा कहती हुई वह चली गयी और वहाँ जिनके मुखसे अग्निकी लपटें निकल रहीं थीं ऐसे अनेकीं राक्षसगण अस्त्र शस्त्र सँभाले प्रकट हो गये ॥२३-२४॥
उन राक्षसोंने अपने अति चमकीले शस्त्रोंको घुमाते हुए उस राजपुत्रके सामने बड़ा भयंकर कोलाहल किया ॥२५॥
उस नित्य योगयुक्त बालकको भयभीत करनेके लिये अपने मुखसे अग्निकी लपटें निकालती हुई सैकडों स्यारियाँ घोर नाद करने लगीं ॥२६॥
वे राक्षसगण भी इसको मारो-मारो काटो-काटो, खाओ-खाओ' इस प्रकार चिल्लाने लगे ॥२७॥
फिर सिंह, ऊँट और मकर आदिके से मुखवाले वे राक्षस राजपुत्रको त्राण देनेके लिये नाना प्रकारसे गरजने लगे ॥२८॥
किन्तु उस भगवदासक्तचित्त बालकको वे राक्षस उनके शब्द, स्यारियाँ और अस्त्र शस्त्रादि कुछ भी दिखायीं नहीं दिये ॥२९॥
वह राजपुत्र एकाग्रचित्तसे निरंन्तर अपने आश्रयभूत विष्णुभगवानको ही देखता रहा और उसने किसीकी और किसी भी प्रकार दृष्टिपात नहीं किया ॥३०॥
तब सम्पूर्ण मायाके लीन हो जानेपर उससे हार जानेकी आशंकासे देवताओंको बड़ा भय हुआ ॥३१॥
अतः उसके तपसे सन्तप्त हो वे सब आपसमें मिलकर जगत्‌के आदि-कारण, शरणागतवत्सल, अनादि और अनन्त श्रीहरिकी शरणमें गये ॥३२॥
देवता बोले - हे देवाधिदेव, जगन्नाथ, परमेश्वर, पुरुषोत्तम ! हम सब ध्रुवकी तपस्यासे सन्तम होकर आपकी शरणमें आये हैं ॥३३॥
हे देव ! जिस प्रकर चन्द्रमा अपनी कलाओंसे प्रतिदिन बढ़्ता है उसी प्रकार यह भी तपस्याके कारण रात दिन उन्नत हो रहा है ॥३४॥
हे जनार्दन ! इस उत्तानपादके पुत्रकी तपस्यासे भयभीत होकर हम आपकी शरणमें आये हैं, आप उसे तपसे निवृत्त किजिये ॥३५॥
हम नहीं जानते, वह इन्द्रत्व चाहता है या सूर्यत्व अथवा उसे कुबेर, वरूण या चन्द्रमाके पदकी अभिलाषा है ॥३६॥
अतः हे ईश ! आप हमपर प्रसन्न होइये और इस उत्तानपादके पुत्रको तपसे निवृत्त करके हमारे हृदयका काँटा निकालिये ॥३७॥
श्रीभगवान् बोले -
हे सुरगण ! उसे इन्द्र, सूर्य वरूण अथवा कुबेर आदि किसीके पदकीं अभिलाषा नहीं है, उसके३ए जो कुछ इच्छा है वह मैं सब पूर्ण करुँगा ॥३८॥
हे देवगण ! तुम निश्चिन्त होकर इच्छानुसार अपने अपने स्थानोंको जाओ । मैं तपस्यामें लगे हुए उस बालकको निवृत्त करता हूँ ॥३९॥
श्रीपराशरजी बोले -
देवाधिदेव भगवानके ऐसा कहनेपर इन्द्र आदि समस्त देवगण उन्हें प्रणामकर अपने अपने स्थानोंको गये ॥४०॥
सर्वात्मा भगवान हरिने भी ध्रुवकी तन्मयतासे प्रसन्न है उसके निकट चतुर्भुजस्वरूपसे जाकर इस प्रकार कहा ॥४१॥
श्रीभगवान बोले -
हे उत्तानापादके पुत्र ध्रुव ! तेरा कल्याण हो । मैं तेरी तपस्यासे प्रसन्न होकर तुझे वर देनेके लिये प्रकट हुआ हूँ, हे सुव्रत ! तू वर माँग ॥४२॥
तुने सम्पूर्ण बाह्म विषयोंसे उपरत होकर अपने चित्तको मुझमें ही लगा दिया है । अतः मैं तुझसे अति सन्तुष्ट हूँ । अब तू अपनी इच्छानुसार श्रेष्ठ वर माँग ॥४३॥
श्रीपराशरजी बोले -
देवाधिदेव भगवानके ऐसे वचन सुनकर बालक ध्रुवने आँखें खोलीं और अपनी ध्यानावस्थामें देखें हुए भगवान हरिको साक्षात अपने सम्मुख खडे़ देखा ॥४४॥
श्रीअच्युतको किरीट तथा शड्ख चक्र, गदा शार्ड धनुष्य और खड्ग धारण किये देख उसने पृथिवीपर सिर रखकर प्रणाम किया ॥४५॥
और सहसा रोमात्र्चित तथा परम भयभीत होकर उसने देवदेवकी स्तुति करनेकी इच्छा की ॥४६॥
किन्तु 'इनकी स्तुतिके लिये मैं क्या कहूँ ? क्या कहनेसे इनका स्तवन हो सकता है ?' यह न जाननेके कारण वह चित्तमें व्याकुल हो गया और अन्तमें उसने उन देवदेवकी ही शरण ली ॥४७॥
ध्रुवने कहा - भगवन् ! आप यदि मेरी तपस्यासे सन्तुष्ट हैं तो मैं आपकी स्तुति करना चाहता हूँ, आप मुझे यही वर दीजिये ( जिससे मैं स्तुति कर सकूँ ) ॥४८॥
( हे देव ! जिनकी गति ब्रह्मा आदि वेदज्ञजन भी नहीं जानते; उन्हीं आपका मैं बालक कैसे स्तवन कर सकता हूँ । किन्तु हे परम प्रभो ! आपकी भक्तिसे द्रवीभूत हुआ मेरा चित्त आपके चरणोंकी स्तुति करनेमें प्रवृत्त हो रहा है । अतः आप इस उसके लिये बुद्धि प्रदान किजिये ) ।
श्रीपराशरजी बोले -
हे द्विजवर्य ! तब जगत्पति श्रीगोविन्दने अपने सामने हाथ जोड़े खड़े हुए उस उत्तानपादके पुत्रको अपने ( वेदमय ) शड्खके अन्त ( वेदान्तमय ) भागसे छू दिया ॥४९॥
तब तो एक क्षणमें ही वह राजकुमार प्रसन्न मुखसे अति विनीत हो सर्वभूताधिष्ठान श्रीअच्युतकी स्तुति करने लगा ॥५०॥
ध्रुव बोले - पृथिवी, जल, अग्नि, वायू, आकाश, मन बुद्धी अहंकार और मुल प्रकृति - यें सब जिनके रूप हैं उन भगवानको मैं नमस्कार करता हूँ ॥५१॥
जो अति शुद्ध, सुक्ष्म, सर्वव्यापक और प्रधानसे भी परे हैं, वह पुरुष जिनका रूप है उन गुण भोक्ता परमपुरुषको मैं नमस्कार करता हूँ ॥५२॥
हे परमेश्वर ! पृथिवी आदि समस्त भूत, गन्धादि उनके गुण, बुद्धि आदि अन्तः करण चतुष्टय तथा प्रधान और पुरुष ( जीव ) से भी परे जो सनातन पुरुष हैं, उन आप निखिलब्रह्माण्डनायकके ब्रह्मभुत शुद्धस्वरूप आत्माकी मैं शरण हूँ ॥५३-५४॥
हे सर्वात्मन ! हे योगियोकें चिन्तनीय ! व्यापक और वर्धनशील होनेके कारण आपका जो ब्रह्मा नामक स्वरूप है, उस विकाररहित रूपको मैं नमस्कार करता हूँ ॥५५॥
हे प्रभो ! आप हजारों मस्तकोंवाले, हजारों नेत्रोवाले और हजारों चरणोवाले परमपुरुष हैं, आप सर्वत्र व्याप्त हैं और ( पृथिवी आदि आवरणोकें सहित ) सम्पूर्ण ब्रह्माण्डको व्याप्त कर दस गुण महाप्रमाणसे स्थित हैं ॥५६॥
हे पुरुषोत्तम ! भूत और भविष्यत जो कुछ पदार्थ है वे सब आप ही हैं तथ विराट, खराट सम्राट और अधिपुरुष ( ब्रह्म ) आदि भी सब आपहीसे उप्तन्न हुए हैं ॥५७॥
वे ही आप इस पृथिवीके नीचे ऊपर और इधर उधर सब और बढे़ हुए हैं । यह सम्पूर्ण जगत् आपहीसे उप्तन्न हुआ है तथा आपहीसे भूत और भविष्यत हुए है ॥५८॥
यह सम्पर्ण जगत आपके स्वरूपभूत ब्रह्माण्डके अन्तर्गत है ( फिर आपके अन्तर्गत होनेकी तो बात ही क्या है ) जिससें सभी पुरोडाशोंका हवन होता है वह यज्ञ, पृषदाज्य ( दधि और घृत ) तथा ( ग्राम और वन्य ) दो प्रकारके पशु, आपहीसे उप्तन्न हुए हैं ॥५९॥
आपहीसे ऋक् आम और गायत्री आदि छन्द प्रकट हुए हैं, आपहीसे यजुर्वेदका प्रादुर्भाव हुआ है और आपहीसे अश्व तथा एक ओर दाँतवाले महिष आदि छन्द प्रकट हुए हैं , आपहीसे ऋक् साम और गायत्री आदि छन्द प्रकट हुए हैं, आपहीसे यजुर्वेदका प्रादुर्भाव हुआ है और आपहीसे अश्व तथा एक और दाँतवाले महिषा आदि जीव उप्तन्न हुए हैं ॥६०॥
आपहीसे गौओं बकरियों भेड़ों और मृगोंकी उप्तत्ति हुई है; आपहीके मुखसे ब्राह्मण, बाहुओंसे क्षत्रिय, जंघाओंसे वैश्य और चरनोंसे शुद्र प्रकट हुए हैं तथा आपहीके नेत्रोंसे सूर्य , प्रणासे वायु, मनसे चन्द्रमा, भीतरी छिद्र ( नासारन्ध्र ) से प्राण, मुखसे अग्नि, नाभिसे आकाश, सिरसे स्वर्ग, श्रोत्रसे दिशाएँ और चरणोंसे पृथिवी आदि उप्तन्न हुए हैं; इस प्रकार हे प्रभ ! यह सम्पूर्ण जगत् आपहीसे प्रकट हुआ है ॥६१-६४॥
जिस प्रकार नन्हेंसे बीजमें बड़ा भारी वट वृक्ष रहता है उसी प्रकार प्रलय कालमें यह सम्पूर्ण जगत बीज स्वरूप आपहीमें लीन रहता है ॥६५॥
जिस प्रकर बीजसे अंकुरूपमें प्रकट हुआ वट वृक्ष बढंकर अत्यन्त विस्तारवाला हो जाता है उसी प्रकार सृष्टिकालमें यह जमत् आपहीसे प्रकट होकर फैल जाता है ॥६६॥
हे ईश्वर ! जिस प्रकार केलेका पौधा छिलके और पत्तोसें अलग दिखायी नहीं देता उसी प्रकार जगतके आप पृथक नही हैं, वह आपहीमें स्थित देखा जाता है ॥६७॥
सबके आधारभूत आपके ह्लादिनी ( निरन्तर आह्लदित करनेवाली ) और सन्धिनी ( विच्छेदरहित ) संवित ( विद्याशक्त ) अभिन्नरूपसे रहती हैं । आपमें ( विषयजन्य ) आह्लाद या ताप देनेवाली ( सात्त्विकी या तामसी ) अथवा उभयमिश्रा ( राजसी ) कोई भी संवित नहीं हैं, क्योकि आप निर्गुण हैं ॥६८॥
आप ( कार्यदृष्टिसे ) पृथक रूप और ( कारणदृष्टिसे ) एकरूप हैं । आप ही भूतसूक्ष्म है और आप ही नाना जीवरूप हैं । हे भूतान्तरात्मन् ! ऐसे आपको मैं नमस्कार करता हूँ ॥६९॥
( योगियोंके द्वारा ) अन्तःकरणमें आप ही महत्तत्त्व, प्रधान, पुरुष विराट, सम्राट और स्वराट् आदि रूपोंसे भावना किये जाते हैं, और ( क्षयशील ) पुरुषोंमें आप नित्य अक्षय हैं ॥७०॥
आकाशादि सर्वभूतोंमें सार अर्थात उनके गुणरूप आप ही हैं; समस्त रूपोंको धारण करनेवाले होनेसे सब कुछ आप ही है; सब कुछ आपहीसे हुआ है; अतएव सबके द्वारा आप ही हो रहे है इसलिये आप सर्वात्माको नमस्कार है ॥७१॥
हे सर्वेश्वर ! आप सर्वात्मक हैं; क्योंकि सम्पूर्ण भूतोंमें व्याप्त है; अतः मैं आपसे क्या कहूँ ? आप स्वयं ही सब हृदयस्थित बातोंकी आप्से क्या कहूँ ? आप स्वय ही सब हृदयस्थित बातोंको जानते हैं ॥७२॥
हे सर्वात्मन ! हे सर्वभूतेश्वर ! हे सब भूतोंके आदि स्थान ! आप सर्वभूतरूपसे सभी प्राणियोंके मनोरथोंको जानते हैं ॥७३॥
हे नाथ ! मेरा जो कुछ्फ़ मनोरथ था वह तो आपने सफल कर दिया और हे जगत्पते ! मेरी तपस्या भी सफल हो गयी, क्योंकी मुझे आपका साक्षात दर्शन प्राप्त हुआ ॥७४॥
श्रीभगवान बोले -
ध्रुव ! तुमको मेरा साक्षात दर्शन प्राप्त हुआ, इससे अवश्य ही तेरी तपस्या तो सफल हो गयी: परन्तु हे राजकुमार ! मेरा दर्शन भी तो कभी निष्फल नहीं होता ॥७५॥
इसलिये तुझको जिस वरकी इच्छा हो वह माँग ले । मेरा दर्शन हो जानेपर पुरुषको सभी कुछ प्राप्त हो सकता है ॥७६॥
ध्रुव बोले- हे भूतभव्येश्वर भगवन् ! आप सभीके अन्तः करणोंमें विराजमान हैं । हे ब्रह्मन ! मेरे मनकी जो कुछ अभिलाषा है वह क्या आपसे छिपी हुई है ? ॥७७॥
तो भी, हे देवश्वर ! मैं दुर्विनीत जिस अति दुर्लभ वस्तुकी हृदयसे इच्छा करता हूँ उसे आपकी आज्ञानुसार आपके प्रति निवेदन करूँगा ॥७८॥
हे समस्त संसारको रचनेवाले परमेश्वर ! आपके प्रसन्न होनेपर ( संसारमें ) क्या दुर्लभ है ? इन्द्र भी आपके कृपाकटाक्षके फलरूपसे ही त्रिलोकीको भोगता है ॥७९॥
प्रभो ! मेरी सौतेली माताने गर्वसे अति बुढ- बुढकर मुझसे यह कहा था कि ' जो मेरे उदरसे उप्तन्न नहीं है उसके योग्य यह रजासह नहीं है' ॥८०॥
अतः हे प्रभो ! आपके प्रसादसे मैं उस सर्वोत्तम एवं अव्यय स्थानको प्राप्त करना चाहता हूँ जो सम्पूर्ण विश्वका आधारभूत हो ॥८१॥
श्रीभगवान बोले -
अरे बालक ! तूने अपने पूर्वजन्ममें भी मुझे सन्तुष्ट किया था, इसलिये तू जिस स्थानकी इच्छा करता है उसे अवश्य प्राप्त करेगा ॥८२॥
पूर्व जन्ममें तू एक ब्राह्मण था और मुझमें निरन्तर एकाग्रचित रहनेवाला, माता पिताका सेवक तथा स्वधर्मका पालन करनेवाला था ॥८३॥
कालनतरमें एक राजपुत्र तेरा मित्र हो गया । वह अपनी युवावस्थामें सम्पूर्ण भोगोंसे सम्पन्न और अति दर्शनीय रूपलावण्ययुक्त भोगोंसे सम्पन्न और अति दर्शनीय रूपलावण्ययुक्त था ॥८४॥
उसके संगमें उसके दुर्लभ वैभवको देखकर तेरी ऐसी इच्छा हुई कि 'मैं भी राजपुत्र होऊँ ॥८५॥
अतः हे ध्रुव ! तुझको अपनी मनोवात्र्छित राजपुत्रता प्राप्त हूई और जिन स्वायम्भुवमनुके कुलमें और किसीको स्थान मिलना अति दुर्लभ है, उन्हीकि घरमें तुने उत्त्तानपादके यहाँ जन्म लिया ॥८६-८७॥
अरे बालक ! ( औरोंके लिये यह स्थान कितना ही दुर्लभ हो परन्तु ) जिसने मुझे सन्तुष्ट किया है उसके लिये तो यह अत्यन्त तुच्छ है । मेरी आराधना करनेसे तो मोक्षपद भी तत्काल प्राप्त हो सकता है, फिर जिसक चित्त निरन्तर मुझमें ही लगा हुआ है उसके लिये स्वर्गादि लोकोंका तो कहना ही क्या है ? ॥८८-८९॥
हे ध्रुव ! मेरी कॄपासे तू निस्सन्देह उस स्थानमें, जो त्रिलोकीमें सबसे उत्कृष्ट है, सम्पूर्ण ग्रह और तारामण्डलका आश्रय बनेगा ॥९०॥
हे ध्रुव ! मैं तुझे वह ध्रुव ( निश्चल ) स्थान देता हूँ जो सूर्य, चंद्र, मंगल, बुध , बृहस्पति और सम्पूर्ण विमानचारी देवगणोंसे ऊपर है ॥९१-९२॥
देवता आमेंसे कोई तो केवल चार युगतक और कोई एक मन्वन्तरक ही रहते है; किन्तु तुझे मैं एक कल्पतककी स्थिति देता हूँ ॥९३॥
तेरी माता सुनीति भी अति स्वच्छ तारारूपसे उतने ही समयतक तेरे पास एक विमानपर निवास करेगी ॥९४॥
और जो लोग समाहित चित्तसे सायड्काल और प्रातःकालके समय तेरा गुण कीर्तन करेंगे उनको महान् पुण्य होगा ॥९५॥
श्रीपराशरजी बोले -
हे महामते ! इस प्रकार पूर्वकालमें जगत्पति देवाधिदेव भगवान् जनार्दनसे वर पाकर ध्रुव उस अत्युत्तम स्थानमें स्थित हुए ॥९६॥
हे मुने ! अपने माता पिताकी धर्मपूर्वक सेवा करनेसे तथा द्वादशाक्षर मन्त्रके माहात्म्य और तपके प्रभावसे उनके मान, वैभव एवं प्रभावकी वृद्धि देखकर देव और असुरोंके आचार्य शुक्रदेवने ये श्लोक कहे हैं ॥९७-९८॥
'अहो ! इस ध्रुवके तपका कैसा प्रभाव है ? अहो ! इसकी तपस्याका कैसा अद्भुत फल हैं जो इस ध्रुवको ही आगे रखकर सप्तार्षिगण स्थित हो रहे हैं ॥९९॥
इसकी यह सुनीति नामवाली माती भी अवश्य ही सत्य और हितकर वचन बोलनेवाली है * । संसारमें ऐसा कोण है जो इसकी महिमाका वर्णन कर सके ? जिसने अपनी कोखमें उस ध्रुवको धारण करके त्रिलोकीका आश्रयभूत अति उत्तम स्थान प्राप्त कर लिया, जो भविष्यमें भी स्थिर रहनेवाला है' ॥१००-१०१॥
जो व्यक्ति ध्रुवके इस दिव्यलोक प्राप्तिके प्रसंगक कीर्तन करता है वह सब पापंसे मुक्त होकर स्वर्गलोकमें पूजित होता है ॥१०२॥
वह स्वर्गमें रहे अथवा पृथ्विवीमें कभी अपने स्थानसे च्युत नहीं होता तथा समस्त मंगलोंसे भरपूर रहकर बहुत कालतक जीवित रहता है ॥१०३॥
* सुनीतिने ध्रुवको पूण्योपर्जन करनेका उपदेश दिया था, जिसके आचरणसे उन्हें उत्तम लोक प्राप्त हुआ । अतएव 'सुनीति' सूनृता कही गयी है ।
इति श्रीविष्णुपुराणे प्रथमेंऽशें द्वादशोऽध्यायः ॥१२॥


श्रीपराशरजी बोले -
हे मैत्रेय ! ध्रुवसे ( उसकी पत्नीने ) शिष्टि और भव्यको उत्पन्न किया और भव्यसे शम्भुका जन्म हुआ तथा शिष्टिके द्वारा उसकी पत्नी सुच्छायाने रिपु, रिपुत्र्जय, विप्र, वृकत और वृकतेजा नामक पाँच निष्पाप पुत्र उप्तन्न किये । उनमेंसे रिपुके द्वारा बृहतीके गर्भसे महातेजस्वी चाक्षुषका जन्म हुआ ॥१-२॥
चाक्षुषने अपनी भार्या पुष्करणीसे, जो वरूण - कुलमें उप्तन्न और महात्मा वीरण प्रजापतिकी पुत्री थी, मनुको उप्तन्न किया ( जो छठे मन्वन्तरके अधिपति हुए ) ॥३॥
तपस्वियोंमें श्रेष्ठ मनुसे वैराज प्रजापतिकी पुत्री नंवलाके गर्भमें दस महातेजस्वी पुत्र उत्पन्न हुए ॥४॥
नंवलासे कुरु, पुरु, शतद्युम्र, तपस्वी, सत्यवान्, शुचि, अग्निष्टोम, अतिरात्र तथा नवाँ सुद्युम्र और दसवाँ अभिमन्यु इन महातेजस्वी पुत्रोंका जन्म हुआ ॥५॥
कुरुके द्वारा उसकी पत्नी आग्नेयीने अंग, सुमना, ख्याति, क्रतु, अंगिरा और शिबि इन छः परम तेजस्वी पुत्रोंको उत्पन्न किया ॥६॥
अंगसे सुनीथाके वेन नामक पुत्र उप्तन्न हुआ । ऋषियोंने उस ( वेन ) के दाहिने हाथका सन्तानके लिये मन्थन किया था ॥७॥
हे महामुने ! वेनके हाथका मन्थन करनेपर उससे वैन्य नामक महीपाल उप्तन्न हुए जो पृथु नामसे विख्यात है और जिन्होंने प्रजाके हितके लिये पूर्वकालमें पृथिवीको दुहा था ॥८-९॥
श्रीमैत्रेयजी बोले -
हे मुनिश्रेष्ठ ! परमर्षियोंने वेनके हाथको क्यों मथा जिससे महापराक्रमी पृथुका जन्म हुआ ? ॥१०॥
श्रीपराशरजी बोले -
हे मुने ! मृत्युकी सुनीथा नामवाली जो प्रथम पुत्री थी वह अंगको पत्नीरूपसे दी ( व्याही ) गयी थी । उसीसे वेनका जन्म हुआ ॥११॥
हे मैत्रेय ! वह मृत्युकी कन्याका पुत्र अपने मातामह ( नाना ) के दोषसे स्वभावसे ही दुष्टप्रकृति हुआ ॥१२॥
उस वेनका जिस समय महर्षियोंद्वारा राजपदपर अभिषेक हुआ उसी समय उस पृथिवीपतिने संसारभरमें यह घोषणा कर दी कि 'भगवान्, यज्ञपुरुष मैं ही हूँ मुझसे अतिरिक्त यज्ञका भोक्ता और स्वामी हो ही कौन सकता है ? इसलिये कभी कोई यज्ञ, दान और हवन आदि न करें' ॥१३-१४॥
हे मैत्रेय ! तब ऋषियोंने उस पृथिवीपतिके पास उपस्थित हो पहले उसकी खुब प्रशंसा कर सान्त्वनायुक्त मधुर वाणीसे कहा ॥१५॥
ऋषिगण बोले - हे राजन् ! हे पृथिवीपते ! तुम्हारे राज्य और देहके उपकार तथा प्रजाके हितके लिये हम जो बात कहते हैं, सुनो ॥१६॥
तुम्हारा कल्याण हो; देखो, हम बडे़-बडे़ यज्ञोंद्वारा जो सर्व - यज्ञेश्वर देवाधिपति भगवान् हरिका पूजन करेंगे उसके फलमेंसे तुमको भी ( छठ ) भाग मिलेगा ॥१७॥
हे नृप ! इस प्रकार यज्ञोंके द्वारा यज्ञपुरुष भगवान् विष्णु प्रसन्न होकर हमलोगोंके साथ तुम्हारी भी सकल कामनाएँ पूर्ण करेंगे ॥१८॥
हे राजन् जिन राजाओंके राज्यमें यज्ञेश्वर भगवान् हरिका यज्ञोंद्वारा पूजन किया जाता है, वे उनकी सभी कामनाओंको पूर्ण कर देते हैं ॥१९॥
वेन बोला - मुझसे भी बढ़कर ऐसा और कौन है जो मेरा भी पूजनीय है ? जिसे तुम यज्ञेश्वर मानते हो वह 'हरि' कहलानेवाली कौन है ? ॥२०॥
ब्रह्मा, विष्णु, महादेव, इन्द्र, वायु , यम, सूर्य, अग्नि, वरुण, धाता, पूषा, पृथिवी और चन्द्रमा तथा इनके अतिरिक्त और भी जितने देवता शाप और कृपा करनेमें समर्थ हैं वे सभी राजाके शरीरमें निवास करते हैं, इस प्रकार राजा सर्वदेवमय है ॥२१-२२॥
हे ब्राह्मणो ! ऐसा जानकर मैंने जैसी जो कुछ आज्ञा की है वैसा ही करो । देखो, कोई भी दान, यज्ञ और हवन आदि न करे ॥२३॥
हे द्विजगण ! स्त्रीका परमधर्म जैसे अपने पतिकी सेवा करना ही माना गया है वैसे ही आपलोगोंका धर्म भी मेरी आज्ञाका पालन करना ही है ॥२४॥
ऋषिगण बोले - महाराज ! आप ऐसी आज्ञा दीजिये, जिससे धर्मका क्षय न हो ! देखिये, यह सारा जगत् हवि ( यज्ञमें हवन की हुई सामग्री ) का ही परिणाम है ॥२५॥
श्रीपराशरजी बोले - महर्षियोंके इस प्रकार बारम्बार समझाने और कहने सुननेपर भी जब वेनने ऐसी आज्ञा नहीं दी तो वे अत्यन्त क्रुद्ध और अमर्षयुक्त होकर आपसमें कहने लगे - 'इस पापीको मारो, मारो ! ॥२६-२७॥
जो अनादि और अनन्त यज्ञपुरुष प्रभु विष्णुकी निन्दा करता है वह अनाचारी किसी प्रकार पृथिवीपति होनेके योग्य नहीं है' ॥२८॥
ऐसा कह मुनिगणोंने भगवान्‌की निन्दा आदि करनेके कारण पहले ही मरे हुए उस रजाअको मन्त्रसे पवित्र पवित्र किये हुए कुशाओंसे मार डाला ॥२९॥
हे द्विज ! तदनन्तर उन मुनीश्वरोंने सब और बड़ी धूलि उठती देखी, उसे देखकर उन्होंने अपने निकटवर्ती लोगोंसे पूछा - " यह क्या है ? " ॥३०॥
उन पुरुषोंने कहा - "राष्ट्रके राजाहीन हो जानेसे दीन-दुःखिया लोगोंने चोर बनकर दूसरोंका धन लूटना आरम्भ कर दिया है ॥३१॥
हे मुनिवरो ! उन तीव्र वेगवाले परधनहारी चारोंके उत्पातसे ही यह बड़ी भारी धूलि उड़ती दीख रही हैं" ॥३२॥
तब उन सब मुनीश्वरोंने आपसमें सलाह कर उस पुत्रहीन राजाकी जंघाका पुत्रके लिये यत्नपूर्वक मन्थन किया ॥३३॥
उसकी जंघाके मथनेपर उससे एक पुरुष उत्पन्न हुआ जो जले ठूँठके समान काला, अत्यन्त नाटा और छोटे मुखवाला था ॥३४॥
उसने अति आतुर होकर उन सब ब्राह्मणोंसे कहा - ' मैं क्या करूँ ? ' उन्होंने कहा - "निषीद ( बैठ )" अतः वह 'निषाद कहलाया ॥३५॥
इसलिये हे मुनिशार्दुल ! उससे उप्तन्न हुए लोग विन्ध्याचलनिवासी पाप-परायण निषादगण हुए ॥३६॥
उस निषादरूप द्वारसे राजा वेनका सम्पूर्ण पाप निकल गया । अतः निषादगण वेनके पापोंका नाश करनेवाले हुए ॥३७॥
फिर उन ब्राह्मणोंने उसके दायें हाथका मन्थन किया । उसका मन्थन करनेसे परमप्रतापी वेनसुवन पृथु प्रकट हुए, जो अपने शरीरसे प्रज्वलित अग्निके समान देदीप्मान थे ॥३८-३९॥
इसी समय आजगव नामक आद्य ( सर्वप्रथम ) शिव - धनुष और दिव्य वाण तथा कवच आकाशसे गिरे ॥४०॥
उसके उप्तन्न होनेसे सभी जीवोंको अति आनन्द हुआ और केवल सत्पुत्रके ही जन्म लेनेसे वेन भी स्वर्गलोककों चला गया । इस प्रकार महात्मा पुत्रके कारण ही उसकी पुम् आर्थात नरकसे रक्षा हुई ॥४१-४२॥
महाराज पृथुके अभिषेकके लिये सभी समुद्र और नदियाँ सब प्रकारके रत्न और जल लेकर उपस्थित हुए ॥४३॥
उस समय आंगिरस देवगणोंके सहित पितामह ब्रह्माजीने और समस्त स्थावर जंगम प्राणोयोने वहाँ आकर महाराज वैन्य ( वेनपुत्र ) का राज्याभिषेक किया ॥४४॥
उनके दाहिने हाथमें चक्रका चिह्न देखकर उन्हें विष्णुका अंश जान पितामह ब्रह्माजीको परम आनन्द हुआ ॥४५॥
यह श्रीविष्णुभगवान्‌के चक्रका चिह्न सभी चक्रवर्ती राजाओंके हाथमें हुआ करता है । उसका प्रभाव कभी देवताओंसे भी कुण्ठित नहीं होता ॥४६॥
इस प्रकार महतेजस्वी और परम प्रतापी वेनपुत्र धर्मकुशल महानुभावोंद्वारा विधिपूर्वक अति महान् राजाराजेश्वरपदपर अभिषिक्त हुए ॥४७॥
जिस प्रजाको पिताने अपरक्त ( अप्रसन्न ) किया था उसीको उन्होंने अनुरत्र्जित ( प्रसन्न ) किया, इसलिये अनुरज्त्रन करनेसे उनका नाम 'राजा' हुआ ॥४८॥
जब वे समुद्रमें चलते थे, तो जल बहनेसे रुक जाता था, पर्वत उन्हें मार्ग देते थे और उनकी ध्वजा कभी भंग नहीं हुई ॥४९॥
पृथिवी बिना जोते - बोये धान्य पकानेवाली थी; केवल चिन्तनमात्रसे ही अन्न सिद्ध हो जाता था, गौएँ कामधेनुरूपा थीं और पत्ते - पत्तेमें मधु भरा रहता था ॥५०॥
राजा पृथुने उप्तन्न होते ही पैतामह यज्ञ किया; उससे सोमाभिषवके दिन सूति ( सोमाभिषवभूमि ) से महामति सुतकी उप्तत्ति हुई ॥५१॥
उसी महायज्ञमें बुद्धिमान् मागधका भी जन्म हुआ । तब मुनिवरोंने उन दोनों सूत और मागधोंसे कहा - ॥५२॥
'तुम इन प्रतापवान् वेनपुत्र महाराज पृथुकी स्तुति करो । तुम्हारे योग्य यही कार्य है और राजा भी स्ततिके ही योग्य हैं' ॥५३॥
तब उन्होंने हाथ जोड़कर सब ब्राह्मणोंसे कहा - 'ये महाराज तो आज ही उप्तन्न हुए हैं, हम इनके न तो कोई कर्म तो जानते ही नहीं हैं ॥५४॥
अभी इनके न तो कोई गुण प्रकट हुए हैं और न यश ही विख्यात हुआ है; फिर कहिये, हम किस आधारपर इनकी स्तुति करें " ॥५५॥
ऋषिगण बोले - ये महाबाली चक्रवर्ती महाराज भविष्यमें जो-जो कर्म करेंगे और इनके जो-जो भावी गुण होंगे उन्हींसे तुम इनका स्तवन करो ॥५६॥
श्रीपराशरजी बोले - यह सुनकर राजाको भी परम सन्तोष हुआः उन्होंने सोचा 'मनुष्य सद्‌गुणोंके कारण ही प्रशंसाका पात्र होता हैं; अतः मुझको भी गुण उपार्जन करने चाहिये ॥५७॥
इसलिये अब स्तुतिके द्वारा ये जिन गुणोंका वर्णन करेंगे मैं भी सावधानतापूर्वक वैसा ही करूँगा ॥५८॥
यदि यहाँपर ये कुछ त्याज्य अवगुणोंको भी कहेंगे तो मैं उन्हें त्यागूँगा । 'इस प्रकार राजाने अपने चित्तमें निश्चय किया ॥५९॥
तदनन्तर उन ( सूत और मागध ) दोनोंने परम बुद्धिमान् वेननन्दन उन ( सूत और मागध ) दोनोंने परम बुद्धिमान वेननन्दन महाराज पृथुका, उनके भावी कार्मोकें आश्रयसे स्वरसहित भली प्रकार स्तवन किया ॥६०॥
( उन्होंने कहा - ) ' ये महाराज सत्यवादी, दानशील, सत्यमर्यादावाले, लज्जाशील, सुहृद्, क्षमाशील, पराक्रमी और दुष्टोंका दमन करनेवाले हैं ॥६१॥
ये धर्मज्ञ, कृतज्ञ, दयावान्, प्रियभाषी, माननीयोंको मान देनेवाले, यज्ञपरायण, ब्रह्माण्य, साधुसमाजमें सम्मानित और शत्रु तथा मित्रके साथ समान व्यवहार करनेवाले हैं' ॥६२-६३॥
इस प्रकार सूत और मागधके कहे हुए गुणोंको उन्होंने अपने चित्तमें धारण किया और उसी प्रकारके कार्य किये ॥६४॥
तब उन पृथिवीपतिने पृथिवीका पालन करते हुए बड़ी-बड़ी दक्षिणाओंवाले अनेकों महान् यज्ञ किये ॥६५॥
अराजकताके समय ओषाधियोंके नष्ट हो जानेसे भूखसे व्याकुल हुई प्रजा पृथिवीनाथ पृथुके पास आयी और उनके पूछनेपर प्रमाण करके उनसे अपने आनेका कारण निवेदन किया ॥६६॥
प्रजाने कहा - हे प्रजापति नृपश्रेष्ठ ! अराजकताके समय पृथिवीने समस्त ओषधियाँ अपनेमें लीन कर ली हैं अतः आपकी सम्पूर्ण प्रजा क्षीण हो रही है ॥६७॥
विधाताने आपको हमारा जीवनदायक प्रजापति बनाया है; अतः क्षुधारूप महारोगसे पीड़ित हम प्रजाजनोंको आप जीवनरूप ओषधि दीजिये ॥६८॥
श्रीपराशरजी बोले -
यह सुनकर महाराज पृथु अपना आजगव नामक दिव्य धनुष और दिव्य बाण लेकर अत्यन्त क्रोधपूर्वक पृथिवीके पीछे दौड़े ॥६९॥
तब भयसे अत्यन्त व्याकुल हुई पृथिवी गौका रूप धारणकर भागी और ब्रह्मालोक आदि सभी लोकोंमें गयी ॥७०॥
समस्त भूतोंको धारण करनेवाली पृथिवी जहाँ-जहाँ भी गयी वहीं- वहीं उसने वेनपुत्र पृथुको शस्त्र सन्धान किये अपने पीछे आते देखा ॥७१॥
तब उन प्रबल पराक्रमी महाराज पृथुसे, उनके वाणप्रहारसे बचनेकी कामनासे काँपती हुई पृथिवी इस प्रकार बोली ॥७२॥
पृथिवीन कहा - हे राजेन्द्र ! क्या आपको स्त्रीवधका महापाप नहीं दीख पड़ता, जो मुझे मारनेपर आप ऐसे उतारू हो रहे है ? ॥७३॥
पृथु बोले -
जहाँ एक अनर्थकारीको मार देनेसे बहुतोंको सुख प्राप्त हो उसे मार देना ही पूण्यप्रद है ॥७४॥
हे नृपश्रेष्ठ ! यदि आप प्रजाके हितके लिये ही मुझे मारना चाहते है तो ( मेरे मर जानेपर ) आपकी प्रजाका आधार क्या होगा ? ॥७५॥
पृथुने कहा -
अरी वसुधे ! अपनी अज्ञाका उल्लंघन करनेवाली तुझे मारकर मैं अपने योगबलसे ही इस प्रजाको धारण करुँगा ॥७६॥
श्रीपराशरजी बोले -
तब अत्यन्त भयभीत एवं काँपती हूई पृथिवीने उन पृथिवीपतिको पुनः प्रणाम करके कहा ॥७७॥
पृथिवी बोली -
हे रजान् ! यत्नपूर्वक आरम्भ किये हुए सभी कार्य सिद्ध हो जाते हैं । अतः मैं भी आपको एक उपाय बताती हूँ; यदि आपकी इच्छा हो तो वैसा हो करें ॥७८॥
हे नरनाथ ! मैंने जिन समस्त ओषधियोंको पचा लिया है उन्हें यदि आपकी इच्छा हो तो दुग्धरूपसे मैं दे सकती हूँ ॥७९॥
अतः हे धर्मात्माओंमें श्रेष्ठ महाराज ! आप प्रजाके हितके लिये कोई ऐसा वत्स ( बछड़ा ) बनाइये जिससे वात्सल्यवश मैं उन्हें दुग्धरूपसे निकाल सकूँ ॥८०॥
और मुझको आप सर्वत्र समतल कर दीजिये जिससें मैं उत्तमोत्तम ओषधियोंके बीजरूप दुग्धको सर्वत्र उप्तन्न कर सकूँ ॥८१॥
श्रीपराशरजी बोले - तब महाराज पृथुने अपने धनुषकी कोटिसे सैकड़ों - हजारों पर्वतोंको उखाड़ा और उन्हें एक स्थानपर इकट्ठा कर दिया ॥८२॥
इससे पुर्व पृथिवीके समतल न होनेसे पुर और ग्राम आदिका कोई नियमित विभाग नहीं था ॥८३॥
हे मैत्रेय ! उस समय अन्न, गोरक्ष, कृषि और व्यापारका भी कोई क्रम न था । यह सब तो वेनपुत्र पृथुके समयसे ही आरम्भ हुआ है ॥८४॥
हे द्विजोत्तम ! जहाँ-जहाँ भूमि समतल थी वहीं वहींपर प्रजाने निवास करना पसन्द किया ॥८५॥
उस समयतक प्रजाका आहार केवल फल मुलादि ही था;वह भी ओषधियोंके नष्ट हो जानेसे बड़ा दुर्लभ हो गया था ॥८६॥
तब पृथिवेपति पृथुने स्वायम्भुवमनुको बछड़ा बनाकर अपने हाथमें ही पृथवीसे प्रजाके हितसे लियें समस्त धान्योंको दुहा । हे तात ! उसी अन्नके आधारसे अब भी सदा प्रजा जीवित रहती है ॥८७-८८॥
महाराज पृथु प्राणदान करनेके कारण भूमिके पिता हुए* इसलिये उस सर्वभूतधारिणोको 'पृथिवी' नाम मिला ॥८९॥
हे मुने ! फिर देवता, मुनि, दैत्य, राक्षस, पर्वत, गन्धर, सर्प , यक्ष और पितृगण आदिने अपने अपने पात्रोंमें अपना अभिमत दुध दुहा तथा दुहनेवालोंके अनुसार उनके सजातीय ही दोग्धा और वत्स आदि हुए ॥९०-९१॥
इसीलिये विष्णुभगवान्‌के चरणोंसे प्रकट हुई यह पृथिवी ही सबको जन्म देनेवाली, बनानेवाली तथा धारण और पोषण करनेवाली है ॥९२॥
इस प्रकार पूर्वकालमें वेनके पुत्र महाराज पृथु ऐसे प्रभावशाली और वीर्यवान् हुए । प्रजाका रत्र्जन करनेके कारण वे 'राजा' कहलाये ॥९३॥
जो मनुष्य महाराज पृथुके इस चरित्रका कीर्तन करता है उसका कोई भी दुष्कर्म फलदायी नहीं होता ॥९४॥
पृथुका यह अत्युत्तम जन्म वृत्तान्त और उनदा प्रभाव अपने सुननेवाले पुरुषोंके दुःखप्रोंको सर्वदा शान्त कर देता है ॥९५॥
इति श्रीविष्णुपुराणे प्रथमेंऽशे त्रयोदशोऽध्यायः ॥१३॥
* जन्म देनेवाला, यज्ञोपवीत करानेवाला, अन्नदाता, भयसे रक्षा करनेवाला तथा जो विद्यादान करे - ये पाँचों पिता मागे गये हैं; जैसे कहा है - जनकाश्चोपनेता च यश्च विद्याः प्रयच्छति । अन्नदाता भयत्राता पत्र्चैते पितरः स्मृताः ॥
श्रीपराशरजी बोले -
हे मैत्रेय ! पृथुके अन्तद्धीन और वादी नामक दो धर्मज्ञ पुत्र हुए, उनमेंसे अन्तर्द्धानसे उसकी पत्नी शिखण्डिनीने हविर्धानको उप्तन्न किया ॥१॥
हविर्धानसे अग्निकुलीना धिषणाने प्राचीनबर्हि, शुक्र, गय, कृष्ण, वृज और अजिन - ये छः पुत्र उप्तन्न किये ॥२॥
हे महाभाग ! हविर्धानसे उप्तन्न हुए भगवान् प्राचीनबर्हि एक महान् प्रजापति थे, जिन्होंने यज्ञके द्वारा अपनी प्रजाकी बहुत वृद्धि की ॥३॥
हे मुने ! उनके समयसें ( यज्ञानुष्ठानकी अधिकताके कारण ) प्राचीनाग्र कुश समस्त पृथिवीमें फैले हुए थे, इसलिये वे महाबली 'प्राचीनबर्हि' नामसे विख्यात हुए ॥४॥
हे महामते ! उन महीपतिने महान् तपस्याके अनन्तर समुद्रकी पुत्री सवर्णासे विवाह किया ॥५॥
उस समुद्रकन्या सवर्णाके प्राचीनबर्हिसे दस पुत्र हुए । वे प्रचेतानामक सभी पुत्र धनुर्विद्याके पारगामी थे ॥६॥
उन्होंने समुद्रके जलमें रहकर दस हजार वर्षतक समान धर्मका आचरण करते हुए घोर तपस्या की ॥७॥
श्रीमैत्रेयजी बोले - हे महामुने ! उन महात्मा प्रचेता ओंने जिस लिये समुद्रके जलमें तपस्या की थी सो आप कहिये ॥८॥
श्रीपराशरजी कहने लगे -
हे मैत्रेय ! एक बार प्रजापतिकी प्रेरणासे प्रचेताओंके महात्मा पिता प्राचीनबर्हिने उसने अति सम्मानपूर्वक सन्तानोप्तत्तिके लिये इस प्रकार कहा ॥९॥
प्राचीनबर्हि बोले - हे पुत्रो ! देवाधिदेव ब्रह्माजीने मुझे आज्ञा दी है कि 'तुम प्रजाकी वृद्धि करो' और मैंने भी उनसे 'बहुत अच्छा' कह दिया है ॥१०॥
अतः हे पुत्रगण ! तुम भी मेरी प्रसन्नताके लिये सावधानतापूर्वक प्रजाकी वृद्धि करो, क्योंकि प्रजापतिकी आज्ञा तुमको भी सर्वथा माननीय है ॥११॥
श्रीपराशरजी बोले - हे मुने ! उन राजकुमारोंने पिताके ये वचन सुनकर उनसे ' जो आज्ञा ' ऐसा कहकर फिर पूछा ॥१२॥
प्रचेता बोले -
हे तात ! जिस कर्मसे हम प्रजावृद्धिमें समर्थ हो सकें उसकी आप हमसे भली प्रकार व्याख्या कीजिये ॥१३॥
पिताने कहा -
वरदायक भगवान् विष्णुकी आराधना करनेसे ही मनुष्यको निःसन्देह इष्ट वस्तुकी प्राप्ति होती है और किसी उपायसे नहीं । इसके सिवा और मैं तुमसे क्या कहूँ ॥१४॥
इसलियें यदि तुम सफलता चाहते हो तो प्रजा वृद्धिके लिये सर्वभूतोंके स्वामी श्रीहरि गोविन्दको उपासना करो ॥१५॥
धर्म, अर्थ, काम या मोक्षकी इच्छावालोंको सदा अनादि पुरुषोत्तम भगवान् विष्णुकी ही आराधना करनी चाहिये ॥१६॥
कल्पके आरम्भमें जिनकी उपासना करके प्रजापतिने संसारकी रचना की है, तुम उन अच्युतकी ही आराधना करो । इससे तुम्हारी सन्तानकी वृद्धी होगी ॥१७॥
श्रीपराशरजी बोले -
पिताकी ऐसी आज्ञा होनेपर प्रचेता नामक दसों पुत्रोंने समुद्रके जलमें डूबे रहकर सावधानतापूर्वक तप करना आरम्भ कर दिया ॥१८॥
हे मुनिश्रेष्ठ ! सर्वलोकश्रय जगत्पति श्रीनारायणमें चित्त लगाये हुए उन्होंने दस हजार वर्षतक वहाँ ( जलमें ही ) स्थित रहकर देवाधिदेव श्रीहरिकी एकाग्र-चित्तसे स्तुति की, जो अपनी स्तुति की जानेपर स्तुति करनेवालोंकी सभी कामनाएँ सफल कर देते हैं ॥१९-२०॥
श्रीमैत्रेयजी बोले -
हे मुनिश्रेष्ठ ! समुद्रके जलमें स्थित रहकर प्रचेताओंने भगवान् विष्णुकी जो अति पवित्र स्तुति की थी वह कृपया मुझसे कहिये ॥२१॥
श्रीपराशरजी बोले-हे मैत्रेय ! पूर्वकालमें समुद्रमें स्थित रहकर प्रचेताओंने तन्मय-भावसे श्रीगोविन्दकी जो स्तुति की, वह सुनो ॥२२॥
प्रचेताओंने कहा -
जिनमें सम्पूर्ण वाक्योंकी नित्य-प्रतिष्ठा हैं ( अर्थात् जो सम्पूर्ण वाक्योंके एकमात्र प्रतिपात्र हैं ) तथा जो जगत्‌की उप्तत्ति और प्रलयके कारण हैं उन निखिल- जगन्नायक परमप्रभुको हम नमस्कार करते हैं ॥२३॥
जो आद्य ज्योतिस्स्वरूप, अनुपम, अणु, अनन्त, अपार और समस्त चराचरके कारण हैं, तथा जिन रूपहीन परमेश्वरके दिन, रात्रि और सन्ध्या ही प्रथम रूप हैं, उन कालस्वरूप भगवान्‌को नमस्कार है ॥२४-२५॥
समस्त प्राणियोंके जीवनरूप जिनके अमृतमय स्वरूपको देव और पितृगण नित्यप्रति भोगते हैं - उन सोमस्वरूप प्रभुको नमस्कार है ॥२६॥
जो तीक्ष्णस्वरूप अपने तेजसे आकाशमंडलको प्रकाशित करते हुए अन्धकारको भक्षण कर जाते हैं तथा जो घाम, शीत और जलके उद्गमस्थान हैं उन सूर्यस्वरूप ( नारायण ) को नमस्कार है ॥२७॥
जो कठिनतायुक्त होकर इस सम्पूर्ण संसारको धारण करते हैं और शब्द आदि पाँचों विषयोंके आधार तथा व्यापक हैं, उन भूमिरूप भगवान्‌को नमस्कार है ॥२८॥
जो संसारका योनिरूप है और समस्त देहधारियोंका बीज है, भगवान् हरिके उस जलस्वरूपको हम नमस्कार करते है ॥२९॥
जो समस्त देवताओंका हव्यभुक् और पितृगणका कव्यभुक् मुख है, उस अग्निस्वरूप विष्णुभगवान्‌को नमस्कार है ॥३०॥
जो प्राण, अपान आदि पाँच प्रकारसे देहमें स्थित होकर दिन-रात चेष्टा करता रहता है तथा जिसकी योनि आकाश है, उस वायुरूप भगवान्‌को नमस्कार है॥३१॥
जो समस्त भूतोंको अवकाश देता है उस अनन्तमूर्ति और परम शुद्ध आकाशस्वरूप प्रभुको नमस्कार है ॥३२॥
समस्त इन्द्रिय-सृष्टिके जो उत्तम स्थान हैं उन शब्द-स्पर्शादिरूप विधाता श्रीकृष्णचन्द्रको नमस्कार है ॥३३॥
जो क्षर और अक्षर इन्द्रियरूपसे नित्य विषयोंको ग्रहण करते हैं उन ज्ञानमूल हरिको नमस्कार है ॥३४॥
इन्द्रियोंके द्वारा ग्रहण किये विषयोंको जो आत्माके सम्मुख उपस्थित करता है उस अन्तः करण-रूप विश्वात्माको नमस्कार है ॥३५॥
जिस अनन्तमें सकल विश्व स्थित है, जिससे वह उप्तन्न हुआ है और जो उसके लयका भी स्थान है, उस प्रकृतिस्वरूप परमात्माको नमस्कार है ॥३६॥
जो शुद्ध और निर्गुण होकर भी भ्रमवश गुणयुक्त-से दिखायी देते हैं उना आत्मस्वरूप पुरुषोत्तमदेवको हम नमस्कार करते हैं ॥३७॥
जो अविकारी, अजन्मा, शुद्ध, निर्गुण, निर्मल और श्रीविष्णुका परमपद है उस ब्रह्मस्वरूपको हम नमस्कार करते है ॥३८॥
जो न लम्बा है, न पतला है, न मोटा है, न छोटा है और न काला है, न लाल है; जो स्त्रेह ( द्रव ) , कान्ति तथा शरीरसे रहित एवं अनासक्त और अशरीरी ( जीवसे भिन्न ) है ॥३९॥
जो अवकाश स्पर्श, गन्ध और रससे रहित तथा आँख-कान-विहीन, अचल एवं जिह्वा, हाथ और मनसे रहित हैं ॥४०॥
जो नाम, गोत्र, सुख और तेजसे शून्य तथा कारणहीन है; जिसमें भय, भ्रान्ति, निद्रा, जरा और मरण - इन ( अवस्थाओं ) का अभाव है ॥४१॥
जो अरज ( रजोगुणरहित ), अशब्द, अमृत, अप्लुत ( गतिशून्य ) और असंवृत ( अनाच्छादित ) है एवं जिसमें पूर्वापर व्यवहारकी गति नहीं है वही भगवान् विष्णुका परमपद है ॥४२॥
जिसका ईशन ( शासन ) ही परमगुण है, जो सर्वरूप और अनाधार है तथा जिह्ला और दृष्टिका अविषय है, भगवान् विष्णुके उस परमपदको हम नमस्कार करते हैं ॥४३॥
श्रीपराशरजी बोले -
इस प्रकार श्रीविष्णुभगवान्‌में समाधिस्थ होकर प्रचेताओंने महासागरमें रहकर उनकी स्तुति करते हुए दस हजार वर्षतक तपस्या की ॥४४॥
तब भगवान् श्रीहरिने प्रसन्न होकर उन्हें खिले हुए नील कमलकी सी आभायुक्त दिव्य छविसे जलके भीतर ही दर्शन दिया ॥४५॥
प्रचेताओंने पक्षिराजे गरुड़पर चढ़े हुए श्रीहरिको देखकर उन्हें भक्तिभावके भारसे झुके हुए मस्तकोंद्वारा प्रणाम किया ॥४६॥
तब भगवान्‌ने उससे कहा -
" मैं तुमसे प्रसन्न होकर तुम्हें वर देनके लिये आया हूँ, तुम अपना अभीष्ट वर माँगो" ॥४७॥
तब प्रचेताओंने वरदायक श्रीहरिको प्रणाम कर, जिस प्रकार उनके पिताने उन्हें प्रजा-वृद्धिके लिये आज्ञा दी थी वह सब उनसे निवेदन की ॥४८॥ तदनन्तर, भगवान् उन्हें अभीष्ट वर देकर अन्तर्धान हो गये और वे जलसे बाहर निकल आये ॥४९॥
इति श्रीविष्णुपुराणे प्रथमेंऽशें चतुर्दशोऽध्यायः ॥१४॥
श्रीपराशरजी बोले -
प्रचेताओंके तपस्यामें लगे रहनेसे ( कृषि आदिद्वारा ) किसी प्रकारकी रक्षा न होनेके कारण पृथिवीको वृक्षोंने ढँक लिया और प्रजा बहुत कुछ नष्ट हो गयी ॥१॥
आकाश वृक्षोंसे भर गया था । इसलिये दस हजार वर्षतक न तो वायु ही चला और न प्रजा ही किसी प्रकारकी चेष्टा कर सकी ॥२॥
जलसे निकलनेपर उन वृक्षोंको देखकर प्रचेतागण अति क्रोधित हुए और उन्होंने रोषपूर्वक अपने मुखसे वायु और अग्निको छोड़ा ॥३॥
वायुने वृक्षोंको उखाड़ - उखाड़कर सुखा दिया और प्रचण्ड अग्निने उन्हें जला डाला । इस प्रकार उस समय वहाँ वृक्षोंका नाश होने लगा ॥४॥
तब वह भयंकर वृक्ष प्रलय देखकर थोड़े से वृक्षोंके रह जानेपर उनके राजा सोमने प्रजापति प्रचेताओंके पास जाकर कहा - ॥५॥
" हे नृपतिगण ! आप क्रोध शान्त कीजिये और मैं जो कुछ कहता हूँ, सुनिये । मैं वृक्षोंके साथ आपलोगोंकी सन्धि करा दूँगा ॥६॥
वृक्षोंसे उप्तन्न हुई इस सुन्दर वर्णवाली रत्नस्वरूपा कन्याका मैंने पहलेसे ही भविष्यको जानकर अपनी ( अमृतमयी ) किरणोंसे पालन-पोषण किया है ॥७॥
वृक्षोंकी यह कन्यां मारिषा नामसे प्रसिद्ध है, यह महाभागा इसलिये ही उप्तन्न की गयी है कि निश्चय ही तुम्हारे वंशको बढ़ानेवाले तुम्हारी भार्या हो ॥८॥
मेरे और तुम्हारे आधे-आधे तेजसे इसके परम विद्वान् दक्ष नामक प्रजापति उप्तन्न होगा ॥९॥
वह तुम्हारे तेजके सहित मेरे अंशसे युक्त होकर अपने तेजके कारण अग्निके समान होगा और प्रजाकी खुब बुद्धि करेगा ॥१०॥
पूर्वकालमें वेदवेत्ताओंमें श्रेष्ठ एक कण्डु नामक मुनीश्वर थे । उन्होंने गोमती नदीके परम रमणीक तटपर घोर तप किया ॥११॥
तब इंन्द्रने उन्हें तपोभ्रष्ट करनेके लिये प्रम्लोचा नामकी उत्तम अप्सराको नियुक्त किया । उस मत्र्चहासिनीने उन ऋषिश्रेष्ठको विचलित कर दिया ॥१२॥
उसके द्वारा क्षुब्ध होकर वे सौसे भी अधिक वर्षतक विषयासक्त-चित्तिसे मन्दराचलकी कन्दारामें रहे ॥१३॥
तब, हे महाभाग ! एक दिन उस अप्सराने कण्डु ऋषिसे कहा - "हे ब्रह्मन ! अब मैं स्वर्गलोकको जाना चाहती हूँ, आप प्रसन्नतापूर्वक मुझे आज्ञा दिजिये" ॥१४॥
उसके ऐसा कहनेपर उसमें आसक्त-चित्त हुए मुनिने कहा - "भद्रे ! अभी कुछ दिन और रहो" ॥१५॥
उनक ऐसा कहनेपर उस सुन्दरीने महात्मा कण्डुके साथ अगले सौ वर्षतक और रहकर नाना प्रकारके भोग भोग ॥१६॥
तब भी, उसके यह पूछनेपर कि 'भगवान् ! मुझे स्वर्गलोकको जानेकी आज्ञा दीजिये' ऋषिने यही कहा कि 'अभि और ठहरो' ॥१७॥
तदनन्तर सौ वर्षसे कुछ अधिक बीत जानेपर उस सुमुखीने प्रणययुक्त मुक्सकानसे सुशोभित वचनोंमें फिर कहा - "ब्रह्मन ! अब मैं स्वर्गको जाती हूँ " ॥१८॥
यह सुनकर मुनिने उस विशालाक्षाको आलिंगनकर कहा -'अयि सुभ्रु ! अब तो तू बहुत दिनोंके लिये चली जायगी इसलिये क्षणभर तो और ठहर " ॥१९॥
तब वह सुश्रोणी ( सुन्दर कमरवाली ) उस ऋषिके साथ क्रीड़ा करती हुई दो सौ वर्षसे कुछ कम और रही ॥२०॥
हे महाभाग ! इस प्रकार जब-जब वह सुन्दरी देवलोकको जानेके लिये कहती तभी-तभी कण्डु ऋषि उससे यही कहते कि 'अभी ठहर जा' ॥२१॥
मुनिके इस प्रकार कहनेपर, प्रणयभंगकी पीड़ाको जाननेवाली उसे दक्षिणाने*अपने दक्षिण्यवश तथा मुनिके शापसे भयभीत होकर उन्हें न छोड़ा ॥२२॥
तथा उन महर्षि महोदयका भी, कामासक्तचित्तसे उसके साथ अहर्निश रमण करते-करते, उसमें नित्य नूतन प्रेम बढ़ता गया ॥२३॥
एक दिन वे मुनिवर बड़ी शीघ्रतासे अपनी कुटीसे निकले ! उनके निकलते समय वह सुन्दरी बोली - "आप कहाँ जाते हैं" ॥२४॥
उसके इस प्रकार पूछनेपर मुनिने कहा - "हे शुभे ! दिन अस्त हो चुका है, इसलिये मैं सन्ध्योपासना करूँगा; नहीं तो नित्य क्रिया नष्ट हो जायगी" ॥२५॥
तब उस सुन्दर दाँतोवालीने उन मुनीश्वरसे हँसकर कहा - "हे सर्वधर्मज्ञ ! क्या आज ही आपका दिन अस्त हुआ है ? ॥२६॥
हे विप्र ! अनेको वर्षोकि पश्चात आज आपका दिन अस्त हुआ है; इससे कहिये, किसको आश्चर्य न होगा ? " ॥२७॥
मुनि बोले - भद्रे ! नदीके इस सुन्दर तटपर तुम आज सबेरे ही तो आयी हो । ( मुझे भली प्रकार स्मरण है ) मैंने आज ही तुमको अपने आश्रममें प्रवेश करते देखा था ॥२८॥
अब दिनके समाप्त होनेपर यह सन्ध्याकाल हुआ है । फिर, सच तो कहो, ऐसा उपहास क्यों करती हो ? ॥२९॥
प्रम्लेचा बोली - ब्रह्मन ! आपका यह कथन कि 'तुम सबेरे ही आयी हो' ठीक ही है, इसमें झूठ नहीं; परन्तु उस समयको तो आज सैकड़ो वर्ष बीत चुके ॥३०॥
सोमने कहा - तब उन विप्रवरने उस विशालाक्षीसे कुछ घबड़ाकर पूछा - "अरी भीरु ! ठीक - ठीक बता, तेरे साथ रमण करते मुझे कितना समय बीत गया ?" ॥३१॥
प्रम्लोचाने कहा -
अबतक नौ सौ सात वर्ष, छः महीने तथा तीन दिन और भी बीत चुके हैं ॥३२॥
ऋषि बोले - अयि भीरु ! यह तू ठिक कहती है, या हे शुभे ! मेरी हँसी करती है ? मुझे तो ऐसा ही प्रतीत होता है कि मैं इस स्थानपर तेरे साथ केवल एक ही दिन रहा हूँ ॥३३॥
प्रम्लोचा बोली - हे ब्रह्मन ! आपके निकट मैं झूठ कैसे बोल सकती हुँ ? और फिर विशेषतया उस समय जब कि आज आप अपने धर्म - मार्गका अनुसरण करनेमें तप्तर होकर मुझसे पूछ रहे हैं ॥३४॥
सोमने कहा -
हे राजकुमारो ! उसके ये सत्य वचन सुनकर मुनिने ' मुझे धिक्कार है ! मुझे धिक्कार हैं ! ' ऐसा कहकर स्वयं ही अपनेको बहुत कुछ भलाबुरा कहा ॥३५॥
मुनि बोले -
ओह ! मेरा तप नष्ट हो गया, जो ब्रह्मवेत्ताओंका धन था वह लुट गया और विवेकबुद्धि मारी गयी ! अहो ! स्त्रीको तो किसीने मोह उपजानेके लिये ही रचा है ! ॥३६॥
'मुझे अपने मनको जीतकर छहों ऊर्मियो*से अतीत परब्रह्मको जानना चाहिये' - जिसने मेरी इस प्रकारकी बुद्धिको नष्ट कर दिया, उस कामरूपी महाग्रहको धिक्कार है ॥३७॥
नरकग्रामके मार्गरूप इस स्त्रीके संगसे वेदवेद्य भगवान्‌की प्राप्तिके कारणरूप मेरे समस्त व्रत नष्ट हो गये ॥३८॥
इस प्रकार उन धर्मज्ञ मुनिवरने अपने आप ही अपनी निन्दा करते हुए वहाँ बैठी हुई उस अप्सरासे कहा - ॥३९॥
"अरी पापिनि ! अब तेरी जहाँ इच्छा हो चली जा, तुने अपनी भावभंगीसे मुझे मोहित करके इन्द्रका जो कार्य था वह पूरा कर लिया ॥४०॥
मैं अपने क्रोधने प्रज्वलित हुए अग्निद्वारा तुझे भस्म नहीं करता हूँ, क्योकीं सज्जनोंकी मित्रता सात पग साथ रहनेसे हो जाती है और मैं तो ( इतने दिन ) तेरे साथ निवास कर चुका हूँ ॥४१॥
अथवा इसमें तेरा दोष भी क्या है, जो मैं तुझपर क्रोध करूँ ? दोष तो सारा मेरा ही है, क्योंकी मैं बड़ा ही अजितेन्दिय हूँ ॥४२॥
तू महामोहकी पिटारी और अत्यन्त निन्दनीया है । हाय ! तुने इन्द्रके स्वार्थके लिये मेरी तपस्या नष्ट कर दी !! तुझे धिक्कार है !!! ॥४३॥
सोमने कहा - वे ब्रह्मर्षि उस सुन्दरीसे जबतक ऐसा कहते रहे तबतक वह ( भयके कारण ) पसीनेमें सराबोर होकर अत्यन्त काँपती रही ॥४४॥
इस प्रकर जिसका समस्त शरीर पसीनेमें डूबा हुआ था और जो भयसे थर-थर काँप रही थी उस प्रम्लोचासे मुनिश्रेष्ठ कण्डुने क्रोधपूर्वक कहा - 'अरि ! तू चली जा ! चली जा !! ॥४५॥
तब बारम्बार फटकारे जानेपर वह उस आश्रमसे निकली और आकाश - मार्गसे जाते हुए उसने अपना पसीना वृक्षके पत्तोंसे पोंछा ॥४६॥
वह बाला वृक्षोंके नवीन लाल-लाल पत्तोंसे अपने पसीनेसे तर शरीरको पोंछती हुई एक वृक्षसे दूसरे वृक्षपर चलती गयी ॥४७॥
उस समय ऋषिने उसके शरीरमें जो गर्भ स्थापित किया था वह भी रोमात्र्चसे निकले हुए पसीनेके रूपमें उसके शरीरसे बाहर निकल आया ॥४८॥
उस गर्भको वृक्षोंने ग्रहण कर लिया, उसे वायुने एकत्रित कर दिया और मैं अपनी किरणोंसे उसे पोषित करने लगा ! इससे वह धीरे धीरे बढ़ गया ॥४९॥
वृक्षाग्रसे उप्तन्न हुई वह मारिष नामकी सुमुखी कन्या तुम्हें वृक्षगण समर्पण करेंगे । अतः अब यह क्रोध शान्त करो ॥५०॥
इस प्रकार वृक्षोंसे उप्तन्न हुई वह कन्या प्रम्लोचाकी पुत्री है तथा कण्डु मुनिकी, मेरी और वायुकी भी सन्तान है ॥५१॥
श्रीपराशरजी बोले - है मैत्रेय ! ( तब यह सोचकर कि प्रचेतागण योगभ्रष्टकी कन्या होनेसे मारिषाको अग्राहा न समझे सोमदेवने कहा - ) साधुश्रेष्ठ भगवान् कण्डु भी तपके क्षीण हो जानेसे पुरुषोत्तमक्षेत्र नामक भगवान विष्णुकी निवास-भूमिको गये और हे राजपुत्रो ! वहाँ वे महायोगी एकनिष्ठा होकर एकाग्र चित्तसे ब्रह्मपारमन्त्रका जप करते हुए ऊर्ध्वबाहु रहकर श्रीविष्णुभगवान्‌की आराधना करने लगे ॥५२-५३॥
प्रचेतागण बोले -
हम कण्डु मुनिक ब्रह्मपार नामक परमस्तोत्र सुनना चाहते हैं, जिसका जप करते हुए उन्होंने श्रीकेशवकी आराधना की थी ॥५४॥
सोमने कहा -
( हे राजकुमारो ! वह मन्त्र इस प्रकर है - ) 'श्रीविष्णुभगवान् संसार - मार्गकी अन्तिम अवधि है, उनका पार पाना कठिन है, वे पर ( आकाशादि ) से भी पर अर्थात अनन्त हैं, अतः सत्यस्वरूप हैं । तपोनिष्ठा महात्माओंको ही वे प्राप्त ह सकते हैं, क्योंकी वे पर ( अनात्म - प्रपत्र्च ) से परे है तथा पर ( इन्द्रियों ) के अगोचर परमात्मा है और ( भक्तोंके ) पालक एवं ( उनके अभीष्टको ) पूर्ण करनेवाले हैं ॥५५॥
वे कारण ( पत्र्चभूत ) के कारण ( पत्र्चतन्मात्रा ) के हेतु ( तामस - अहंकार ) और उसके भी हेतु ( महत्तत्त्व ) के हेतु ( प्रधान ) के भी परम हेतु है और इस प्रकर समस्त कर्म और कर्ता आदिके सहित कार्यरूपसे स्थित सकल और कर्त्ता आदिके सहित कार्यरूपसे स्थित सकल प्रपत्र्चका पालन करते हैं ॥५६॥
ब्रह्म ही प्रभु है, ब्रह्म ही सर्वजीवरूप है और ब्रह्म ही सकल प्रजाका पति ( रक्षक ) तथा अविनाशे हैं । वह ब्रह्म अव्यय, नित्य और अजन्मा है तथा वही क्षय आदि समस्त विकारोंसे शून्य विष्णु है ॥५७॥
क्योंकी वह अक्षर, अज और नित्य ब्रह्म ही पुरुषोत्तम भगवान् विष्णु हैं इसलिये ( उनका नित्य अनुरक्त भक्त होनेके कारण ) मेरे राग आदि दोष शान्त हो' ॥५८॥
इस ब्रह्मपार नामक परम स्तोत्रका जप करते हुए श्रीकेशवकी आराधना करनेसे उस मुनीश्वरने नित्यप्रति परमसिद्धि प्राप्त की ॥५९॥
( जो पुरुष इस स्तवको नित्यप्रति पढ़ता या सुनता है वह काम आदि सकल दोषोंसे मुक्त होकर अपना मनोवात्र्छित फल प्राप्त करता है । ) अब मैं तुम्हें यह बताता हूँ कि यह मारिषा पुर्वजन्ममें कौन थी । यह बता देनेसे तुम्हारे कार्यका गौरव पूर्वजन्ममें कौन थे । यह बता देनेसें तुम्हारे कार्यका गौरव सफल होगा । ( अर्थात तुम प्रजा - वृद्धिरूप फल प्राप्त कर सकोगे ) ॥६०॥
यह साध्वी अपने पूर्व जन्ममें एक महारानी थी । पुत्रहीन-अवस्थामें ही पतिके मर जानेपर इस महाभागोने अपने भक्तिभावसे विष्णुभगवान्‌को सन्तुष्ट किया ॥६१॥
इसके आराधनासे प्रसन्न हो विष्णुभगवानुने प्रकट होकर कहा - ' हे शुभे ! वर माँग ! " तब इसने अपनी मनोभिलाषा इस प्रकार कह सुनायी ॥६२॥
"भगवन ! बाल विधवा होनेके कारण मेरा जन्म व्यर्थ ही हुआ । हे जगत्पते ! मैं ऐसी अभागिनी हूँ कि फलहीन ( पुत्रहीन ) ही उप्तन्न हुई ॥६३॥
अतः आपकी कृपासे जन्म-जन्ममें मेरे बड़े प्रशंसनीय पति हों और प्रजापति ( ब्रह्माजी ) के समान पुत्र हो ॥६४॥
और हे अधोक्षज ! आपके प्रसादसे मैं भी कुल, शील, अवस्था, सत्य, दाक्षिण्य ( कार्य कुशलता ), शीघ्रकारिता, अविसंवादिता ( उलटा न कहना ), सत्त्व, वृद्धसेवा और कृतज्ञता आदि गुणोंसे तथा सुन्दर रूपसम्पत्तिसे सम्पन्न और सबको प्रिय लगनेवाली अयोनिजा ( माताके गर्भसे जन्म लिये बिना ) ही उप्तन्न होऊँ' ॥६५-६६॥
सोम बोले - उसके ऐसा कहनेपर वरदायक परमेश्वर देवाधिदेव श्रीहृषीकेशने प्रणामके लिये झुकी हूई उस बालाको उठाकर कहा ॥६७॥
भगवान् बोले - तेरे एक ही जन्ममें बड़े पराक्रमी और विख्यात कर्मवीर दस पति होंगे और हे शोभने ! उसी समय तुझे प्रजापतिके समान एक महावीर्यवान् एवं अत्यन्त बल - विक्रमयुक्त पुत्र भी प्राप्त होगा ॥६८-६९॥
वह इस संसारमें कितने ही वंशोकों चलानेवाला होगा और उसकी सन्तान सम्पूर्ण त्रिलोकीमें फैल जायगी ॥७०॥
तथा तू भी मेरी कृपासे उदाररूपगुणसम्पन्ना, सुशीला और मनुष्योंके चित्तको प्रसन्न करनेवाली अयोनिजा ही उप्तन्न होगी ॥७१॥
हे राजपुत्रो ! उस विशालाक्षीसे ऐसा कह भगवान अन्तर्धान हो गये और वही यह मारिषाके रूपसे उप्तन्न हूई तुम्हारी पत्नी है ॥७२॥
श्रीपराशरजी बोले -
तब सोमदेवके कहनेसे प्रचेताओंने अपना क्रोध शान्त किया और उस मारिषाको वृक्षोंसे पत्नीरूपसे ग्रहण किया ॥७३॥
उन दसों प्रचेताओंसे मारिषाके महाभाग दक्ष प्रजापतिका जन्म हुआ, जो पहले ब्रह्माजीसे उप्तन्न हुए थे ॥७४॥
हे महामते ! उन महाभाग दक्षने, ब्रह्माजीकी आज्ञा पालते हुए सर्ग - रचनाके लिये उद्यत होकर उनकी अपनी सृष्टि बढ़ाने और सन्तान उप्तन्न करनेके लिये नीचे - ऊँच तथा द्विपदचतुष्पद आदि नाना प्रकारके जीवोंको पुत्ररुपसे उप्तन्न किया ॥७५-७६॥
प्रजापति दक्षने पहले मनसे ही सृष्टि करके फिर स्त्रियोंकी उप्तत्ति की । उनमेंसे दस धर्मको और तेरह कश्यपको दीं तथा काल- परिवर्तनमें नियुक्त ( अश्विनी आदि ) सत्ताईस चन्द्रमाको विवाह दीं ॥७७॥
उन्हीसें देवता, दैत्य, नाग, गौ, पक्षी, गन्धर्व, अप्सरा और दानव आदि उप्तन्न हुए ॥७८॥
हे मैत्रेय ! दक्षय समयसे ही प्रजाका मैथून ( स्त्री-पुरुष-सम्बन्ध ) द्वारा उप्तन्न होना आरम्भ हुआ है । उससे पहले तो अत्यन्त तपस्वी प्राचीन सिद्ध पुरुषोंके तपोबलसे उनके संकल्प, दर्शन अथवा स्पर्शमात्रसे ही प्रजा उप्तन्न होती थी ॥७९॥
श्रीमैत्रेयजी बोले - हे महामुने ! मैंने तो सुना था कि दक्षका जन्म ब्रह्माजीके दायें अँगूठेसे हुआ था, फिर वे प्रचेताओंके पुत्र किस प्रकार हुए ? ॥८०॥
हे ब्रह्मन ! मेरे हृदयमें यह बड़ा सन्देह है कि सोमदेवके दौहित्र ( धेवते ) होकर भी फिर वे उनके श्व्शुर हुए ! ॥८१॥
श्रीपराशरजी बोले -
हे मैत्रेय ! प्राणियोंके उप्तत्ति और नाश ( प्रवाहरूपसे ) निरन्तर हुआ करते हैं । इस विषयमें ऋषियों तथा अन्य दिव्यदृष्टि-पुरुषोंको कोई मोह नहीं होता ॥८२॥
हे मुनिश्रेष्ठ ! ये दक्षादि युग - युगमें होते हैं और फिर लीन हो जाते हैं; इसमें विद्वानको किसी प्रकरका सन्देह नहीं होता ॥८३॥
हे द्विजोत्तम ! इनमें पहले किसी प्रकारकी ज्येष्ठता अथवा कनिष्ठता भी नहीं थी । उस समय तप और प्रभाव ही उनकी ज्येष्ठताका कारण होता था ॥८४॥
श्रीमैत्रेयजी बोले -
हे ब्रह्मन ! आप मुझसे देव, दानव, गन्धर्व, सर्प और राक्षसोंकी उप्तत्ति विस्तारपूर्वक कहिये ॥८५॥
श्रीपराशरजी बोले - हे महामुने ! स्वयम्भूभगवान् ब्रह्माजीकी ऐसी आज्ञा होनेपर कि 'तुम प्रजा उप्तन्न करो' दक्षने पूर्वकालमें जिस प्रकार प्राणियोंकी रचना की थी वह सुनो ॥८६॥
उस समय पहले तो दक्षने ऋषि, गन्धर्व, असुर और सर्प आदि मानसिक प्राणियोंको ही उप्तन्न किया ॥८७॥
इस प्रकार रचना करते हुए जब उनकी वह प्रजा और न बढी़ तो उन प्रजापतिने सृष्टिकी वृद्धिके लिये मनमें विचारकार मैथुनधर्मसे नाना प्रकारकी प्रजा उप्तन्न करनेकी इच्छासे वीरण प्रजापतिकी अति तपस्वीनी और लोकधारिणी पुत्री असिक्रीस विवाह किया ॥८८-८९॥
तदनन्तर वीर्यवान् प्रजापति दक्षने सर्गकी वृद्धिके लिये वीरणसुता असिक्रीसे पाँच सहस्त्र पुत्र उप्तन्न किये ॥९०॥
उन्हें प्रजा वृद्धिके इच्छुक देख प्रियवादी देवर्षि नारदने उनके निकट जाकर इस प्रकार कहा - ॥९१॥
'हे महापराक्रमी हर्यश्वगण ! आप लोगोंकी ऐसी चेष्टा, प्रतीत होती है कि आप प्रजा उप्तन्न करेंगे, सो मेरा यह कथन सुनो ॥९२॥
खेदकी बात है, तुम लोग अभी निरे अनभिज्ञ हो क्योंकि तुम इस पृथिवीका मध्य, ऊर्ध्व ( ऊपरी भाग ) और अधः ( नीचेका भाग ) कुछ भी नहीं जानतें, फिर प्रजाकी रचना किस प्रकार करोगे ? देखो, तुम्हारी गति इस ब्रह्माण्डमें ऊपर नीचे और इधर उधर सब और अप्रतिहत ( बे - रोक - टोक ) है; अतः हे अज्ञानियो ! तुम सब मिलकर इस पृथिवीका अन्त क्यों नहीं देखते ? ॥९३-९४॥
नारदजीके ये वचन सुनकर वे सब भिन्न भिन्न दिशाओंको चले गये और समुद्रमें जाकर जिस प्रकार नदियाँ नहीं लौटतीं उसी प्रकार वे भी आजतक नहीं लौटे ॥९५॥
हर्यश्वौंके इस प्रकार चले जानेपर प्रचेताओंके पुत्र दक्षने वैरुणीसे एक सहस्त्र पुत्र और उप्तन्न किये ॥९६॥
वे शबलश्वगण भी प्रजा बढ़ानेके इच्छुक हुए, किन्तु हे ब्रह्मन ! उनसे नारदजीने ही फिर पूर्वोक्त बातें कह दीं । तब वे सब आपसमें एक दूसरेसे कहने लगे - महामुनि नारदजी ठीक कहते हैं, हमको भी, इसमें सन्देह नहीं, अपने भाइयोंके मार्गका ही अवलम्बन करना चाहिये । हम भी पृथिवीका परिणाम जानकर ही सृष्टि करेंगे । ' इस प्रकार वे भी उसी मार्गसे समस्त दिशाओंको चले गये और समुद्रगत नदियोंके समान आजतक नहीं लौटे ॥९७-९८॥
हे द्विज ! तबसे ही यदि भाईको खोजनेके लिये भाई ही जाय तो वह नष्ट हो जाता है, अतः विज्ञ पुरुषको ऐसा न करना चाहिये ॥१००॥
महाभाग दक्ष प्रजापतिने उन पुत्रोंको भी गये जान नारदजीपर बड़ा क्रोध किया और उन्हें शाप दे दिया ॥१०१॥
हे मैत्रेय ! हमने सुना है कि फिर उस विद्वान् प्रजापतिने सर्गवृद्धिकी इच्छासे वैरुणीमें साठ कन्याएँ उप्तन्न कीं ॥१०२॥
उनमेंसे उन्होंने दस धर्मको, तेरह कश्यपको, सत्ताईस सोम ( चन्द्रमा ) को और चार अरिष्टनेमिको दीं ॥१०३॥
तथा दो बहुपुत्र, दो अंगिरा और दो कृशाश्वको विवाहीं । अब दो उनके नाम सुनो ॥१०४॥
अरुन्धती, वसु, यामी, लम्बा, भानु, मरुत्वती, संकल्पा, मुहूर्ता, साध्या और विश्वा-ये दस धर्मकी पत्नियाँ थीं; अब तुम इनके पुत्रोंका विवरण सुनो ॥१०५॥
विश्वाके पुत्र विश्वदेवा थे, साध्यासे साध्यगण हुए, मरुत्वतीसे मरुत्वान और वसुसे वसुगण हुए तथा भानुसे भानु और मुहूर्तासे मुहूर्ताभिमानी देवगण हुए ॥१०६॥
लम्बासे घोष, यामीसे नागवीथी और अरुन्धतीसे समस्त पृथिवीविषयक प्राणी हुए तथा संकल्पासे सर्वात्मक संकल्पकी उप्तत्ति हुई ॥१०७-१०८॥
नाना प्रकारका वसु ( तेज अथवा धन ) ही जिनका प्राण है ऐसे ज्योति आदि जो आठ वसुगण विख्यात हैं , अब मैं उनके वंशका विस्तार बताता हूँ ॥१०९॥
उनके नाम आप, ध्रुव, सोम, धर्म, अनिल (वायु), अनल ( अग्नि ), प्रत्यूष और प्रभास कहे जाते हैं ॥११०॥
आपके पुत्र वैतण्ड, श्रम, शान्त और ध्वनि हुए तथा ध्रुवके पुत्र लोक संहारक भगवान् काल हुए ॥१११॥
भगवान् वर्चा सोमके पुत्र थे जिनसे पुरुष वर्चस्वी ( तेजस्वी ) हो जाता है और धर्मके उनकी भार्या मनोहरासे द्रविण, हुत एवं हव्यवह तथा शिशिर, प्राण और वरुण नामक पुत्र हुए ॥११२-११३॥
अनिलकी पत्नी शिवा थी; उससे अनिलके मनोजव और अविज्ञातगति - ये दो पुत्र हुए ॥११४॥
अग्निके पुत्र कुमार शरस्तम्ब ( सरकाण्डे ) से उप्तन्न हुए थे, ये कृत्तिकाओंके पुत्र होनेसे कार्तिकेय कहलाये । शाख, विशाख और नैगमेय इनके छोटे भाई थे ॥११५-११६॥
देवल नामक ऋषिको प्रत्यूषका पुत्र कहा जाता है । इन देवलके भी दो क्षमाशील और मनीषी पुत्र हुए ॥११७॥
बृहस्पतिजीकी बहिन वरस्त्री, जो ब्रह्माचारिणी और सिद्ध योगिनी थी तथा अनासक्त-भावसे समस्त भूमण्डलमें विचरती थी, आठवें वसु प्रभावकी भार्या हुई ॥११८॥
उससे सहस्त्रों शिल्पो ( कारीगरियों ) के कर्ता और देवताओंके शिल्पी महाभाग प्रजापति विश्वकर्माका जन्म हुआ ॥११९॥
जो समस्त शिल्पकारोंमें श्रेष्ठ और सब प्रकारके आभूषण बनानेवाले हुए तथा जिन्होने देवताओंके सम्पूर्ण विमानोंकी रचना की और जिन महात्माकी ( आविष्क्रुता ) शिल्पविद्याके आश्रयसे बहुत-से मनुष्य जीवन-निर्वाह करते हैं ॥१२०॥
उन विश्वकर्माके चार पुत्र थे; उनके नाम सुनो । वे अजैकपाद, अहिर्बुध्न्य, त्वष्टा और परमपुरुषार्थी रुद्र थे । उनमेंसे त्वष्टाके पुत्र महातपस्वी विश्वरूप थे ॥१२१॥
हे महामुने ! हर, बहुरूप, त्र्यम्बक, अपराजित, वृषाकपि, शम्भु, कपर्दी, रैवत, मृगव्याध, शर्व और कपाली - ये त्रिलोकीके अधीश्वर ग्यारह रुद्र कहे गये हैं । ऐसे सैकड़ों महातेजस्वी एकादश रुद्र प्रसिद्ध हैं ॥१२२-१२३॥
जो ( दक्षकन्याएँ ) कश्यपजीकी स्त्रियाँ हुईं उनके नाम सुनो- वे आदिति, दिति, दनु, अरिष्टा, सुरसा, खसा, सुरभि, विनता, ताम्रा, क्रोधवशा, इरा, कद्रु और मुनि थीं । हे धर्मज्ञ ! अब तुम उनकी सन्तानका विवरण श्रवण करो ॥१२४-१२५॥
पूर्व ( चाक्षूष ) मन्वन्तरमें तुषित नामक बारह श्रेष्ठ देवगण थे ! वे यशस्वी सुरश्रेष्ठ चाक्षुष मन्वन्तरके पश्चात् वैवस्वत-मन्वन्तरके उपस्थित होनेपर एक दुसरेके पास जाकर मिले और परस्पर कहने लगे ॥१२६-१२७॥
"हे देवगण ! आओ, हमलोग शीघ्र ही अदितिके गर्भमें प्रवेश कर इस वैवस्वत मन्वन्तरमें जन्म लें, इसीमें हमारा हित है" ॥१२८॥
इस प्रकार चाक्षुष मन्वन्तरमें निश्चयकर उन सबसे मरीचिपुत्र कश्यपजीके यहाँ दक्षकन्या अदितिके गर्भसे जन्म लिय ॥१२९॥
वे अति तेजस्वी उससे उप्तन्न होकर विष्णु, इंन्द्र, अर्यमा, धाता, त्वष्टा, पूषा, विवस्वान, सविता, मैत्र, वरूण, अंशु और भग नामक द्वादश आदित्य कहलाये ॥१३०-१३१॥
इस प्रकार पहले चाक्षुष मन्वन्तरमें जो तुषित नामक देवगण थे वे ही वैवस्वत-मन्वन्तरमें जो तुषित नामक देवतण थे वे ही वैवस्वत-मन्वन्तरमें द्वादश आदित्य हुए ॥१३२॥
सोमकी जिन सत्ताईस सुव्रता पत्नियोंके विषयसे पहले कह चुके हैं वे सब नक्षत्रयोगिनी हैं और उन नमोंसे ही विख्यात हैं ॥१३३॥
उन अति तेज्स्विनियोंसे अनेक प्रतिभाशाली पुत्र उप्तन्न हुए । अरिष्टनेमिकी पत्नियोंके सोलह पुत्र हुए ! बुद्धिमान बहुपुत्रकी भार्या ( कपिला, अतिलोहिता, पीता और अशिता * नामक ) चार प्रकारकी विद्युत कही जाती हैं ॥१३४-१३५॥
ब्रह्मार्षियोंसे सत्कृत ऋचाओंके अभिमानी देवश्रेष्ठ प्रत्यंगिरासे उप्तन्न हुए हैं तथा शास्त्रोंके अभिमानीं देवप्रहरण नामक देवगण देवर्षि कृशाश्र्वकी सन्तान कहे जाते हैं ॥१३६॥
हे तात ! ( आठ वसु, ग्यारह रुद्र, बारह आदित्य, प्रजापति और वषट्‌कार ) ये तैंतीस वेदोक्त देवता अपनी इच्छानुसार जन्म लेनेवाले हैं । कहते हैं, इस लोकमें इनके उप्तति और निरोध निरन्तर हुआ करते हैं । ये एक हजार युगके अनन्तर पुनः-पुनः उप्तन्न होते रहते हैं ॥१३७-१३८॥
हे मैत्रेय ! जिस प्रकार लोकमें सूर्यके अस्त और उदय निरन्तर हुआ करते हैं उसी प्रकार ये देवगण भी युग युगमें उप्तन्न होते रहते हैं ॥१३९॥
हमने सुना है दितिके कश्यपजीके वीर्यसे परम दुर्जय हिरण्यकशिपु और हिरण्याक्ष नामक दो पुत्र तथा सिंहिका नामकी एक कन्या हुई जो विप्रचित्तिको विवाही गयी ॥१४०-१४१॥
हिरण्यकशिपुणे अति तेजस्वी और महापराक्रमी अनुह्लाद, ह्लाद, बुद्धिमान्‌ प्रह्लाद और संह्लाद नामक चार पुत्र हुए जो दैत्यंवंशको बढ़ानेवाले थे ॥१४२॥
हे महाभाग ! उनमें प्रह्लादजी सर्वत्र समदर्शीं और जितेन्द्रिय थे, जिन्होंने श्रीविष्णुभगवान्‌की परम भक्तिका वर्णन किया था ॥१४३॥
जिनको दैत्यराजाद्वारा दीप्त किये हुए अग्निने उनके सर्वांगडे व्याप्त होकर भी, हृदयमें वासुदेव भगवान्‌के स्थित रहनेसे नहीं जला पाया ॥१४४॥
जिन अमहाबुद्धिमानके पाशबद्ध, होकर समुद्रके जलमें पड़े-पड़े इधर-उधर हिलने-डुलनेसे सारी पृथिवी हिलने लगी थी ॥१४५॥
जिनका पर्वतके समान कठोर शरीर, सर्वत्र भगवच्चित रहनेके कारण दैत्यराजके चलाये हुए अस्त्र-शस्त्रोंसे भी छिन्न-भिन्न नहीं हुआ ॥१४६॥
दैत्यराजाद्वारा प्रेरित विषाग्निसे प्रज्वलित मुखवाले सर्प भी जिन महातेजस्वीका अन्त नहीं कर सके ॥१४७॥
जिन्होंने भगवत्स्मरणरूपी कवच धारण किये रहनेके कारण पुरुषोत्तम भगवान्‌का स्मरण करते हुए पत्थरोंकी मार पड़नेपर भी अपने प्राणोंको नहीं छोड़ा ॥१४८॥
स्वर्गनिवासी दैत्यपतिद्वारा ऊपरसे गिराये जानेपर जिन महामतिको पृथिवीने पास जाकर बीचहीमें अपनी गोदमें धारण कर लिया ॥१४९॥
चित्तमें श्रीमधुसूदनभगवान्‌के स्थित रहनेसे दैत्यराजका नियुक्त किया हुआ सबका शोषण करनेवाला वायु जिनके शरीरमें लगनेसे शान्त हो गया ॥१५०॥
दैत्येन्दद्वारा आक्रमणके लिये नियुक्त उन्मत्त दिग्गजोंके दाँत जिनके वक्षःस्थलमें लगनेसे टुट गये और उनका सारा मद चर्ण हो गया ॥१५१॥
पूर्वकालमें दैत्यराजके पुरोहितोंकी उप्तन्न की हुई कृत्या भी जिन गोविन्दासक्तचित्त भक्तराजके अन्तका कारण नहीं हो सकी ॥१५२॥
जिनके ऊपर प्रयुक्त की हुई अति मायावी शम्बरासुरकी हजारों मायाएँ श्रीकृष्णचन्द्रके चक्रमे व्यर्थ हो गयीं ॥१५३॥
जिन मतिमान् और निर्मत्सरने दैत्यराजके रसोइयोंके लाये हुए हलाहल विषको निर्विकार - भावसे पचा लिया ॥१५४॥
जो इस संसरमें समस्त प्रणियोंके प्रति समानचित्त और अपने समान ही दुसरोंके लिये भी परमप्रेमयुक्त थे ॥१५५॥
और जो परम धर्मात्मा महापुरुष, सत्य एवं शौर्य आदि गुणोंकी खानि तथा समस्त साधु-पुरुषोंके लिये उपमास्वरूप हुए थे ॥१५६॥
इति श्रीविष्णुपुराणे प्रथमेंऽशे पत्र्चदशोऽध्यायः ॥१५॥
श्रीमैत्रेयजी बोले -
आपने महात्मा मनुपुत्रोंके वंशोंका वर्णन किया और यह भी बताया कि इस जगत्‌के सनातन कारण भगवान् विष्णु ही हैं ॥१॥
किन्तु भगवान् ! अपने जो कहा दैत्यश्रेष्ठ प्रह्लादजीको न तो भगवन् ! अपने जो कहा कि दैत्यश्रेष्ठ प्रह्लादजीको न तो अग्निने ही भ्रस्म किया और न उन्होंने अस्त्र-शस्त्रोसे आघात किये जानेपर ही अपने प्राणोंको छोड़ा ॥२॥
तथा पाशबद्भ होकर समुद्रके जलमें पड़े रहनेपर उनके हिलतेडुलते हुए अंगोंसे आहत होकर पृथिवी डगमगाने लगी ॥३॥
और शरीरपर पत्थरोंकी बौछार पड़नेपर भी वे नहीं मरे । इस प्रकार जिन महाबुद्धिमान्‌का आपने बहुत ही माहात्म्य वर्णन किया है ॥४॥
हे मुने ! जिन अति तेजस्वी महात्माके ऐसे चरित्र हैं, मैं उन परम विष्णुभक्तका अतुलित प्रभाव सुनना चाहता हूँ ॥५॥
हे मुनिवर ! वे तो बड़े ही धर्मपरायण थे; फिर दैत्योंने उन्हें क्यों अस्त्र-शस्त्रोंसे पीड़ीत किया और क्यों समुद्रके जलमें डाला ? ॥६॥
उन्होंने किसलिये उन्हें पर्वतोंसे दबाया ? किस कारण सर्पोंसे डँसाया ? क्यों पर्वतशिखरसे गिराया और क्यों अग्निमें डलवाया ? ॥७॥
उन महादैत्योंने उन्हें दिग्गजोंके दाँतोसे क्यों रुँधवाया और क्यों सर्वशोषक वायुको उनके लिये नियुक्त किया ? ॥८॥
हे मुने ! उनपर दैत्यगुरुओंने किसलिये कृत्याका प्रयोग किया और शम्बरासुरने क्यों अपनी सहस्त्रों मायाओंका वार किया ? ॥९॥
उन महात्माको मारनेके लिये दैत्यराजके रसोइयोंने, जिसे वे महाबुद्धिमान् पचा गये थे ऐसा हलाहल विष क्यों दिया ? ॥१०॥
हे महाभाग ! महात्मा प्रह्लादका यह सम्पूर्ण चरित्र, जो उनके महान् माहात्म्यका सूचक है, मैं सुनना चाहता हूँ ॥११॥
यदि दैत्यगण उन्हें नहीं मार सके तो इसका मुझे कोई आश्चर्य नहीं हैं, क्योंकि जिसका मन अनन्यभावसे भगवान् विष्णुमें लगा हुआ है उसको भला कौन मार सकता है ? ॥१२॥
( आश्चर्य तो इसीका है कि ) जो नित्यधर्मपरायण और भगवदाराधनामें तत्पर रहते थे, उनसे उनके ही कुलमें उप्तन्न हुए दैत्योंनें ऐसा अति दुष्कर द्वेष किया ! ( क्योंकि ऐसे समदर्शी और धर्मभीरू पुरुषोंसे तो किसीका भी द्वेष होना अत्यन्त कठिन है ) ॥१३॥
उन धर्मात्मा, महाभाग, मत्सरहीन विष्णु-भक्तको दैत्योंने किस कारणसे इतना कष्ट दिया, सो आप मुझसे कहिये ॥१४॥
महात्मालोग तो ऐसे गुण-सम्पन्न साधु पुरुषोंके विपक्षी होनेपर भी उनपर किसी प्रकरका प्रहार नहीं करते, फिर स्वपक्षमें होनेपर तो कहना ही क्या हैं ? ॥१५॥
इसलिये है मुनिश्रेष्ठ ! यह सम्पूर्ण वृत्तान्त विस्तारपूर्वक वर्णन कीजिये । मैं उन दैत्यराजका सम्पूर्ण चरित्र सुनना चाहता हुँ ॥१६॥
इति श्रीविष्णुपुराणे प्रथमेंऽशे षोडशोऽध्यायः ॥१६॥
श्रीपराशरजी बोले -
हे मैत्रेय ! उन सर्वदा उदारचरित परमबुद्धिमान् महात्मा प्रह्लादजीका चरित्र तुम ध्यानपूर्वक श्रवण करो ॥१॥
पूर्वकालमें दितिके पुत्र महाबली हिरण्यकशिपुने, ब्रह्माजीके वरसे गर्वयुक्त ( सशक्त ) होकर स्मपूर्ण त्रिलोकीको अपने वशीभुत कर लिया था ॥२॥
वह दैत्य इन्द्रपदका भोग करता था । वह महान् असुर स्वयं ही सूर्य, वायु, अग्नि, वरुण और चन्द्रमा बना हुआ था ॥३॥
वह स्वयं ही कुबेर और यमराज भी था और वह असुर स्वयं ही सम्पूर्ण यज्ञ - भागोंको भोगता था ॥४॥
हे मुनिसत्तम ! उसके भयसे देवगण स्वर्गको छोड़कर मनुष्य शरीर धारणकर भूमण्डलमें विचरते रहते थे ॥५॥
इस प्रकार सम्पूर्ण त्रिलोकीको जीतकर त्रिभुवनके वैभवसे गर्वित हुआ और गन्धर्वोसे अपनी स्तुति सुनता हुआ वह अपनें अभीष्ट भोगोंको भोगता था ॥६॥
उस समय उस मद्यपानासक्त महाकाल हिरण्यकशिपुकी ही समस्त सिद्ध, गन्धर्व और नाग आदि उपासना करते थे ॥७॥
उस दैत्यराजके सामने कोई सिद्धगण तो बाजे बजाकर उसका यशोगान करते और कोई अति प्रसन्न होकर जयजयकार करते ॥८॥
तथा वह असुरराज वहाँ स्फटिक एवं अभ्र-शिलाके बने हुए मनोहर महलमें, जहाँ अप्सराओंका उत्तम नृत्य हुआ करता था, प्रसन्नताके साथ मद्यपान करता रहता था ॥९॥
उसका प्रह्लाद नामक महाभाग्यवान् पुत्र था । वह बालक, गुरुके यहाँ जाकर बालोचित पाठ पढ़ने लगा ॥१०॥
एक दिन वह धर्मात्मा बालक गुरुजीके साथ अपने पिता दैत्यराजके पास गया जो उस समय मद्यपानमें लगा हुआ था ॥११॥
तब, अपने चरणोमें झुके अपने परम तेजस्वी पुत्र प्रह्लादजीको उठाकर पिता हिरण्यकशिपुने कहा ॥१२॥
हिरण्यकशिपु बोला -
वत्स ! अबतक अध्ययनमें निरन्तर तत्पर रहकर तुमने जो कुछ पढ़ा है उसका सारभूत शुभ भाषण हमे सुनाओ ॥१३॥
प्रह्लादजी बोले -
पिताजी ! मेरे मनमें जो सबके सारांशरूपसे स्थिर है वह मैं आपकी आज्ञानुसार सुनाता हूँ, सावधान होकर सुनिये ॥१४॥
जो आदि, मध्य और अन्तसे रहित, अजन्मा, वृद्धि-क्षय-शुन्य और अच्युत हैं, समस्त कारणोंके कारण तथा जगत्‌के स्थिति और अन्तकर्ता उन श्रीहरीको मैं प्रणाम करता हूँ ॥१५॥
श्रीपराशरजी बोले -
यह सुन दैत्यराज हिरण्यकशिपुने क्रोधसे नेत्र लाल कर प्रह्लादके गुरुकी और देखकर काँपते हुए ओठोंसे कहा ॥१६॥
हिरण्यकशिपु बोला -
रे दुर्बुद्धि ब्राह्मणाधम ! यह क्या ? तुने मेरी अवज्ञा कर इस बालककी मेरे विपक्षीकी स्तुतिसे युक्त असार शिक्षा दी है ! ॥१७॥
गुरुजीने कहा -
दैत्यराज ! आपको क्रोधके वशीभूत न होना चाहिये । आपका यह पुत्र मेरी सिखायी हुई बात नहीं कर रहा हैं ॥१८॥
हिरण्यकशिपु बोला -
बेटा प्रह्लाद ! बताओ तो तुमको यह शिक्षा किसने दी है ? तुम्हारे गुरुजी कहते है कि मैनें तो इसे ऐसा उपदेश दिया नहीं है ॥१९॥
प्रह्लादजी बोले -
पिताजी ! हृदयमें स्थित भगवान् विष्णु ही तो सम्पूर्ण जगत्‌के उपदेशक हैं । उन परमात्माको छोड़कर और कौन किसीको कुछ सिखा सकता है ? ॥२०॥
हिरण्यकशिपु बोला -
अरे मूर्ख ! जिस विष्णुक तू मुझ जगदीश्वरके सामने धृष्टतापूर्वक निश्शंक होकर बारम्बार वर्णन करता है, वह कौन है ? ॥२१॥
प्रह्लादजी बोले -
योगियोंके ध्यान करनेयोग्य जिसका परमपद वाणीका विषय नहीं हो सकता तथा जिससे विश्व प्रकट हुआ है और जो स्वयं विश्वरूप है वह परमेश्वर ही विष्णु है ॥२२॥
हिरण्यकशिपु बोला -
अरे मूढ ! मेरे रहते हुए और कौन परमेश्वर कहा जा सकता है ? फिर भी तू मौतके मुखमें जानेकी इच्छासे बारम्बार ऐसा बक रहा है ॥२३॥
प्रह्लादजी बोले -
हे तात ! वह ब्रह्माभूत विष्णु तो केवल मेरा ही नहीं, बल्कि सम्पूर्ण प्रजा और आपका भी कर्त्ता, नियन्ता और परमेश्वर है । आप प्रसन्न होइये, व्यर्थ क्रोध क्यों करते हैं ॥२४॥
हिरण्यकशिपु बोला -
अरे कौन पापी इस दुर्बुद्धि बालकके हृदयमें घुस बैठा है जिससें आविष्टचित्त होकर यह ऐसे अमंगल वचन बोलता है ? ॥२५॥
प्रह्लादजी बोले -
पिताजी ! वे विष्णुभगवान् तो मेरे ही हृदयमें नहीं, बल्कि सम्पूर्ण लोकोंमें स्थित हैं । वे सर्वगामी तो मुझको आप सबको और समस्त प्राणियोंको अपनी-अपनी चेष्टाओंमें प्रवृत्त करते हैं ॥२६॥
हिरण्यकशिपु बोला -
इस पापिको यहाँसे निकालो और गुरुके यहाँ ले जाकर इसका भली प्रकार शासन करो ! इस दुर्मतिको न जाने किसने मेरे विपक्षीकी प्रशंसामें नियुक्त करि दिया है ? ॥२७॥
श्रीपराशरजी बोले -
उसके ऐसा कहनेपर दैत्यगण उस बालकको फिर गुरुजीके यहाँ ले गये और वे वहाँ गुरुजीकी रात-दिन भली प्रकार सेवा - शुश्रूषा करते हुए विद्याध्ययन करते लगे ॥२८॥
बहुत काल व्यतीत हो जानेपर दैत्यराजने प्रह्लादजीको फिर बुलाया और कहा 'बेटा ! आज कोई गाथा ( कथा ) सुनओ ' ॥२९॥
प्रह्लादजी बोले -
जिनसे प्रधान, पुरुष और यह चराचर जगत् उप्तन्न हुआ है वे सकल प्रपत्र्चके कारण श्रीविष्णुभगवान हमपर प्रसन्न हों ॥३०॥
हिरण्यकशिपु बोला - अरे ! यह बड़ा दुरात्मा है ! इसको मार डालो; अब इसके जीनेसे कोई लाभ नहीं है, क्योकि स्वपक्षकी हानि करनेवाला होनेसे यह तो अपने कुलके लिये अंगाररूप हो गया है ॥३१॥
श्रीपराशरजी बोले -
उसकी ऐसी आज्ञा होनेपर सैकड़ो-हजारों दैत्यगण बड़े-बडे़ अस्त्र शस्त्र लेकर उन्हें मारनेके लिये तैयार हुए ॥३२॥
प्रह्लादजी बोले -
अरे दैत्यो ! भगवान विष्णु तो शस्त्रोमें तुमलोगोंमें और मुझमें-सर्वत्र ही स्थित हैं । इस सत्यके प्रभावसे इन अस्त्र-शस्त्रोंका मेरे ऊपर कोई प्रभाव न हो ॥३३॥
श्रीपराशरजी कहा -
तब तो उन सैकड़ो दैत्योंके शस्त्र समूहका आघात होनेपर भी उनको तनिक सी भी वेदना न हुई, वे फिर भी ज्यों- कें-त्यों नवीन बल-सम्पन्न ही रहे ॥३४॥
हिरण्यकशिपु बोला -
रे दुर्बुद्धे ! अब तू विपक्षीकी स्तुति करना छोड़ दे; जा, मैं तुझे अभय दान देता हूँ, अब और अधिक नादान मत हो ॥३५॥
प्रह्लादजी बोले -
हे तात ! जिनके स्मरणमात्रसे जन्म, जरा और मृत्यु आदिके समस्त भय दूर हो जाते हैं, उन सकल - भयहारी अनन्तके हृदयमें स्थित रहते मुझे भय कहाँ रह सकता है ॥३६॥
हिरण्यकशिपु बोला-
अरे सर्पो ! इअ अत्यन्त दुब्रुद्धि और दुराचारीकी अपने विषाग्नि सन्तप्त मुखोंसे काटकर शीघ्र ही नष्ट कर दो ॥३७॥
श्रीपराशरजी बोले -
ऐसी आज्ञा होनेपर अतिक्रूर और विषधर तक्षक आदि सर्पोने उनके समस्त अंगोमें काटा ॥३८॥
किन्तु उन्हें तो श्रीकृष्णचन्द्रमें आसक्तचित्त रहनेके कारण भगवत्स्मरणके परमानन्दके डुबे रहनेसे उन महासर्पोंके काटनेपर भी अपने शरीरकी कोई सुधि नहीं हुई ॥३९॥
सर्प बोले - हे दैत्यराज ! देखो, हमारी दाढ़ें टूट गयीं, मणियाँ चटखने लगीं, फणोंमें पीड़ा होने लगी और हृदय काँपने लगा, तथापि इसकी त्वचा तो जरा भी नहीं कटी । इसलिये अब आप हमें कोई और कार्य बताइये ॥४०॥
हिरण्यकशिपु बोला -
हे दिग्गजो ! तुम सब अपने संकीर्ण दाँतोको मिलाकर मेरे शत्रु-पक्षद्वारा ( बहकाकर ) मुझसे विमुख किये हुए इस बालकको मार डालो ! देखो, जैसे अरणीसे उप्तन्न हुआ अग्नि उसीको जला डालता है उसी प्रकार कोई-कोई जिससे उप्तन्न होते हैं उसीके नाश करनेवाले हो जाते हैं ॥४१॥
श्रीपराशरजी बोले -
तब पर्वत शिखरके समान विशालकाय दिग्गजोंने बालकको पृथिवीपर पटककर अपने दाँतोंसे खूब रौदां ॥४२॥
किन्तु श्रीगोविन्दका स्मरण करते रहनेसे हाथियोंके हजारों दाँत उनके वक्षःस्थलसे टकराकर टूट गये; तब उन्होंने पिता हिरण्यकशिपुसे कहा - ॥४३॥
"ये जो हाथियोंके वज्रके समान कठोर दाँत टूट गये है इसमें मेरा कोई बल नहीं है; यह तो श्रीजनार्दनभगवानके महाविपत्ति औअ क्लेशोंके नष्ट करनेवाले स्मरणका ही प्रभाव है " ॥४४॥
हिरण्यकशिपु बोला -
अरे दिग्गजो ! तुम हट जाओ ! दैत्यगण ! तुम अग्नि जलाओ, और हे वायु ! तुम अग्निको प्रज्वलित करो जिससे इस पापीको जला डाला जाय ॥४५॥
श्रीपराशरजी बोले -
तब अपने स्वामीकी आज्ञासे दानवगण काष्ठके एक बड़े ढेरमेम स्थित उस असूर राजकुमारको अग्नि प्रज्वलित करके जलाने लगे ॥४६॥
प्रह्लादजी बोले -
हे तात ! पवनसे प्रेरित हुआ भी यह अग्नि मुझे नहीं जलाता । मुझको तो सभी दिशाएँ ऐसी शीतल प्रतीत होती हैं मानो मेरे चारों ओर कमल बिछे हुए हों ॥४७॥
श्रीपराशरजी बोले -
तदनन्तर, शुक्रजीके पुत्र बडे़ वाग्मी महात्मा ( षंडामर्क आदि ) पुरोहितगण सामनीतिसे दैत्यराजकी बड़ाई करते हुए बोले ॥४८॥
पुरोहित बोले -
हे राजन् ! अपने इस बालक पुत्रके प्रति अपना क्रोध शान्त कीजिये;' आपको तो देवताओंपर ही क्रोध करना चाहिये, क्योंकि उसकी सफलता तो वहीं है ॥४९॥
हे राजन् ! हम आपके इस बालकको ऐसी शिक्षा देंगे जिससे यह विपक्षके नाशका कारण होकर आपके प्रति अति विनीत हो जायगा ॥५०॥
हे दैत्यराज ! बाल्यावस्था तो सब प्रकारको दोषोंका आश्रय होती ही है, इसलिये आपको इस बालकपर अत्यन्त क्रोधका प्रयोग नहीं करना चाहिये ॥५१॥
यदि हमारे कहनेसे भी यह विष्णुका पक्ष नहीं छोड़ेगा तो हम इसको नष्ट करनेके लिये किसी प्रकार न टलनेवाली कृत्या उप्तन्न करेंगे ॥५२॥
श्रीपराशरजीने कहा -
पुरोहितोंके इस प्रकार प्रार्थना करनेपर दैत्यराजने दैत्योंद्वारा प्रह्लादको अग्निसमूहसे बाहर निकलवाया ॥५३॥
फिर प्रह्लादजी गुरुजीके यहाँ रहते हुए उनके पढ़ा चुकनेपर अन्य दानवकुमारोंको बार-बार उपदेश देने लगे ॥५४॥
प्रह्लादजी बोले -
हे दैत्यकुलोप्तन्न असुर बालको । सुनो, मैं तुम्हें परमार्थका उपदेश करता हूँ, तुम इसे अन्यथा न समझना, क्योंकि मेरे ऐसा कहनेसें किसी प्रकरका लोभादि कारण नहीं है ॥५५॥
सभी जीव जन्म बाल्यावस्था और फिर यौवन प्राप्त करते हैं, तप्तश्चात दिन दिन वृद्धावस्थाकि प्राप्ती भी अनिवार्य ही है ॥५६॥
और हे दैत्यराजकुमरो ! फिर यह जीव मृत्युके मुखमें चला जाता है, यह हम और तुम सभी प्रत्यक्ष देखते हैं ॥५७॥
मरनेपर पुनर्जन्म होता है, यह नियम भी कभी नहीं टलता । इस विषयमें ( श्रुतिस्मृतिरूप ) आगम भी प्रमाण है कि बिना उपादानके कोई वस्तु उप्तन्न नहीं होती * ॥५८॥
पुनर्जन्म प्राप्त करानेवाली गर्भवास आदि जितनी अवस्थाएँ हैं उन सबको दुःखरूप ही जानो ॥५९॥
मनुष्य मूर्खतावश क्षुधा, तृष्णा और शीतादिकी शान्तिको सुख मानते हैं, परन्तु वास्तवमें तो वे दुःखमात्र ही हैं ॥६०॥
जिनका शरीर ( वातादि दोषसे ( अत्यन्त शिथिल हो जाता है उन्हें जिस प्रकर व्यायाम सुखप्रद प्रतीत होता है उसी प्रकार जिनकी दृष्टि भ्रान्तिज्ञानसे ढँकी हुई है उन्हें दूःख ही सुखरुप जान पड़ता है ॥६१॥
अहो ! कहाँ तो कफ आदि महाघृणित पदार्थोका समूहरूप शरीर और कहाँ कान्ति, शोभा, सौन्दर्य एवं रमणीयता आदि दिव्य गुण ? ( तथापि मनुष्य इस घृणित शरीरमें कान्ति आदिका आरोप कर सुख मानने लगता है ) ॥६२॥
यदि किसी मूढ पुरुषकी मांस, रुधिर, पीब, विष्ठा, मूत्र, स्नायु, मज्जा और अस्थियोंके समूहरूप इस शरीरमें प्रीति हो सकती है तो उसे नरक भी प्रिय लग सकता है ॥६३॥
अग्नि, जल और भात शीत, तृषा और क्षुधाके कारण ही सुखकारी होते हैं और इनके प्रतियोगी जल आदि भी अपनेसे भिन्न अग्नि आदिके कारण ही सुखके हेतु होते हैं ॥६४॥
हे दैत्यकुमारो ! विषयोंका जितना-जितना संग्रह किया जाता है उतना - उतना ही वे मनुष्यके चित्तमें दुःख बढा़ते हैं ॥६५॥
जीव अपने मनको प्रिय लगनेवाले जितने ही सम्बन्धोंको बढ़ाता जाता है उतने ही उसके हृदयमें शोकरूपी शल्य ( काँटे ) स्थिर होते जाते हैं ॥६६॥
घरमें जो कुछ धन-धान्यादि होते हैं मनुष्यके जहाँ-तहाँ ( परदेशमें ) रहनेपर भी वे पदार्थ उसके चित्तमें बने रहते है, और उनके नाश और दाह आदिकी सामग्री भी उसीमें मौजूद रहती है । ( अर्थात घरमें स्थित पदार्थाकि सुरक्षित रहनेपर भी मनःस्थिति पदार्थोंके नाश आदिकी भावनासे पदार्थ नाशका दुःख प्राप्त हो जाता है ) ॥६७॥
इस प्रकार जीते-जी तो यहाँ महान् दुःख होता ही है, मरनेपर भी यम यातनाओंका और गर्भप्रवेशका उग्र कष्ट भोगना पड़ता है ॥६८॥
यदि तुम्हें गर्भवासमें लेशमात्र भी सुखका अनुमान होता हो तो कहो ! सारा संसार इसी प्रकार अत्यन्त दुःखमय है ॥६९॥
इसलिये दुःखोंके परम आश्रय इस संसारसमुद्रमें एकमात्र विष्णुभगवान् ही आप लोगोंकी परमगति हैं - यह मैं सर्वथा सत्य कहता हूँ ॥७०॥
ऐसा मत समहो कि हम तो अभी बालक हैं, क्योकीं जरा, यौवन और जन्म आदि अवस्थाएँ तो देहके ही धर्म हैं, शरीरका अधिष्ठाता आत्मा तो नित्य है, उसमें यह कोई धर्म नहीं है ॥७१॥
जो मनुष्य ऐसी दुराशाओंसे विक्षित्पाचित्त रहता है कि 'अभी मैं बालक हूँ इसलिये इच्छानुसार खेल-कूद लूँ, युवावस्था प्राप्त होनेपर कल्याण-साधनका यत्न करुँगा ।' ( फिर युवा होनेपर कहता है कि ) ' अभी तो मैं युवा हूँ, बुढा़पेमें आत्मकल्यण कर लूँगा ।' और ( वृद्ध होनेपर सोचता है कि ) 'अब मैं बूढा़आ हो गया, अब तो मेरी इन्द्रियाँ अपने कर्मोंमें प्रवृत्त ही नहीं होतीं, शरीरके शिथिल हो जानेपर अब मैं क्या कर सकता हूँ ? सामर्थ्य रहते तो मैंने कुछ किया ही नहीं ।' वह अपने कल्याणपथपर कभी अग्रसर नहीं होता; केवल भोग - तृष्णामें ही व्याकुल रहता है ॥७२-७४॥
मूर्खलोग अपनी बाल्यावस्थामें खेल-कूदमें लगें रहते हैं, युवावस्थामें विषयोमें फँस जाते हैं और बुढा़पा आनेपर उसे असमर्थताके कारण व्यर्थ ही काटते हैं ॥७५॥
इसलिये विवेकी पुरुषको चाहिये कि देहकी बाल्य, यौवन और वृद्ध आदि अवस्थाओंकी अपेक्षा न करके बाल्यावस्थामें ही अपने कल्याणका यत्न करे ॥७६॥
मैंने तुम लोगोंसे जो कुछ कहा है उसे यदि तुम मिथ्या नहीं समझते तो मेरी प्रसन्नताके लिये ही बन्धनको छुटानेवाले श्रीविष्णुभगवान्‌का स्मरण करो ॥७७॥
उनका स्मरण करनेमें परिश्रम भी क्या है ? और स्मरणमात्रसे ही वे अति शुभ फल देते हैं तथा रात-दिन उन्हींका स्मरण करनेवालोंका पाप भी नष्ट हो ताता है ॥७८॥
उन सर्वभूतस्थ प्रभुमें तुम्हारी बुद्धि अहर्निश लगी रहे और उनमें निरन्तर तुम्हारा प्रेम बढे़ इस प्रकार तुम्हारे समस्त क्लेश दूर हो जायँगे ॥७९॥
जब कि यह सभी संसार तापत्र्फ़यसे दग्ध ह रहा है तो इन बेचारे शोचनीय जीवोंसे कौन बुद्धिमान द्वेष करेगा ? ॥८०॥
यदि ( ऐसा दिखायी दे कि ) ' और जीव तो आनन्दमें हैं, मैं ही परम शक्तिहीन हूँ तब भी प्रसन्न ही होना चाहिये, क्योंकि द्वेषका फल तो दुःखरूप ही है ॥८१॥
यदि कोई प्राणी वैरभावसे द्वेष भी करें तो विचारवानोंके लिये तो वे 'अहो ! ये महामोहसे व्याप्त है !' इस प्रकार अत्यन्त शोचनीय ही है ॥८२॥
हे दैत्यगण ! ये मैंने भिन्न-भिन्न दृष्टिवालोंके विकल्प ( भिन्न -भिन्न उपाय ) कहे । अब उनका समन्वयपूर्वक संक्षिप्त विचार सुनो ॥८३॥
यह सम्पूर्ण जगत् सर्वभुतमय भगवान् विष्णुको विस्तार है, अतः विचक्षण पुरुषोंको इस आत्माके समान अभेदरूपसे देखना चाहिये ॥८४॥
इसलिये दैत्यभावको छोड़कर हम और तुम ऐसा यत्न करे जिससे शान्ति लाभ कर सकें ॥८५॥
जो ( परम शान्ति ) अग्नि, सूर्य, चन्द्रमा, वायु, मेघ, वरुण, सिद्ध, राक्षस, यक्ष, दैत्यराज , सर्प, किन्नर, मनुष्य, पशु और अपने दोषोंसे तथा ज्वर, नेत्ररोग, अतिसार, प्लीहा ( तिल्ली ) और गुल्म आदि रोगोंसे एवं द्वेष, ईर्ष्या, मत्सर, राग, लोभ और किसी अन्य भावसे भी कभी क्षीण नहीं होती, और जो सर्वदा अत्यन्त निर्मल है उसे मनुष्य अमलस्वरूप श्रीकेशवमें मनोनिवेश करनेसे प्राप्त कर लेता है ॥८६-८९॥
है दैत्यो ! मैं आग्रहपूर्वक कहता हूँ, तुम इस असार संसारके विषयोंके कभी सन्तुष्ट मत होना । तुम सर्वत्र समदृष्टि करो, क्योंकि समता ही श्रीअच्युतकी ( वास्तविक ) आराधना है ॥९०॥
उन अच्युतके प्रसन्न होनेपर फिर संसारमें दुर्लभ ही क्या है ? तुम धर्म, अर्थ और कामकी इच्छा कभी न करना; वे तो अत्यन्त तुच्छ हैं । उसे ब्रह्मरूप महावृक्षका आश्रय लेनेपर तो तुम निःसन्देह ( मोक्षरूप ) महाफल प्राप्त कर लोगे ॥९१॥
इति श्रीविष्णुपुराणे प्रथमेंऽशें सप्तदशोऽध्यायः ॥१७॥
* यह पुनर्जन्म होनेमें युक्ति है क्योंकि जबतक पूर्व जन्मके किये हुए, शुभाशुभ कर्मरूप कारणका होना न माना जाय तबतक वर्तमान जन्म भी सिद्ध नहीं हो सकता । इसी प्रकार, जब इस जन्ममे शुभाशुभका आरम्भ हुआ है तो इसका कार्यरूप पुनजन्म भी अवश्य होगा ।
श्रीपराशर उवाच
तस्यैतां दनावाश्चेष्टां दृष्टा दैत्यपतेर्भयात् । आचचख्युः स चोवाच सूदानाहूय सत्वरः ॥१॥
हिरण्यकशिपुरुवाच
हे सूदा मम पुत्रोऽसावन्यषामपि दुर्मतिः । कुमार्गदेशिको दुष्टो हन्यतामविलम्बितम् ॥२॥
हालाहलं विषं तस्य सर्वभक्षेषु दीयताम् । अविज्ञातमसौ पापो हन्यतां मा विचार्यताम् ॥३॥
श्रीपराशर उवाच
ते तथैव ततश्चक्रुः प्रह्लादाय महात्मने । विषदानं यथाज्ञत्पं पित्रा तस्य महात्मनः ॥४॥
हालहलं विषं घोरमनन्तोच्चारणेन सः । अभिमन्त्र्य सहान्नेन मैत्रेय बुभुजे तदा ॥५॥
अविकारं स तद्भुक्त्वा प्रह्लादः स्वस्थमानसः । अनन्तख्यातिनिर्वीर्य जरयामास तद्विषम् ॥६॥
ततः सूदा भयत्रस्ता जीर्णा दृष्टवा महद्विषम् । दैत्येश्वरमुपागम्य प्रणिपत्येदमब्रुवन् ॥७॥
सूदा ऊचुः
दैत्यराज विषं दत्तमस्माभिरतिभीषणम् । जीर्णं तेन सहान्नेन प्रह्लादेन सुतेन ते ॥८॥
हिरण्यकशिपुरुवाच
त्वर्यतां त्वर्यतां हे हे सद्यो दैत्यपुरोहिताः । कृत्यां तस्य विनाशाय उप्तादयत मा चिरम् ॥९॥
श्रीपराशर उवाच
सकाशमागम्य ततः प्रह्लादस्य पुरोहिताः । सामपूर्वमथोचुस्ते प्रह्लादं विनयान्वितम् ॥१०॥
पुरोहित ऊचुः
जातस्त्रैलोक्यविख्यात आयुष्मन्ब्रह्मणःकुले । दैत्यराजस्य तनयो हिरण्यकशिपोर्भवान् ॥११॥
किं देवैः किमनन्तेन किमन्येन तवाश्रयः । पिता ते सर्वलोकानां त्वं तथैव भविष्यसि ॥१२॥
तस्मात्परित्यजैनां त्वं विपक्षस्तवसंहिताम् । श्‍लाध्यः पिता समस्तानां गुरुणां परमो गुरुः ॥१३॥
प्रह्लाद उवाच
एवमेतन्महाभागाः श्‍लाघ्यमेतन्महाकुलम् । मरीचेः सकलेऽप्यस्मिन् त्रैलोक्ये नान्यथा वदेत् ॥१४॥
पिता च मम सर्वस्मित्र्जगत्युत्कृष्तचेष्टितः । एतदप्यवगच्छमि सत्यमत्रापि नानृतम् ॥१५॥
गुरूणामपि सर्वषं पिता परमको गुरुः । यदुक्तं भ्रान्तिस्तत्रापि स्वल्पापि हि न विद्यते ॥१६॥
पिता गुरुर्न सन्देहः पूजनीयः प्रयत्नतः । तत्रापि नापराध्यामीत्येवं मनसि मे स्थितम् ॥१७॥
यत्त्वेतत्किमनन्तेनेत्युक्तं युष्माभिरीदृशम् । को ब्रवीति यथान्याय्यं किं तु नैतद्वचोऽर्थवत् ॥१८॥
इत्युक्त्वा सोऽभवन्मौनी तेषां गौरवयन्त्नितः । प्रहस्य च पुनः प्राह किननन्तेन साध्विति ॥१९॥
साधु भो किमनन्तेन साधु भो गुरवो मम । श्रुयतां यदनन्तेन यदि खेदं न यास्यथ ॥२०॥
धर्मार्थकाममोक्षाश्च पुरुषार्था उदाहृताः । चतुष्टयमिदं यस्मात्तस्मात्किं किमिदं वचः ॥२१॥
मरिचिमिश्रैर्दक्षाद्यैस्तथैवान्यैरनन्ततः । धर्मः प्राप्तस्तथा चार्न्यैरर्थः कामस्तथाऽपरैः ॥२२॥
तत्तत्त्ववेदिनो भूत्वा ज्ञानध्यानसमाधिभिः । अवापुर्मुक्तिमपरे पुरुषा ध्वस्तबन्धनाः ॥२३॥
सम्पदैश्वर्यमाहात्म्यज्ञानसन्ततिकर्मणाम् । विमुक्तेश्चैकतो लभ्यं मूलमाराधनं हरे ॥२४॥
यतो धर्मार्थकमाख्यं मुक्तिश्चापि फलं द्विजाः । तेनापि किं किमित्येवमनन्तेन किमुच्यते ॥२५॥
किं चापि बहुनोक्तेन भवन्तो गुरवो मम । वदन्तु साधु वासाधु विवेकोऽस्माकमल्पकः ॥२६॥
बहुनात्र किमुक्तेन स एव जगतः पतिः । स कर्त्ता च विकर्त्ता च संहर्ता च हृदि स्थितः ॥२७॥
स भोक्ता भोज्यमप्येवं स एवं जगदीश्वरः । भवद्भिरेतत्क्षन्तव्यं बाल्यादुक्तं तु यन्मया ॥२८॥
पुरोहिता ऊचुः
दह्यामानस्त्वमस्माभिरग्निना बाल रक्षितः । भूयो न वक्ष्यसीत्येवं नैव ज्ञातोऽस्यबुद्धिमान् ॥२९॥
यदास्मद्वचनान्मोहग्राहं न त्यक्ष्यते भवात् । ततः कृत्यां विनाशाय तव स्त्रक्ष्याम दुर्मते ॥३०॥
प्रह्लाद उवाच
कः केन हन्यते जन्तुर्जन्तुः कः केन रक्ष्यते । हन्ति रक्षति चैवात्मा ह्यास्यत्साधु समाचरन् ॥३१॥
कर्मणा जायते सर्व कर्मैव गतिसाधनम् । तस्मत्सर्वप्रयत्नेन साधुकर्म समाचरेत् ॥३२॥
श्रीपराशरजी उवाच
इत्युक्तास्तेन ते क्रुद्धा दैत्यराजपुरोहिताः । कृत्यामृत्पादयामासुर्ज्वालामालोज्ज्वलाकृतिम् ॥३३॥
अतिभीमा समागम्य पादन्यासक्षतक्षितिः । शूलेन साधु संकुद्धा तं जलानाशु वक्षासि ॥३४॥
तत्तस्य हृदयं प्राप्यं शूलं बालस्य दीप्तिमत् । जगाम खण्डितं भूमौ तत्रापि शतधा गतम् ॥३५॥
यत्रानपायी भगवान् हृद्यास्ते हरिरीश्वरः । भंगो भवति वज्रस्य तत्र शूलस्य का कथा ॥३६॥
अपापे तत्र पापैश्च पातिता दैत्ययाजकैः । तानेव सा जघानाशु कृत्या नाशं जगाम च ॥३७॥
कृत्यया दह्ममानांस्तान्विलोक्य स महामतिः । त्राहि कृष्णेत्यनन्तेति वदन्नभवपद्यत ॥३८॥
प्रह्लाद उवाच
सर्वव्यापिन जगद्रूप जगत्स्त्रष्टर्जनार्दन । पाहि विप्रानिमनस्मादृःसहान्मन्त्रपावकात् ॥३९॥
यथा सर्वेषु भूतेषु सर्वव्यापी जगदगुरुः । विष्णुरेव तथा सर्वे जीवन्त्वेते पुरोहोताः ॥४०॥
यथा सर्वगतं विष्णुं मन्यमानोऽनपायिनम् । चिन्तयाम्यरिपक्षेऽपिं जीवन्त्वेते पुरोहिताः ॥४१॥
ये हन्तुमागता दत्तं यैर्विंषं यैर्हुताशनः । यैर्दिग्गजैरहं क्षुण्णो दष्टः सर्पैश्च यैरपि ॥४२॥
तेष्वहं मित्रभावेन समः पापोऽस्मि न क्वचित् । यथा तेनाद्य सत्येन जीवन्त्वसुरयाजकाः ॥४३॥
श्रीपराशर उवाच
इत्युक्तास्तेन ते सर्वे संस्पृष्टाश्च निरामयाः । समुत्तस्थुर्द्विजा भूयस्तमूचुः प्रश्चयान्वितम् ॥४४॥
पुरोहिता ऊचुः
दीर्घायुरप्रतिहतो बलवीर्यसमन्वितः । पुत्रपौत्रधनैश्वर्यैर्युक्तो वत्स भवोत्तमः ॥४५॥
श्रीपराशरजी उवाच
इत्युक्त्वा तं ततो गत्वा यथावृत्तं पुरोहिताः । दैत्यराजाय सकलमाचचख्युर्महामुने ॥४६॥

श्रीपराशरजी बोले -
उनकी ऐसी चेष्टा देख दैत्योने दैत्यराज हिरण्यकशिपुसे डरकर उससे सारा वृत्तान्त कह सुनाया, और उसने भी तुरन्त अपने रसोइयोंको बुलाकर कहा ॥१॥
हिरण्यकशिपु बोला -
अरे सुदगण ! मेरा यह दुष्ट और दुर्मति पुत्र औरोंको भी कुमार्गका उपदेश देता हैं, अतः तुम शीघ्र ही इसे मार डालो ॥२॥
तुम उसे उसके बिना जाने समस्त खाद्यपदार्थोंमें हलाहल विष मिलाकर दो और किसी प्रकारका शोच विचार न कर उस पापीको मार डालो ॥३॥
श्रीपराशरजी बोले -
तब उन रसोइयोंने महात्मा प्रह्लादको, जैसी कि उनके पिताने आज्ञा दी थी उसीके अनुसार विष दे दिया ॥४॥
हे मैत्रेय ! तब वे उस घोर हलाहल विषको भगवन्नामके उच्चारणसे अभिमन्तित कर अन्नके साथ खा गये ॥५॥
तथा भगवन्नामके प्रभावसे निस्तेज हुए उस विषको खाकर उसे बिना किसी विकारके पचाकर स्वस्थ चित्तसे स्थित रहे ॥६॥
उस महान् विषको पचा हुआ देख रसोइयोंने भयसे व्याकुल हो हिरण्यकशिपुके पास जा उसे प्रणाम करके कहा ॥७॥
सुदगण बोले -
है दैत्यराज ! हमने आपकी आज्ञासे अत्यन्त तीक्ष्ण विष दिया था, तथापि आपके पुत्र प्रह्लादने उसे अन्नके साथ पचा लिया ॥८॥
हिरण्यकशिपु बोला -
हे पुरोहितगण ! शीघ्रता करो, शीघ्रता करो ! उसे नष्ट करनेके लिये अब कृत्या उप्तन्न, करो; और देरी न करो ॥९॥
श्रीपराशरजी बोले -
तब पुरोहितोंने अति विनीत प्रह्लादसे, उसके पास जाकर शान्तिपूर्वक कहा ॥१०॥
पुरोहित बोले -
हे आयुष्यन् ! तुम त्रिलोकीमें विख्यात ब्रह्माजीके कुलमें उप्तन्न हुए हो और दैत्यराज हिरण्यकशिपुके पुत्र हो ॥११॥
तुम्हें देवता अनन्त अथवा और भी किसीसे क्या प्रजोजन है ? तुम्हारे पिता तुम्हारे तथा सम्पूर्ण लोकोंके आश्रय हैं और तूम भी ऐसे ही होगे ॥१२॥
इसलिये तुम यह विपक्षकी स्तुति करना छोड़ दो । तुम्हारे पिता सब प्रकार प्रशंसनीय है और वे ही समस्त गुरुओंमें परम गुरु हैं ॥१३॥
प्रह्लादजी बोले -
हे महाभागगण ! यह ठिक ही है । इस सम्पूर्ण त्रिलोकीमें भगवान् मरीचिका यह महान् कुल अवश्य ही प्रशंसनीय है । इसमें कोई कुछ भी अन्यथा नही कह सकता ॥१४॥
और मेरे पिताजी भी सम्पूर्ण जगत्‌में बहुत बड़े पराक्रमी हैं; यह बेहे मैं जानता हूँ । यह बात भी बिलकुल ठिक है, अन्यथा नहीं ॥१५॥
और आपने जो कहा कि समस्त गुरुओंमें पिता ही परम गुरु हैं - इसमें भी मुझे लेशमात्र सन्देह नहीं है ॥१६॥
पिताजी परम गुरु हैं और प्रयत्नपूर्वक पूजनीय हैं - इसमें कोई सन्देह नहीं । और प्रयत्नपूर्वक पूजनीय हैं- इसमें कोई सन्देह नहीं । और मेरे चित्तमें भी यही विचार स्थित है कि मैं उनका कोई अपराध नहीं करुँगा ॥१७॥
किन्तु आपने जो यह कहा कि 'तुझे अनन्तसे क्या प्रयोजन है ?' सो ऐसी बातको भला कौन न्यायोचित कह सकता है ? आपका यह कथन किसी भी तरह ठीक नहीं है ॥१८॥
ऐसा कहकर वे उनका गौरव रखनेके लिये चूप हो गये और फिर हँसकर कहने लगे- 'तुझे अनन्तसे क्या प्रयोजन है ? इस विचारको धन्यवाद है ! ॥१९॥
हे मेरे गुरुगण ! आप कहते हैं कि तुझे अनन्तसे क्या प्रयोजन है ? धन्यवाद है आपके इस विचारको ! अच्छा, यदि आपको बुरा न लगे तो मुझे अनन्तसे जो प्रयोजन है सो सुनिये ॥२०॥
धर्म, अर्थ काम और मोक्ष - ये चार पुरुषार्थ कहे जाते हैं । ये चारों ही जिनसें सिद्ध होते हैं, उनसे क्या प्रयोजन ? - आपके इस कथनको क्या कहा जाय ! ॥२१॥
उन अनन्तसे ही दक्ष और मरीचि आदि तथा अन्यान्य ऋषीश्वरोंके धर्म, किन्हीं अन्य मुनीश्वरोंको अर्थ एवं अन्य किन्हींको कामकी प्राप्ति हुई है ॥२२॥
किन्हीं अन्य महापुरुषोंने ज्ञान, ध्यान और समाधिके द्वारा उन्हींके तत्त्वको जानकर अपने संसार-बन्धनको काटकर मोक्षपद प्राप्त किया है ॥२३॥
अतः सम्पत्ति , ऐश्वर्य, माहात्म्य, ज्ञान , सन्तति और कर्म तथा मोक्ष - इन सबकी एकमात्र मूल श्रीहरिकी आराधना ही उपार्जनीय है ॥२४॥
हे द्विजगण ! इस प्रकार, जिनसे अर्थ, धर्म, काम, और मोक्ष - ये चारों ही फल प्राप्त होते हैं उनके लिये भी आप ऐसा क्यों कहते हैं कि 'अनन्तसे तुझे क्य प्रयोजन है ? ॥२५॥
और बहुत कहनेसे क्या लाभ ? आपलोग तो मेरे गुरु हैं; उचित -अनुचित सभी कुछ कह सकते है । और मुझे तो विचार भी बहुत ही कम है ॥२६॥
इस विषयमें अधिक क्या कहा जाय ? ( मेरे विचारसे तो ) सबके विषयमें अधिक क्या कहा जाय ? ( मेरे विचारसे तो ) सबके अन्तः करणोंमें स्थित एकमात्र वे ही संसारके स्वामी तथा उसके रचयिता, पालक और संहारक हैं ॥२७॥
वे ही भोक्ता और भोज्य तथा वे ही एकमात्र जगदीश्वर हैं । हे गुरुगण ! मैंने बाल्यभावसे यदि कुछ अनुचित कहा ह तो आप क्षमा करें " ॥२८॥
पुरोहितगण बोले -
अरे बालक ! हमने तो यह समझकर कि तू फिर ऐसी बात न कहेगा तुझे अग्निमें जलनेसे बचाया है । हम यह नहीं जानते थे कि त्तू ऐसा बुद्धिहीन है ? ॥२९॥
रे दुर्मते ! यदि तू हमारे कहनेसे अपने इस मोहमय आग्रहको नहीं छोड़ेगा तो हम तुझे नष्ट करनेके लिये कृत्या उप्तन्न करेंगे ॥३०॥
प्रह्लादजी बोले -
कौन जीव किससे मारा जाता है और कौन किससे रक्षित होता है ? शुभ और अशुभ आचरणोंके द्वारा आत्मा स्वयं ही अपनी रक्षा और नाश करता है ॥३१॥
कर्मोके कारण ही सब उप्तन्न होते हैं और कर्म ही उनकी शुभाशुभ गतियोंके साधन हैं । इसलिये प्रयन्तपूर्वक शुभकर्मोका ही आचरण करना चाहिये ॥३२॥
श्रीपराशरजी बोले -
उनके ऐसा कहनेपर उन दैत्यराजके पुरोहितोंने क्रोधित होकर अग्निशिखाके समान प्रज्वलित शरीरवाली कृत्या उत्पन्ना कर दी ॥३३॥
उस अति भयंकरीने अपने पादाद्यातसे पृथिवीको कम्पित करते हुए वहाँ प्रकट होकर बड़े क्रोधसे प्रह्लदजीकी छातीमें त्रिशूलसे प्रहार किया ॥३४॥
किन्तु उस बालकके वक्षःस्थलमें लगते ही वह तेजोमय त्रिशूल टूटकर पृथिवीपर गिर पड़ा और वहाँ गिरनेसे भी उसके सैकड़ों टुकड़े हो गये ॥३५॥
जिस हृदयमें निरन्तर अक्षुण्णभावसे श्रीहरिभगवान् विराजते हैं उसमें उसमें लगनेसे तो वज्रके भी टूक-टूक हो जाते हैं, त्रिशूलकी तो बात ही क्या है ? ॥३६॥
उन पापी पुरोहितोंने उस निष्पाप बालकपर कृत्याका प्रयोग किया था; इसलिये तुरन्त ही उसने उनपर वार किया और स्वयं भी नष्ट हो गयी ॥३७॥
अपने गुरुओंको कृत्याद्वारा जलाये जाते देख महामति प्रह्लाद 'हे कृष्ण ! रक्षा करो ! हे अनन्त ! बचाओ ! ' ऐसा कहते हुए उनकी और दौड़ ॥३८॥
प्रह्लादजी कहने लगे -
हे सर्वव्यापी, विश्वरूप, विश्वस्त्रष्टा जनार्दन ! इन ब्राह्मणोंकी इस मन्त्राग्निरूप दुःसह दुःखसे रक्षा करो ॥३९॥
'सर्वव्यापी जगद्रुरु भगवान् विष्णु सभी प्राणियोंमें व्याप्त हैं. - इस सत्यके प्रभावसे ये पुरोहितगण जीवित हो जायँ ॥४०॥
यदि मैं सर्वव्यापी और अक्षर श्रीविष्णुभगवान्‌को अपने विपक्षियोंमें भी देखता हूँ तो ये पुरोहितगण जीवित हो जायँ ॥४१॥
जो लोग मुझे मारनेके लिये आये, जिन्होंने मुझे विष दिया, जिन्होंनें आगमें जलाया, जिन्होंने दिग्गजोंसे पीडित कराया और जिन्होंने सर्पोंसे डँसाया उन सबके प्रति यदि मै समान मित्रभावसे रहा हूँ और मेरी कभी पापबुद्धि नहीं हुई तो उस सत्यके प्रभावसे ये दैत्यपुरोहित जी उठें ॥४२-४३॥
श्रीपराशरजी बोले - ऐसा कहकर उनके स्पर्श करते ही वे ब्राह्मण स्वस्थ होकर उठ बैठे और उस विनयावनत बालकसे कहने लगे ॥४४॥
पुरोहितगण बोले - हे वत्स ! तू बड़ा श्रेष्ठ है । तू दीर्घायु, निर्द्वन्द्व, बल-वीर्यसम्पन्न तथा पुत्र, पौत्र एवं धन-ऐश्वर्यादिसे सम्पन्न हो ॥४५॥
श्रीपराशरजी बोले - हे महामुने ! ऐसा कह पुरोहितोंने दैत्यराज हिरण्यकशिपुके पास जा उसे सारा समाचार ज्यों-का-त्यों सुना दिया ॥४६॥
इति श्रीविष्णूपुराणे प्रथमेंऽशे अष्टादशोऽध्यायः ॥१८॥
श्रीपराशरजी बोले -
हिरण्यकशिपुने कृत्याको भी विफल हुई सुन अपने पुत्र प्रह्लादको बुलाकर उनके इस प्रभावका कारण पूछा ॥१॥
हिरण्यकशिपु बोला - अरे प्रह्लाद ! तु बड़ा प्रभावशाली है ! तेरी ये चेष्टाएँ मन्त्रादिजनित हैं या स्वाभाविक ही है ॥२॥
श्रेपराशरजी बोले -
पिताके इस प्रकार पूछनेपर दैत्यकुमार प्रह्लादजीने उसके चरणोनें प्रणाम कर इस प्रकार कहा - ॥३॥
"पिताजी ! मेरा यह प्रभाव न तो मन्त्रादिजनित है और न स्वाभाविक ही है, बल्कि जिसजिसके हृदयमें श्रीअच्युतभगवान्‌का निवास होता है उसके लिये यह सामान्य बात है ॥४॥
जो मनुष्य अपने समान दूसरोंका बुरा नहीं सोचना, हे तात ! कोई कारण न रहनेसे उसका भी कभी बुरा नहीं सोचता, हे तात ! कोई कारण अन रहनेसे उसका भी कभी बुरा नहीं होता ॥५॥
जो मनुष्य मन, वचन या कर्मसे दूसरोंको कष्ट देता है उसके उस परपीडारूप बीजसे ही उप्तन्न हुआ उसको अत्यन्त अशुभ फल मिलता है ॥६॥
अपनेसहित समस्त प्राणियोंमें श्रीकेशवको वर्तमान समझकर मैं न तो किसीका बुरा चाहता हूँ और न कहता या करता ही हूँ ॥७॥
इस प्रकार सर्वत्र शुभचित्त होनेसे मुझको शारिरीक मानसिक, दैविक अथवा भौतिक दुःख किस प्रकार प्राप्त हो सकता है ? ॥८॥
इसी प्रकार भगवान्‌को सर्वभूतमय जानकर विद्वानोंको सभी प्राणियोंमें अविचल भक्ति ( प्रेम ) करनी चाहिये" ॥९॥
श्रीपराशरजी बोले - अपने महलकी अट्टालिकापर बैठे, हुए उस दैत्यराजने यह सुनकर क्रोधान्ध हो अपने दैत्य अनुचरोंसे कहा ॥१०॥
हिरण्यकशिपु बोला -
यह बड़ा दुरात्मा है , इसे इस सौ योजन ऊँचे महलसे गिरा दो, जिससे यह इस पर्वतके ऊपर गिरे और शिलाओंसे इसके अंग-अंग छिन्न-भिन्न हो जायँ ॥११॥
तब उन समस्त दैत्य और दानोवोंने उन्हें महलसे गिरा दिया और वे भी उनके ढकेलनेसे हृदयमें श्रीहरिका स्मरण करते करते नीचे गिर गये ॥१२॥
जगत्कार्ता भगवान् केशवके परमभक्त प्रह्लादजीके गिरते समय उन्हें जगद्धात्री पृथिवीने निकट जाकर अपनी गोदमें ले लिया जगद्धात्री पृथिवीने निकट जाकर अपनी गोदमें ले लिया ॥१३॥
तब बिना किसी हड्डी- पसलीके टुटे उन्हें स्वस्थ देख दैत्यराज हिरण्यकशिपुने परममायावी शम्बरासुरसे कहा ॥१४॥
हिरण्यकशिपु बोला - यह दुर्बुद्धि बालक कोई ऐसी माया जानता है जिससे यह हमसे नहीं मारा जा सकता, इसलिये आप मायासे ही इसे मार डालिये ॥१५॥
शम्बरसुर बोला -
हे दैत्येन्द्र ! इस बालकको मैं अभी मारे डालता हूँ, तुम मेरी मायाका बल देखो ! देखो, मैं तुम्हें सैकड़ो - हजारों - करोड़ों मायाएँ दिखलाता हूँ ॥१६॥
श्रीपराशरजी बोले -
तब उस दुर्बुद्धि शम्बरासुरने समदर्शी प्रह्लादके लिये, उनके नाशकी इच्छासे बहुत-सी मायाएँ रचीं ॥१७॥
किन्तु, हे मैत्रेय ! शम्बरासुरके प्रति भी सर्वथा द्वेषहीन रहकर प्रह्लादजी सावधान चित्तसे श्रीमधुसूदनभगवान्‌का स्मरण करते रहे ॥१८॥
उस समय भगवान्‌की आज्ञासे उनकी रक्षाके लिये वहाँ ज्वाला-मालाओंसे युक्त सुदर्शनचक्र आ गया ॥१९॥
उस शीघ्रगामी सुदर्शनचक्र उस बालककी रक्षा करते४ हुए शम्बरसुरकी सहस्त्री मायाओंको एक - एक करके नष्ट कर दिया ॥२०॥
तब दैत्यराजने सबको सुखा डालनेवाले वायुसे कहा कि मेरी आज्ञासे तुम शीघ्र ही इस दुरात्माको नष्ट कर दो ॥२१॥
अतः उस अति तीव्र शीतल और रुक्ष वायुने, जो अति असहनीय था, ' जो आज्ञा' कह उनके शरीरको सुखानेके लिये उसमें प्रवेश किया ॥२२॥
अपने शरीरमें वायुका आवेश हुआ जान दैत्यकुमार प्रह्लादने भगवान् धरणीधरको हृदयमें धारण किया ॥२३॥
उनके हृदयमें स्थित हुए, श्रीजनार्दनने क्रुद्ध होकर उस भीषण वायुको पी लिया, इससे वह क्षीण हो गया ॥२४॥
इस प्रकार पवन और सम्पूर्ण मायाओंके क्षीण हो जानेपर महामति प्रह्लादजी अपने गुरुके घर चले गये ॥२५॥
तदनन्तर गुरुजी उन्हें नित्यप्रति शुक्राचार्यजीकी बनायी हुई राज्यफलाप्रदायिनी राजनीतिका अध्ययन कराने लगे ॥२६॥
जब गुरुजीने उन्हें नीतिशास्त्रमें निपुण और विनयसम्पन्न देखा तो उनके पितासे कहा - 'अब यह सुशिक्षित हो गया है'॥२७॥
आचार्य बोले -
हे दैत्यराज ! अब हमने तुम्हारे पुत्रको नीतिशास्त्रमें पूर्णतया निपूण कर दिया है, भृग-नन्दन शुक्राचार्यजीने जो कुछ कहा है उसे प्रह्लाद तत्वतः जानता है ॥२८॥
हिरण्यकशिपु बोला - प्रह्लाद ! ( यह तो बता ) राजाको मित्रोंसे कैसा बर्ताव करना चाहिये ? और शत्रुओंसे कैसा ? तथा त्रिलोकीमें जो मध्यस्थ ( दोनों पक्षोंके हितचिन्तक ) हों, उनसे किस प्रकार आचरण करे ? ॥२९॥
मन्त्नियों, अमात्यो, बाह्य और अन्तःपूरके सेवकों, गुप्तचरों, पुरवासियों, शंकितों ( जिन्हें जीतकर बलात् दास बना लिया हो ) तथा अन्यान्य जनोंके प्रति किस प्रकार व्यवहार करना चाहिये ? ॥३०॥
हे प्रह्लाद ! यह ठिक-ठिक बता कि करने और न करनेयोग्य कार्योंका विधान किस प्रकार करे, दुर्ग और आटविक ( जंगली मनुष्य ) आदिको किस प्रकार वशीभूत करे और गुप्त शत्रुरुप काँटेको कैसे निकाले ? ॥३१॥
यह सब तथा और भी जो कुछ तुने पढ़ा हो वह सब मुझे सुना, मै तेरे मनके भावोंको जाननेके लिये बहुत उत्सुक हूँ ॥३२॥
श्रीपराशरजी बोले -
तब विनयभूषण प्रह्लादजीने पिताके चरणोमें प्रणाम कर दैत्यराज हिरण्यकशिपुसे हाथ जोड़कर कहा ॥३३॥
प्रह्लादजी बोले -
पिताजी ! इससे सन्देह नहीं, गुरुजीने तो मुझे इन सभी विषयोंकी शिक्षा दी है, और मैं उन्हें समझ भी गया हूँ; परन्तु मेरा विचार है कि वे नीतियाँ अच्छी नहीं है ॥३४॥
साम, दान, तथा दण्ड और भेद - ये सब उपाय मित्रादिके साधनेके लिये बतलाये गये है ॥३५॥
किन्तु, पिताजी ! आप क्रोध न करें, मुझे तो कोई शत्रु-मित्र आदि दिखायी ही नहीं देते; और हे माहाबाहो ! जब कोई साध्य ही नहीं है तो इन शाधनोंसे लेना ही क्या है ? ॥३६॥
हे तात ! सर्वभूतात्मक जगन्नाथ जगन्मय परमात्मा गोविन्दमें भला शत्रु-मित्रकी बात ही कहाँ है ? ॥३७॥
श्रीविष्णुभगवान् तो आपमें, मुझमें और अन्यत्र भी सभी जगह वर्तमान हैं ,फिर 'यह मेरा मित्र है और यह शत्रु है' ऐसे भेदभावको स्थान ही कहाँ है ? ॥३८॥
इसलिये, हे तात ! अविद्याजन्य दुष्कर्मोमें प्रवृत्त करनेवाले इस वाग्जालको सर्वथा छोड़कर अपने शुभके लिये ही यत्न करना चाहिये ॥३९॥
हे दैत्यराज ! अज्ञानके कारण ही मनुष्योंकी अविद्यामें विद्या-बुद्धि होती है । बालक क्या अज्ञानवश खद्योतको ही अग्नि नहीं समझ लेता ? ॥४०॥
कर्म अवही है जो बन्धनका कारण न हो और विद्या भी वही है जो मुक्तिकी साधिका हो । इसके अतिरिक्त और कर्म तो परिश्रमरूप तथा अन्य विद्याएँ कला-कौशलमात्र ही है ॥४१॥
हे महाभाग ! इस प्रकार इन सबको असार समझकर अब आपको प्रणाम कर मैं उत्तम सार बतलाता हूँ, आप श्रवण कीजिये ॥४२॥
राज्य पानेकी चिन्ता किसे नहीं होती और धनकी अभिलाषा भी किसको नहीं है ? तथापि ये दोनों मिलते उन्हीको हैं जिन्हें मिलनेवाले होते हैं ॥४३॥
हे महाभाग ! महत्त्व प्राप्तिके लिये सभी यत्न करते हैं, तथापि वैभवका कारण तो मनुष्यका भाग्य ही है, करते हैं तथापि वैभवका कारण तो मनुष्यका भाग्य ही है उद्यम नहीं ॥४४॥
हे प्रभो ! जड, अविवेकी, निर्बल और अनीतिज्ञोंकी भी भाग्यवश नाना प्रकारके भाग और राज्यादि प्राप्त होते हैं ॥४५॥
इसलिये जिसे महान् वैभवकी इच्छा हो उसे केवल पूण्यसत्र्चयका ही यत्न करना चाहिये; और जिसे मोक्षकी इच्छा हो उसे भी समत्वलाभका ही प्रयत्न करना चाहिये ॥४६॥
देव, मनुष्य, पशु, पक्षी, और सरीसृप ये सब भगवान विष्णूसे भिन्न से स्थित हुए भी वास्तवमें श्रीअनन्तके ही रूप हैं ॥४७॥
इस बातको जाननेवाला पुरुष सम्पूण चराचर जगतको आत्मवत देखे, क्योंकि यह सब विश्वरूपधारी भगवान् विष्णु ही हैं ॥४८॥
ऐसा जान लेनेपर वे अनादि परमेश्वर भगवान् अच्युत प्रसन्न होते हैं और उनके प्रसन्न होनेपर सभी क्लेश क्षीण हो जाते है ॥४९॥
श्रीपराशरजी बोले -
यह सुनकर हिरण्यकशिपुन्र क्रोधपूर्वक अपने राजसिंहासनसे उठकर हिरण्यकशिपुने वक्षःस्थलमें लात मारी ॥५०॥
और क्रोध तथा अमर्षसे जलते हुए मानो सम्पूर्ण संसारको मर डालेगा इस प्रकर हाथ मलता हुआ बोला ॥५१॥
हिरण्यकशिपुने कहा -
हे विप्रचित्ते ! हे रहो ! हे बल तुमलोग इसे भली प्रकार नागपाशसे बाँधकर महासागरमें डाल दो देरी मत करो ॥५२॥
नहीं तो सम्पूर्ण लोक और दैत्य दानव आदि भी इस मूढ दुरात्माके मतका ही अनुगमन करेंगे ( अर्थात इसकी तरह वे भी विष्णुभक्त हो जायँगे ) ॥।५३॥
हमने इस बहुतेरा रोका, तथापि यह दूष्ट शत्रुकी ही स्तुति किये जाता है । ठीक है, दुष्टोंको तो मार देना ही लाभदायक होता है ॥५४॥
श्रीपराशरजी बोले -
तब उन दैत्योंने अपने स्वामीकी आज्ञाको शिरोधार्य कर तुरन्त ही उन्हें नागपाशसे बाँधकर समुद्रमें डाल दिया ॥५५॥
उस समय प्रह्लादजीके हिलने डुलनेसे संम्पूर्ण महासागरमें हलचल मच गयी और अत्यन्त क्षोभके कारण उसमें सब और ऊँची-ऊँची लहरें उठने लगीं ॥५६॥
हे महामते ! उस महान् जल पूरसे सम्पूर्ण पृथिवीको डूबती देख हिरण्यकशिपुने दैत्योंसे इस प्रकार कहा ॥५७॥
हिरण्यकशिपु बोला -
अरे दैत्यो ! तुम इस दुर्मतिको इस समुद्रके भीतर ही किसी ओरसे खुला न रखकर सब ओरस सम्पूर्ण पर्वतोंसे दबा दो ॥५८॥
देखो, इसे न तो अग्निने जलाया, न यह शस्त्रोंसे कटा, न सर्पोंसे नष्ट हुआ और न वायु, विष और कृत्यासे ही क्षीण हुआ, तथा न यह मयाओंसे, ऊपरसे गिरानेसे अथवा दिग्गजोंसे ही मारा गया । यह बालक अत्यन्त दुष्ट चित्त है, अब इसके जीवनका कोई प्रयोजन नहीं है ॥५९-६०॥
अतः अब यह पर्वतोंसे लदा हुआ हजारों वर्षतक जलमें ही पड़ा रहे, इससे यह दुर्मति स्वयं ही प्राण छोड़ देगा ॥६१॥
तब दैत्य और दानवोंने उसे समुद्रमें ही पर्वतोसें ढँककर उसके ऊपर हजारों योजनका ढेर कर दिया ॥६२॥
उन महामतिने समुद्रमें पर्वतोंसे लाद दिये जानेपर अपने नित्यकर्मोंके समय एकाग्र चित्तसे श्रीअच्युतभगवान्‌की इस प्रकार स्तुति की ॥६३॥
प्रह्लादजी बोले -
हे कमलनयन ! आपको नमस्कार है ! हे पुरुषोत्तम ! आपको नमस्कार है । हे सर्वलोकात्मन ! आपको नमस्कार है । हे तीक्ष्णचक्रधारी प्रभो ! आपको बारम्बार नमस्कार है ॥६४॥
गो ब्राह्मण हितकारी ब्रह्मण्यदेव भगवान कृष्णको नमस्कार है । जगत्-हितकारी श्रीगोविन्दको बारम्बार नमस्कार है ॥६५॥
आप ब्रह्मारूपसे विश्वकी रचाना करते हैं, फिर उसके स्थित हो जानेपर विष्णुरुपसे पालन करते हैं, और अन्तमें रुद्ररूपसे संहार करते हैं - ऐसें त्रिमूर्तिधार आपको नमस्कार है ॥६६॥
हे अच्युत ! देव , यक्ष, असुर, सिद्ध, नाग, गन्धर्व, किन्नर, पिशाच, राक्षस, मनुष्य, पशु, पक्षी, स्थावर, पिपीलिका ( चींटी ), सरीसृप, पृथिवी, जल, अग्नि, आकाश, वायु शब्द, स्पर्श, रूप, रस गन्ध, मन, बुद्धि, आत्मा, काल और गुण इन सबके परमार्थिक रूप आप ही है, वास्तवमें आप ही ये सब हैं ॥६७-६९॥
आप ही विद्या और अविद्या, सत्य और असत्य तथा विष और अमृत हैं तथा आप ही वेदोक्त प्रवृत्त और निवृत्त कर्म हैं ॥७०॥
हे विष्णो ! आप ही समस्त कर्मोके भोक्ता और उनकी सामग्री हैं तथा सर्व कर्मोके जितने भी फल हैं वे सब भी आप ही है ॥७१॥
हे प्रभो ! मुझमें तथा अन्यत्र समस्त भूतों और भुवनोंमें आपहीके गुण और ऎश्वर्यकी सूचिका व्याप्ति हो रही है ॥७२॥
योगिगण आपहीका ध्यान धरते हैं और याज्ञिकगण आपहीका यजन करते हैं, तथा पितुगण और देवगणके रूपसे एक आप ही हव्य और कव्यके भोक्ता हैं ॥७३॥
हे ईश ! यह निखिल ब्रह्माण्ड ही आपका स्थूल रूप है, उससे सूक्ष्म यह संसार ( पृथिवीमण्डल ) है, उससे भी सूक्ष्म ये भिन्न भिन्न रूपधारी समस्त प्राणी है; उसमें भी जो अन्तरात्मा है वह और भी अत्यन्त सूक्ष्म है ॥७४॥
उससे भी परे जो सूक्ष्म आदि विशेषणोंका अविषय आपका कोई अचिन्त परमात्मस्वरूप है उन पुरुषोत्तमरूप आपको नमस्कार है ॥७५॥
हे सर्वात्पर ! समस्त भुतोंमें आपकी जो गुणाश्राय पराशक्ति है, हे सुरेश्वर ! उस नित्यस्वरूपिणीको नमस्कार है ॥७६॥
जोवा वाणी और मनके परे है, उस स्वतन्त्रा पराशक्तिकी मैं वन्दना करता परिच्छेद्य है उस स्वतन्त्रा पराशक्तिकी मैं वन्दना करता हूँ ॥७७॥
ॐ वन भगवान् वासुदेवको सदा नमस्कार है, जिनसे अतिरिक्ति और कोई वस्तु नहीं है तथा जो स्वयं सबसे अतिरिक्त ( असंग ) हैं ॥७८॥
जिनका कोई भी नाम अथवा रूप नहीं है और जो अपनी सत्तामात्रसे ही उपलब्ध होते है उन महात्माको नमस्कार है, नमस्कार है, नमस्कार है ॥७९॥
जिनके पर-स्वरुपको न जानते हुए ही देवतागण उनके अवतार-शरीरोंका सम्यक् अर्चन करते हैं उन महात्माको नमस्कार है ॥८०॥
जो ईश्वर सबके अन्तः करणोंमें स्थित होकर उनके शुभाशुभ कर्मोंको देखते है उन सर्वसाक्षी विश्वरूप परमेश्वरको मैं नमस्कार करता हूँ ॥८१॥
जिनसे यह जगत् सर्वथा अभिन्न है उन श्रीविष्णुभगवान्‌को नमस्कार है वे जगत्‌के आदिकारण और योगियोंके ध्येय अव्यय हरि मुझपर प्रसन्न हों ॥८२॥
जिनमें यह सम्पुर्ण विश्व ओतप्रोत है वे अक्षर, अव्यय और सबके आधारभूत हरि मुझपर प्रसन्न हों ॥८३॥
ॐ जिनमें सब कुछ स्थित है, जिनसे सब उत्पन्न हुआ है और जो स्वयं सब कुछ तथा सबके आधार हैं , उन श्रीविष्णुभगवान्को नमस्कार है, उन्हें बारम्बार नमस्कार है ॥८४॥
भगवान् अनन्त सर्वगामी हैं; अतः वे ही मेरे रूपसे स्थित हैं, इसलिये यह सम्पूर्ण जगत् मुझहीसे हुआ है, मैं ही यह सब कुछ हूँ और मुझ सनातनमें ही यह सब स्थित है ॥८५॥
मैं ही अक्षय, नित्य और आत्माधार परमात्मा हूँ; तथा मैं हि जगत्‌के आदि और अन्तमें स्थित ब्रह्मसंज्ञाक परमपुरुष हूँ ॥८६॥
इति श्रीविष्णुपुराणे प्रथमेंऽशे एकोनविंशतितमोऽध्यायः ॥१९॥
श्रीपराशरजी बोले-
हे द्विज ! इस प्रकर भगवान् विष्णुको अपनेसे अभिन्न चिन्तन करते करते पूर्ण तन्मयता प्राप्त हो जानेसे उन्होंने अपनेको अच्यतु रूप ही अनुभव किया ॥१॥
वे अपने आपको भूल गये; उस समय उन्हें श्रीविष्णुभगवान्‌के अतिरिक्ति और कुछ भी प्रतीत न होता था । बस केवल यही भावना चिन्तमें थी कि मैं ही अव्यय और अनन्त परमात्मा हूँ ॥२॥
उस भावनाके योगसे वे क्षीण पाप हो गये और उनके शुद्ध अन्तः करणमें ज्ञानस्वरूप अच्युत श्रीविष्णुभगवान् विराजमान हुए ॥३॥
हे मैत्रेय ! इस प्रकार योगबलसे असुर प्रह्लादजीके विष्णुमय हो जानेपर उनके विचालित होनेसे वे नागपाश एक क्षणभरमें ही टुट गये ॥४॥
भ्रमणशील ग्राहगण और तरलतंगोंसे पूर्ण सम्पूर्ण महासागर क्षुब्ध हो गया, तथा पर्वत और वनोपवनोंसे पूर्ण समस्त पृथिवी हिलने लगी ॥५॥
तथा महामति प्रह्लादजी अपने ऊपर दैत्योंद्वारा लादे गये उस सम्पूर्ण पर्वत समुहको दूर फेंककर जलसे बाहर निकल आये ॥६॥
तब आकाशादिरुप जगत्‌को फिर देखकर उन्हें चित्तमें यह पुनः भान हुआ कि मैं प्रह्लद हूँ ॥७॥
और उन महाबुद्धिमानने मन, वाणी और शरीरके सयंमपूर्वक धैर्य धारणकर एकाग्र-चित्तसे पुनः भगवान् अनादि पुरुषोत्तमकी स्तुति की ॥८॥
प्रह्लादजी कहने लगे - हे परमार्थ ! हे अर्थ ( दुश्यरूप ) ! हे स्थूलसुक्ष्म ( जगत् - स्वप्रदृश्य स्वरुप ) ! हे क्षराक्षर ( कार्य-कारणरूप ) हे व्यक्ताव्यक्त ( दृश्यादृश्यस्वरूप ) ! हे कलातीत ! हे सकलेश्वर ! हे निरज्त्रन देव ! आपको नमस्कार है ॥९॥
हे गुणोंको अनुरत्र्जित करनेवाले ! हे गुणाधार ! हे निर्गुणात्मन ! हे गुणास्थित ! हे मूर्त और अमूर्तरूप महामूर्तिमान ! हे सूक्ष्ममूतें ! हे प्रकाशाप्रकाशस्वरूप ! ( आपको नमस्कार है ) ॥१०॥
हे विकराल और सुन्दररूप ! हे विद्या और अविद्यामय अच्युत ! हे सदसत् ( कार्यकारण ) रूप जगत्‌के उद्भवस्थान और सदसज्जगत्‌के पालक ! ( आपके नमस्कार है ) ॥११॥
हे नित्यानित्य ( आकाशघटादिरूप ) प्रपत्र्चात्मन् ! हे प्रपत्र्चसे पृथक् रहनेवाले हे ज्ञानियोंके आश्रयत्मन ! हे एकानेकरूप आदिंकारण वासुदेव ! ( आपको नमस्कार है ) ॥१२॥
जो स्थुल - सुक्ष्मरुप और स्फूट प्रकाशमय हैं, जो अधिष्ठानरूपसे सर्वभूतस्वरूप तथापि वस्तुतः सम्पूर्ण भुतादिसे परे हैं, विश्वके कारण न होनेपर भी जिनसे यह समस्त विश्व उप्तन्न हुआ है; उन पुरूषोत्तम भगवान्को नमस्कार है ॥१३॥
श्रीपराशरजी बोले -
उनके इस प्रकार तन्मयतापूर्वक स्तुति करनेपर पीताम्बरधारी देवाधिदेव भगवान् हरि प्रकट हुए ॥१४॥
हे द्विज ! उन्हें सहसा प्रकट हुए देख वे खडे़ हो गये और गद्गद वाणीसे 'विष्णुभगवान्‌को नमस्कार है ! विष्णुभगवान्‌को नमस्कार है !' ऐसा बारम्बार कहने लगे ॥१५॥
प्रह्लादजी बोले -
हे शरणागत - दुःखहारी श्रीकेशवदेव ! प्रसन्न होइये । हे अच्युत ! अपने पुण्य दर्शनोंसे मुझे फिर भी पवित्र कीजिये ॥१६॥
श्रीभगवान बोले -
हे प्रह्लाद ! मैं तेरी अनन्यभक्तिसे अति प्रसन्न हूँ; तुझे जिस वरकी इच्छा हो माँगे ले ॥१७॥
प्रह्लादजी बोले - हे नाथ ! सहस्त्रों योनियोंमेसे मैं जिस-जिसमें भी जाऊँ उसी उसीमें, हे अच्युत ! आपमें मेरी सर्वदा अक्षुण्ण भक्ति रहे ॥१८॥
अविवेकी पुरुषोंकी विषयोंमें जैसी अविचल प्रीति होती है वैसी ही आपका स्मरण करते हुए मेरे हॄदयसे कभी दूर न हो ॥१९॥
श्रीभगवान बोले -
हे प्रह्लाद ! मुझमें तो तेरी भक्ति है ही और आगे भी ऐसी ही रहेगी; किन्तु इसके अतिरिक्त भी तुझे और जिस वरकी इच्छा हो मुझसे माँग ले ॥२०॥
प्रह्लादजी बोले - हे देव ! आपकी स्तुतिमें प्रवृत्त होनेसे मेरे पिताके चित्तमें मेरे प्रति जो द्वेष हुआ हैं उन्हें उससे जो पाप लगा है वह नष्ट हो जाय ॥२१॥
इसके अतिरिक्त ( उनकी आज्ञासे ) मेरे शरीरपर जो शस्त्राघात किये गये - मुझे अग्निसमूहमें डाला गया, सर्पोंसे कटवया गया, भोजनमें विष दिया गया, बाँधकर समुद्रसे डाला गया, शिलाओंसे दबाया गया तथा और भी जो- जो दर्व्यवहार पिताजीने मेरे साथ किये हैं, वे सब आपमें भक्ति रखनेवाले पुरुषके प्रति द्वेष होनेसे, उन्हें उनके कारण जो पाप लगा है, हे प्रभो ! आपकी कृपासे मेरे पिता उससे शीघ्र ही मुक्त हो जायँ ॥२२-२४॥
श्रीभगवान् बोले - हे प्रह्लाद ! मेरी कृपासे तुम्हारी ये सब इच्छाएँ पूर्ण होंगी । हे असुरकुमार ! मैं तुमको एक वर और भी देता हूँ, तुम्हें जो इच्छा हो माँग लो ॥२५॥
प्रह्लादजी बोले - हे भगवान् ! मैं तो आपके इस वरसे ही कृतकृत्य हो गया कि आपकी कृपासे आपमें मेरी निरन्तर अविचल भक्ति रहेगी ॥२६॥
हे प्रभो ! सम्पूर्ण जगत्‌के करणरूप आपमें जिसकी निश्चल भक्ति है, मुक्ति भी उसकी मुट्ठीमें रहती है, फिर धर्म, अर्थ कामसे तो उसे लेना ही क्या है ? ॥२७॥
श्रीभगवान बोले -
हे प्रह्लाद ! मेरी भक्तिसे युक्त तेरा चित्त जैसा निश्चल है उसके कारण तू मेरी कृपासे परम निर्वाणपद प्राप्त करेगा ॥२८॥
श्रीपराशरजी बोले -
हे मैत्रेय ! ऐसा कह भगवान उनके देखते - देखते अन्तर्धान हो गये, और उन्होंने भी फिर आकर अपने पिताके चरणोंकी वन्दना की ॥२९॥
हे द्विज ! तब पिता हिरण्यकशिपुने, जिसे नाना प्रकारसे पीडित किया था उस पुत्रका सिर सूँघकर, आँखोंमें आँसू भरकर कहा - 'बेटा, जीता तो है !' ॥३०॥
वह महान् असुर अपने कियेपर पछताकर फिर प्रह्लादसे प्रेम करने लगा और इसी प्रकार धर्मज्ञ प्रह्लादजी भी अपने गुरु और माता पिताकी सेवा-शुश्रुषा करने लगे ॥३१॥
हे मैत्रेय ! तदनन्तर नृसिंहरूपधारी भगवान् विष्णुद्वारा पिताके मारे जानेपर वे दैत्योंके राजा हुए ॥३२॥
हे द्विज ! फिर प्रारब्धक्षयकारिणी राज्यलक्ष्मी, बहुत-से-पुत्र-पौत्रादि तथा परम ऐश्वर्य पाकर, कर्माधिकारके क्षीण होनेपर पुण्य पापसे रहित हो भगवान्‌का ध्यान करती हुए उन्होंने परम निर्वाणपद प्राप्त किया ॥३३-३४॥
हे मैत्रिय ! जिनके विषयमें तुमने पूच्छा था वे परम भरवद्धक्त महामति दैत्यप्रवर प्रह्लादजी ऐसे प्रभावशाली हुए ॥३५॥
उन महात्मा प्रह्लादजीके इस चरित्रको जो पुरुष सुनता है उसके पाप शीघ्र ही नष्ट हो जाते हैं ॥३६॥
हे मैत्रेय ! इसमें सन्देह नहीं कि मनुष्य प्रह्लाद-चरित्रके सुनने या पढ़नेसे दिन-रातके ( निरन्तर ) किये हुए पापसे अवश्य छूट जाता है ॥३७॥
हे द्विज ! पूर्णिमा, अमावस्या, अष्टमी अथवा द्वादशीको इसे पढंनेसे मनुष्यको गोदानका फल मिलता है ॥३८॥
जिस प्रकार भगवान्‌ने प्रह्लादजीकी सम्पूर्ण आपत्तियोंसे रक्षा की थी उसी प्रकार वे सर्वदा उसकी भी रक्षा करते हैं जो उनका चरित्र सुनता हैं ॥३९॥
इति श्रीविष्णुपुराणे प्रथमेंऽशें विंशोऽध्यायः ॥२०॥
श्रीपराहरजी बोले -
संह्लादके पुत्र आयुष्मान शिबि और बाल्कल थे तथा प्रह्लादके पुत्र विरोचन थे और विरोचनसे बलिका जन्म हुआ ॥१॥
हे महामुने ! बलिके सौ पुत्र थे जिनमें बाणासुर सबसे बड़ा था । हिरण्याक्षके पुत्र उत्कुर, शकुनि, भूतसन्तापन, महानाभ, महाबाहु तथा कालनाथ आदि सभी महाबलवान् थे ॥२-३॥
( कश्यपजीकी एक दुसरी स्त्री ) दनुके पुत्र द्विमूर्धा शम्बर, अयोमुख, शंकुशिरा, कपिल, शंकर, एकचक्र महाबाहु, तारक, महाबल, स्वर्भानु, वृषपर्वा, महाबली पुलोम और परमपराक्रमी विप्रचित थे । ये सब दनुके पुत्र विख्यात हैं ॥४-६॥
स्वर्भानुकी कन्या प्रभा थी तथा शर्मिष्ठा, उपदानी और हयशिरा- ये वृषपर्वाकी परम सुन्दरी कन्याएँ विख्यात हैं ॥७॥
वैश्वानरकी पुलोमा और कालका दो पुत्रियाँ थीं । हे महाभाग ! वे दोनों कन्याएँ मरीचिनन्दन कश्यपजीकी भार्या हुईं ॥८॥
उनके पुत्र साठ हजार दानव श्रेष्ठ हुए । मरिचिनन्दन कश्यपजीके वे सभी पुत्र पौलोम और कालकेय कहलाये ॥९॥
इनके सिवा विप्रचित्तिके सिंहिकाके गर्भसे और भी बहुत से महाबलवान् , भयंकर और अतिक्रूर पुत्र उत्पन्न हुए ॥१०॥
वे व्यंश, शल्य, बलवान् नभ, महाबली वातापी, नमुचि, इल्वल, खसृम , अन्धक, नरक, कालनाभ , महावीर, स्वर्भानु और महादैत्य वक्त्र योधी थे ॥११-१२॥
ये सब दानवश्रेष्ठ दनुके वंशको बढ़ानेवाले थे । इनके और भी सैकड़ो हजारों पुत्र-पौत्रादि हुए ॥१३॥
महान् तपस्याद्वारा आत्मज्ञानसम्पन्न दैत्यवर प्रह्लादजीके कुलमें निवातकवच नामक दैत्य उप्तन्न हुए ॥१४॥
कश्यपजीकी स्त्री ताम्राकी शुकी, श्येनी , भासी सुग्रीवी, शुचि और गृद्‌ध्रिका - ये छः अति प्रभावशालिनी कन्याएँ कही जाती हैं ॥१५॥
शुकीसे शुक उलूक एवं उलूकोंके प्रतिपक्षी काक आदि उप्तन्न हुए तथा श्येनीसे श्येन ( बाज ) , भासीसे भास और गृदिध्रकासे गृद्धोंका जन्म हुआ ॥१६॥
शुचिसे जलके पक्षिगण और सुग्रीवीसे अश्व, उष्ट्र और गर्दभोंकी उप्तत्ति हुई । इस प्रकार यह ताम्राका वंश कहा जाता है ॥१७॥
विनताके गरुड और अरुण ये दो पुत्र विख्यात हैं । इनमें पक्षियोंमें श्रेष्ठ सुपर्ण ( गरुडजी ) अति भयंकर और सर्पोंको खानेवाले हैं ॥१८॥
हे ब्रह्मन ! सुरसारे सहस्त्रों सर्प उत्पन्न हुए जो बड़े प्रभावशाली, आकाशमें विचरनेवाले, अनेक शिरोंवाले और बड़े विशालकाय थे ॥१९॥
और कद्रुके पुत्र भी महाबली और अमित तेजस्वी अनेक सिरवाले सहस्त्रों सर्प ही हुए जो गरुडजीके वशवर्ती थे ॥२०॥
उनमेंसे शेष, वासुकि, तक्षक शंखश्वेत, महापद्म, कम्बल, अश्वतर, एलापुत्र, नाग, कर्कोटक, धनत्रय तथा और भी अनुकों उग्र विषधर एवं काटनेवाले सर्प प्रधान हैं ॥२१-२२॥
क्रोधवशाके पुत्र क्रोधवशगण हैं । वे सभी बड़ी-बडी़ दाढोंवाले, भयंकर और कच्चा मांस खानेवाले जलचर, स्थलचर एवं पक्षिगण हैं ॥२३॥
महाबली पिशाचोंको भी क्रोधाने ही जन्म दिया है । सुरभिसे गौ और महिष आदिकी उप्तत्ति हुई तथ इरासे वृक्ष, लता, बेल, और सब प्रकरके तृण उप्तन्न हुए हैं ॥२४॥
खसाने यक्ष और राक्षसोंको , मुनिने अप्सराओंको तथा अरिष्टाने अति समर्थ गन्धर्वोंको जन्म दिया ॥२५॥
ये सब स्थावर, जंगम कश्यपजीकी सन्तान हुए । इनके और भी सैकड़ो-हजारों पुत्र-पौत्रादि हुए ॥२६॥
हे ब्रह्मन ! यह स्वारोचिष - मन्वन्तरकी सृष्टिका वर्णन कहा जाता हैं ॥२७॥
वैवस्वत-मन्वन्तरके आरम्भमें महान् वारुण यज्ञ हुआ, उसमें ब्रह्माजी होता थे, अब मैं उनकी प्रजाका वर्णन करता हूँ ॥२८॥
हे साधुश्रेष्ठ ! पूर्व मन्वन्तरमें ! पूर्व मन्वन्तरमें जो सप्तार्षिगण स्वयं ब्रह्माजीके मानसपुत्ररूपसे उप्तन्न हुए थे , उन्हीकों ब्रह्माजीने इस कल्पमें गन्धर्व, नाग देव और दान्वादिके पितृरूपसे निश्चित किया ॥२९॥
पुत्रोंके नष्ट हो जानेपर दितिने कश्यपजीको प्रसन्न किया । उसकी सम्यक् आराधनासे सन्तुष्ट हो तपस्वियोंमें श्रेष्ठ कश्यपजीने उसे वर देकर प्रसन्न किया । उस समय उसने इन्द्रके वध करनेमें समर्थ एक अति तेजस्वी पुत्रका वर माँगा ॥३०-३१॥
मुनिश्रेष्ठ कश्यपजीने अपनी भार्या दितिको वह वर दिया और उस अति उग्र वरको देते हुए वे उससें बोले - ॥३२॥
"यदि तुम भगवान्‌के ध्यानमें तत्पर रहकर अपना गर्भ शौच * और संयमपूर्वक सौ वर्षतक धारण कर सकोगी तो तुम्हारा पुत्र इन्द्रको मारनेवाला होगा " ॥३३॥
ऐसा कहकर मुनि कश्यपजीने उस देवीसे संगमन किया और उसने बडे़ शौचपूर्वक रहते हुए वह गर्भ धारण किया ॥३४॥
उस गर्भको अपने वधका कारण जान देवराज इन्द्र भी विनयपूर्वक उसकी सेवा करनेके लिये आ गये ॥३५॥
उसके शौचादिमें कभी कोई अन्तर पड़े - यहीं देखनेकी इच्छासे इन्द्र वहाँ हर समय उपस्थित रहते थे । अन्तमें सौ वर्षमें कुछ हे कमी रहनेपर उन्होंने एक अन्तर देख ही लिया ॥३६॥
एक दिन दिति बिना चरणशुद्धि किये हो अपनी शय्यापर लेट गयी । उस समय निद्राने उसे घेर लिया । तब इन्द्र हाथमें वज्र लेकर उसकी कुक्षिमें घुस गये और उस महागर्भके सात टुकडे़ कर डाले । इस प्रकार वज्रसे पीडित होनेसे वह गर्भ जोर-जोरसे रोने लगा ॥३७-३८॥
इन्द्रने उससे पुनःपुनः कहा कि 'मत रो' । किन्तु जब वह गर्भ सात भागोंमें विभक्त हो गया, ( और फिर भी न मरा ) तो इन्द्रने अत्यन्त कुपित हो अपने शत्रु विनाशक वज्रसे एक-एकके सात-सात टुकडे़ और कर दिये । वे ही अति वेगवान् मरुत नामक देवता हुए ॥३९-४०॥
भगवान् इन्द्रने जो उससे नामक देवता हुए रोदीः' ( मत रो ) इसीलिये वे मरूत कहलाये । ये उनचास मरुद्नण इन्द्रके सहायक देवता हुए ॥४१॥
इति श्रीविष्णुपुराणे प्रथमेंऽशे एकविंशोऽध्यायः ॥२१॥
* शौच आदि नियम मत्स्यपुराणमें इस प्रकार बतलाये गये है - 'सन्धायां नैव भोक्तव्यं गर्भिण्या वरवर्णिनि । न स्थातव्यं न गन्तव्यं वृक्षमूलेषु सर्वदा ॥ वर्जयेत् कलहँ लोके गात्रभंग तथैव च नोन्मुक्तकेशी तिष्ठेच्च नाशुचिः स्यात् कदाचन ॥ हे सुन्दरि ! गर्भिणी स्त्रीको चाहिये कि सायंकालमें भोजन न करे, वृक्षोंके नीचे न जाय और न वहाँ ठहरे ही तथा लोगोंके साथ कलह और अँगाई लेना छोड़ दे, कभी केश खुला न रखे और न अपवित्र ही रहे । तथा भागवतमें भी कहा है - 'न हिंस्यात्सर्वभूतानि न शपेन्नानृतं वदेत्' इत्यादि । अर्थात् प्राणियोंकी हिंसा न करे किसीको बुरा-भला न कहे और कभी झूठ न बोले ।
श्रीपराशरजी बोले -
पूर्वकालमें महर्षियोंने जब महाराज पृथुको राज्यपदपर अभिषिक्त किया तो लो-पितामह श्रीब्रह्माजीने भी क्रमसे राज्योंका बैटवारा किया ॥१॥
ब्रह्माजीने नक्षत्र, ग्रह, ब्राह्मण, सम्पूर्ण, वनस्पति और यज्ञ तथा तप आदिके राज्यपर चन्द्रमाको नियुक्त किया ॥२॥
इसी प्रकार विश्रवाके पुत्र कुबेरजीको राजाओंका, वरूणको जलोंका, विष्णुको आदित्योंका और अग्निको वसुगुणोंका अधिपति बनाया ॥३॥
दक्षको प्रजापतियोंका, इन्द्रको मरुद्गणका तथा प्रह्लादजीको दैत्य और दानवोंका आधिपत्य दिया ॥४॥
पितृगणके राज्यपदपर धर्मराज यमको अभिषित्व किया और सम्पूर्ण गजराजोंका स्वामित्व ऐरावतको दिया ॥५॥
गरुडको पक्षियोंका, इन्द्रको देवताओंका, उच्चेःश्रवाको घोड़ोंका और वृषभको गौओंका अधिपति बनाया ॥६॥
प्रभु ब्रह्माजीने समस्त मृगों ( वन्यपशुओं ) का राज्य सिंहको दिया और सर्पोंका स्वामी शेषनागको बनाया ॥७॥
स्थवरोंका स्वामी हिमालयको, मुनिजनोंका कपिलदेवजीको और नख तथा दाढ़्वाले मृगगणका राजा व्याघ्र ( बाघ ) को बनाया ॥८॥
तथा प्लक्श ( पाकर ) को वनस्पतियोंका राजा किया । इसी प्रकार ब्रह्माजीने और-और जातियोंके प्राधान्यकी भी व्यवस्था की ॥९॥
इस प्रकार राज्योंका विभार करनेके अनन्तर प्रजापतियोंके स्वामी ब्रह्माजीने सब और दिक्पालोंकी स्थापना की ॥१०॥
उन्होंने पूर्व - दिशामें वैराज प्रजापतियोंके पुत्र राजा सुधन्वाको दिक्पालपदपर अभिषिक्त किया ॥११॥
तथा दक्षिण-दिशामें कर्दम प्रजापतिके पुत्र राजा शंखपदकी नियुक्ति की ॥१२॥
कभी च्युत न होनेवाले रजसपुत्र महात्मा केतुमान्‌को उन्होंने पश्चिमदिशामें स्थापित किया ॥१३॥
और पर्जन्य प्रजापतिके पुत्र अति दुर्द्धर्ष राजा हिरण्यरोमाको उत्तर दिशामं अभिषिक्त किया ॥१४॥
वे आजतक सात द्विप और अनेकों नगरोंसे युक्त इस सम्पूर्ण पृथिवीका अपने-अपने विभागानुसार धर्मपूर्वक पालन करते हैं ॥१५॥
हे मुनिसत्तम ! ये तथा अन्य भी जी सम्पूर्ण राजालोग हैं वे सभी विश्वके पालनमें प्रवृत्त परमात्मा श्रीविष्णुभगवान्‌के विभूतिरूप हैं ॥१६॥
हे द्विजोत्तम जो-जो भूताधिपति पहले हो गये हैं और जो-जो आगे होंगे वे सभी सर्वभूत भगवान् विष्णुके अंश हैं ॥१७॥
जो-जो भी देवताओं, दैत्यों, दानवों और मांसभोजियोके अधिपति हैं, जो-जो पशुओं, पक्षियों, मनुष्यों, सर्पों और नागोंके अधिनायक हैं, जो - जो वृक्षों, पर्वतों और ग्रहोंके स्वामी हैं तथा और भी भूत, भविष्यत एवं वर्तमानकालीन जितने भूतेश्वर हैं वे सभी सर्वभूत भगवान् विष्णुके अंशसे उप्तन्न हुए हैं ॥१८-२०॥
हे महाप्राज्ञ ! सृष्टिके पालन कार्यमे प्रवृत्त सर्वेश्र्वर श्रीहरिको छोड़्कर और किसीमें भी पालन करनेकी शक्ति नहीं है ॥२१॥
रजः और सत्वादिगुणोके आश्रयसे वे सनातन प्रभु ही जगत्‌की रचनाके समय रचना करते हैं, स्थितिके समय पालन करते है और अन्तसमयमें कालरूपसे संहार करते हैं ॥२२॥
वे जानार्दन चार विभागसे सृष्टिके और चार विभागसे ही स्थितिके समय रहते हैं तथा चार रुप धारण करके ही अन्तमें प्रलय करते हैं ॥२३॥
एक अंशसे वे अव्यक्तस्वरूप ब्रह्मा होते है, दुसरे अंशसे मरीचि आदि प्रजापति होतें हैं, उनका तीसरा अंश काल है और चौथा सम्पूर्ण प्राणी । इस प्रकार वे रजोगुणविशिष्ट होकर चार प्रकारसे सृष्टिके समय स्थित होते हैं ॥२४-२५॥
फिर वे पुरुषोत्तम सत्त्वगुणका आश्रय लेकर जगत्‌की स्थिति करते हैं । उस समय वे एक अंशसे विष्णु होकर पालन करते हैं, दुसरें अंशसे मनु आदि होते हैं तथा तीसरे अंशरे काल और चौथेसे सर्वभूतोंसे स्थित होते हैं ॥२६-२७॥
तथा अन्तकालमें वे अजन्मा भगवान् तमोगुणकी वृत्तिका आश्रय ले एक अंशसे रुद्ररूप, दुसरे भागसे अग्नि और अन्तकादि रूप, तीसरेसे कालरूप और चौथेसे सम्पूर्ण भूतस्वरूप हो जाते हैं ॥२८-२९॥
हे ब्रह्मन ! विनाश करनेके लिये उन महात्माकी यह चार प्रकारकी सार्वकालिका विभागकल्पना कही जाती है ॥३०॥
ब्रह्मा, दक्ष आदि प्रजापतिगण, काल तथा समस्त प्राणी - ये श्रीहरिकी विभूतियाँ जगत्‌की सृष्टिकी कारण हैं ॥३१॥
हे द्विज ! विष्णु, मनु, आदि, काल और समस्त भूतगण - ये जगत्‌की स्थितिके कारणरूप भगवान् विष्णुकी विभुतियाँ हैं ॥३२॥
तथा रुद्र, काल, अन्तकादि और सकल जीव - श्रीजनार्दनकी ये चार विभूतियाँ प्रलयकी कारणरूप है ॥३३॥
हे द्विज ! जगत्‌के आदि और मध्यमें तथा प्रलय पर्यन्त भी ब्रह्मा, मरीचि आदि तथा भिन्न-भिन्न जीवोंसे ही सृष्टि हुआ करती है ॥३४॥
सृष्टिके आरम्भमें पहले ब्रह्माजी रचना करते हैं, फिर मरीचि आदि प्रजापतिगण और तदनन्तर समस्त जीव क्षण-क्षणमें सन्तान उत्पन्न करते रहते हैं ॥३५॥
हे द्विज ! कालके बिना ब्रह्मा, प्रजापति एवं अन्य समस्त प्राणी भी सृष्टि रचना नहीं कर सकते ( अतः भगवान् कालरूप विष्ण ही सर्वदा सृष्टिके कारण है )
॥३६॥
है मैत्रेय ! इसी प्रकार जगत्‌की स्थिति और प्रलयमें भी उन देवदेवके चार-चार विभाग बताये जाते हैं ॥३७॥
हे द्विज ! जिस किसी जीवद्वारा जो कुछ भी रचना की जाती है उस उप्तन्न हुए जीवकी उप्तत्तिमें सर्वथा श्रीहरिका शरीर ही कारण हैं ॥३८॥
हे मैत्रेय ! इसी प्रकार जो कोई स्थावर-जंगम भूतोंमेंसे किसीको नष्ट करता है, वह नाश करनेवाला भी श्रीजनार्दनका अन्तकारण रौद्ररूप ही है ।\३९॥
इस प्रकर वे जानार्दनदेव ही समस्त संसारके रचयिता, पालनकर्त्ता और संहारक हैं तथा वे ही स्वयं जगत् - रूप भी हैं ॥४०॥
जगत्‌की उप्तत्ति, स्थिति और अन्तके समय वे इसी प्रकार तीनों गुणोकी प्रेरणासे प्रवृत्त होते हैं, तथापि उनका परमपद महान् निर्गुण है ॥४१॥
परमात्माका वह स्वरूप ज्ञानमय, व्यापक, स्वसंवेद्य ( स्वयं - प्रकाश ) और अनुपम है तथा वह भी चार प्रकारका ही है ॥४२॥
श्रीमैत्रेयजी बोले -
हे मुने ! आपने जो भगवान्‌का परम पद कहा, वह चार प्रकारका कैसे है ? यह आप मुझसे विधिपूर्वक कहिये ॥४३॥
श्रीपराशरजी बोले -
हे मैत्रेय ! सब वस्तुओंका जो कारण होता है वह उनका साधन भी होता है और जिस अपनी अभिमत वस्तुकी सिद्धि की जाती है वही साध्य कहलाती है ॥४४॥
मुक्तिकी इच्छावाले योगिजनोंके लिये प्राणायाम आदि साधन हैं और परब्रह्मा ही साध्य है, जहाँसे फिट लौटना नहीं पड़ना ॥४५॥
हे मुने ! जो योगीकी मुक्तिक कारण है, वह 'साधनालम्बन - ज्ञान ' ही उस ब्रह्माभूत परमपदका प्रथम भेद है * ॥४६॥
क्लेश-बन्धनसे मुक्त होनेके लिये योगाभ्यासी योगीका साध्यरूप जो ब्रह्मा है, हे महामुने ! उसका ज्ञान ही 'आलम्बन-विज्ञान' नामक दुसरा भेद है ॥४७॥
इन दोनों साध्य-साधनोंका अभेदपूर्वक जो 'अद्वैतमय ज्ञान' है उसीको मैं तीसरा भेद कहता हूँ ॥४८॥
और हे महामुने ! उक्त तीनों प्रकारके ज्ञानकी विशेषताका निराकरण करनेपर अनुभव हुए आत्मस्वरूपके समान ज्ञानस्वरूप भगवान् विष्णूका जो निर्व्यापार अनिर्वचनीय, व्याप्तिमात्र, अनुपम, आत्मबोधस्वरूप, सत्तामत्र, अलक्षण, शान्त, अभय, शुद्ध, भावनातील और आश्रयहीन रूप है, वह 'ब्रह्मा' नामक ज्ञान ( उसका चौथा भेद ) है ॥४९-५१॥
द्विज ! जो योगिजन अन्य ज्ञानोंका निरोधकर इस ( चौथे भेद ) में ही लीन हो जाते हैं वे इस संसार-क्षेत्रके भीतर बीजारोपररूप कर्म करनेमें निर्बीज ( वासनारहित ) होते हैं । ( अर्थात वे लोकसंग्रहके लिये कर्म करते भी रहते है तो भी उन्हें उन कर्मोंका कोई पाप-पुण्यरूप फल प्राप्त नहीं होता ) ॥५२॥
इस प्रकरका वह निर्मल, नित्य, व्यापक, अक्षय और समस्त हेय गुणोंसे रहित विष्णू नामक परमपद है ॥५३॥
पुण्य पापका क्षय और क्लेशोंकी निवृत्ति होनेपर जो अत्यन्त निर्मल हो जाता है वही योगी उस परब्रह्मका आश्रय लेता है जहाँसे वह फिर नहीं लौटता ॥५४॥
उस ब्रह्माकी मूर्त और अमूर्त दो रूप हैं, जो क्षर और अक्षररूपसे समस्त प्राणियोंमें स्थित हैं ॥५५॥
अक्षर ही वह परब्रह्म है और क्षर सम्पूर्ण जगत् है । जिस प्रकार एकदेशीय अग्निका प्रकाश सर्वत्र फैला रहता है उसी प्रकार यह सम्पूर्ण जगत परब्रह्माकी ही शक्ति है ॥५६॥
हे मैत्रेय ! अग्निकी निकटता और दूरताके भेदसे जिस प्रकार उसके प्रकाशमें भी अधिकता और न्यूनताका भेद रहता है उसी प्रकार ब्रह्माकी शक्तिमें भी तारतम्य है ॥५७॥
हे ब्रह्मन् ! ब्रह्म, विष्णू और शिव ब्रह्मकी प्रधान शक्तियाँ हैं, उससे न्यून देवगण हैं तथा उनके अनन्तर दक्ष आदि प्रजापतिगण हैं ॥५८॥
उनसे भी न्युन मनुष्य, पशु, पक्षी, मॄग और सरीसृपादि हैं तथा उनसे भी अत्यन्त न्यून वृक्ष, गुल्म और लता आदि है ॥५९॥
अतः हे मुनिवर ! आविर्भाव ( उप्तन्न होना ) तिरोभाव ( छिप जाना ) जन्म और नाश आदि विकल्पयुक्त भी यह सम्पूर्ण जगत् वास्तवमें नित्य और अक्षय ही है ॥६०॥
सर्वशक्तिमय विष्णु ही ब्रह्मके पर-स्वरूप तथा मूर्तरूप हैं, जिनका योगिजन योगारम्भके पूर्व चिन्तन करते हैं ॥६१॥
हे मुने ! जिनमें मनको सम्यक् प्रकारसे निरन्तर एकाग्र करनेवालोंको आलम्बनयुक्त सबीज ( सम्र्पज्ञात ) महायोगकी प्राप्ति होती है, हे महाभाग ! हे सर्वब्रह्मामय श्रीविष्णुभगवान् समस्त पर शक्तियोंमें प्रधान और ब्रह्माके अत्यन्त निकटवर्तीं मूर्त-ब्रह्मास्वरूप हैं ॥६२-६३॥
हे मुने ! उन्हीमें यह सम्पूर्ण जगत् ओतप्रोत है, उन्हीसें उप्तन्न हुआ है, उन्हीमें स्थित है और स्वयं वे ही समस्त जगत् हैं ॥६४॥
क्षराक्षरमय ( कार्य - कारण - रूप ) ईश्वर विष्णु ही इस पुरुष - प्रकृतिमय सम्पूर्ण जगत्‌को अपने आभूषण और आयूधरूपसे धारण करते हैं ॥६५॥
श्रीमैत्रेयजी बोले -
भगवान् विष्णू इस संसारको भूषण और आयुधरूपसे किस प्रकार धारण करते हैं यह आप मुझसे कहिये ॥६६॥
श्रीपराशरजी बोले -
हे मुने ! जगत्‌का पालन करनेवाले अप्रमेय श्रीविष्णुभगवान्‌को नमस्कार कर अब मैं, जिस प्रकार वसिष्ठजीने मुझसे कहा था वह तुम्हें सुनाता हूँ ॥६७॥
इस जगत्‌के निर्लेप तथा निर्गुण और निर्मल आत्माको अर्थात शुद्ध क्षेत्रज्ञ - स्वरूपको श्रीहरि कौस्तुभमणिरूपसे धारण करते हैं ॥६८॥
श्रीअनन्तने प्रधानको श्रीवत्सरूपसे आश्रय दिया है और बुद्धि श्रीमाधवकी गदारूपसे स्थित है ॥६९॥
भूतोंके कारण तामस अहंकार और इन्द्रियोंके कारण राजस अंहकार इन दोनोंको वे शंख और शांर्ग, धनुष्यरूपसे धारण करते हैं ॥७०॥
अपने वेगसे पवनको भी पराजित करनेवाला अत्यन्त चत्र्चल , सात्विक अहंकाररूप मन श्रीविष्णु-भगवान्‌के कर कमलोंमें स्थित चक्रका रूप धारण करता है ॥७१॥
हे द्विज ! भगवान् गदाधरकी जो ( मुक्ति, माणिक्य, मरकत, इन्द्रनील और हीरकमयी ) पत्र्चरूपा वैजयन्ती माला है वह पत्र्चतन्मात्राओं और पत्र्चभूतोंका हे संघात है ॥७२॥
जो ज्ञान और कर्ममयी इन्द्रियाँ हैं उन सबको श्रीजनार्दन भगवान् बाणरूपसे धारण करते हैं ॥७३॥
भगवान् अच्युत जो अत्यन्त निर्मल खंग धारण करते हैं वह अविद्यामय कोशसे आच्छादित विद्यामय ज्ञान ही है ॥७४॥
हे मैत्रेय ! इस प्रकार पुरुष, प्रधान, बुद्धि, अहंकार, पत्र्चभूत, मन, इन्द्रियाँ तथा विद्या और अविद्या सभी श्रीहृषीकेशमें आश्रित हैं ॥७५॥
श्रीहरि रूपरहित होकर भी मायामयरूपसे प्राणियोंके कल्याणके लिये इन सबको अस्त्र और भूषणरूपसे धारण करते हैं ॥७६॥
इस प्रकार वे कमलनयन परमेश्वर सविकार प्रधान ( निर्विकार ). पुरुष तथा सम्पूर्ण जगत्‌को धारण करते हैं ॥७७॥
जो कुछ भी विद्याअविद्या , सत् - असत् तथा अव्ययरूप है, हे मैत्रेय ! वह सब सर्वभूतेश्वर श्रीमधुसूदनमें ही स्थित हैं ॥७८॥
कला, काष्ठा, निमेष, दिन, ऋतु, अयन और वर्षरूपेसे वे कालस्वरूप निष्पाप अव्यय श्रीहरि ही विराजमान हैं ॥७९॥
हे मुनिश्रेष्ठ ! भूलोंक, भुवलोंक और स्वलोंक तथा मह, जन, तप और सत्य आदि सातों लोक भी सर्वव्यापक भगवान् ही हैं ॥८०॥
सभी पूर्वजोंके पूर्वज तथा समस्त विद्याओंके आधार श्रीहरि ही स्वयं लोकमयस्वरूपसे स्थित हैं ॥८१॥
निराकार और सर्वश्वर श्रीअनन्त ही भूतस्वरूप होकर देव, मनुष्य और पशु आदि नानारूपोंसे स्थित हैं ॥८२॥
ऋक् , यजूः , साम और अथर्ववेद, इतिहस ( महाभारतादि), उपवेद ( आयुर्वेदादि), वेदान्तवाक्य, समस्त वेदांग, मनु आदि कथित समस्त धर्मशास्त्र पुराणादि सकल शास्त्र, आख्यान, अनुवाक ( कल्पसूत्र ) तथा समस्त काव्य-चर्चा और रागरागिनी आदि जो कुछ भी हैं वे सब शद्बमूर्तिधारी परमात्मा विष्णुका ही शरीर हैं ॥८३-८५॥
इस लोंकमें अथवा कहीं और भी जितने मूर्त, अमूर्त पदार्थ हैं, वे सब उन्हींका शरीर हैं ॥८६॥
मैं तथा यह सम्पूर्ण जगत् जनार्दन श्रीहरि ही हैं; उनसे भिन्न और कुछ भी कार्य कारणादि नहीं हैं - जिसके चित्तमें ऐसी भावना है उसे फिर देहजन्य रागद्वेषादि द्वन्द्वरूप रोगकी प्राप्ति नहीं होती ॥८७॥
हे द्विज ! इस प्रकार तुमसे इस पुराणके पहले अंशका यथावत् वर्णन किया ! इसका श्रवण करनेसे मनुष्य समस्त पापोंसे मुक्त हो जाता हैं ॥८८॥
हे मैत्रेय ! बारह वर्षतक कार्तिक मासमें पुष्करक्षेत्रमें स्नान करनेसे जो फल होता है; वह सब मनुष्यको इसके श्रवनमात्रसे मिल जाता है ॥८९॥
हे मुने ! देव, ऋषि, गन्धर्व, पितृ और यक्ष आदिकी उप्तत्तिका श्रवण करनेवाले पुरुषको वे देवादि वरदायक हो जाते है ॥९०॥
* प्राणायामादि साधनविषयक ज्ञानको 'साधनालम्बन -ज्ञान ' करते हैं ।
इति श्रीविष्णुपुराणे प्रथमेंऽशें द्वाविंशोऽध्यायः ॥२२॥
इति श्रीपराशरमुनिविरचिते श्रीविष्णुपरत्वनिर्णायके श्रीमति विष्णुमहापुराणे प्रथमोंऽशः समाप्तः ॥